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हरीतिमा और सर्जना-सजग आनंद से भरे भविष्यों का निर्माण करने में सक्षम हैं।
मानव सभ्यता ने प्राकृतिक विकास की एक ऐसी स्थिति प्राप्त कर ली है, जहां मानव प्रजाति का संपूर्ण जीवन और सारे जीवित ग्रह पर नियंत्रण है। संपूर्ण जैवमंडल, ग्रह, यहां तक कि 'अपराजेय' ब्रह्मांड भी अब मानव जाति की हिरासत में है। किसी एक जीव का इतना विराट वर्चस्व! क्या यह प्राकृतिक विकास का लक्ष्य था? शारीरिक शक्ति में अनेक प्रजातियों से निर्बल होने पर भी सारे जीवों के नियंता के रूप में अस्तित्व में आए मानव के विकास की गाथा के केंद्र में है उसकी बुद्धि की अद्भुत क्षमताएं और उसके नट-बोल्ट कलाओं वाले हाथों की रचनाएं।
मानव ने पृथ्वी के जैवमंडल के इतर एक विराट अंतरिक्ष क्षेत्र में अपना अस्तित्व जमा लिया है, जिसे हम मानव प्रभा मंडल अथवा बौद्धिक मंडल कह सकते हैं। नक्षत्रों, ग्रहों, चंद्रमाओं और क्षुद्र ग्रहों से लेकर ब्लैकहोल तक की खोजें हमने कर ली हैं। इन उपलब्धियों के उपरांत भी हम संतृप्त नहीं हुए, इसलिए अपने बौद्धिक मंडल की परिधि बढ़ाते जा रहे हैं। और संभवतः निकट भविष्य में हमारा प्रभा मंडल ब्रह्मांड की अनंतता तक विस्तार ले लेगा।
मानव की ऐसी अकूत प्रगति में सबसे बड़ा हाथ रहा है उसी के द्वारा आविष्कृत और विकसित विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी का।
दोनों का एक ही लक्ष्य रहा है : प्रकृति और प्राकृतिक संसाधनों का अधिकतम दोहन। आर्थिक वृद्धि को उच्चतम स्तर पर ले जाने के लिए अंधाधुंध प्रतिस्पर्धा चली, तो प्रकृति का विनाश चरम की और बढ़ता चला गया। लाखों-करोड़ों वर्षो में अस्तित्व में आए और समय के साथ पौधों, जंतुओं और सूक्ष्म जीवों की असंख्य प्रजातियों से वैभव पर पहुंचे पृथ्वी के जीवन से जुड़े पवित्रता के भाव विज्ञान और प्रौद्योगिकी ने तार-तार कर दिए हैं। निष्ठा, परोपकार, नैतिकता आदि से विज्ञान और प्रौद्योगिकी का कोई सरोकार नहीं। सरोकार है तो बस अधिकतम दोहन, अधिकतम आर्थिक वृद्धि, अधिकतम प्रदूषण से।
विज्ञान के वे पहलू मानव सभ्यता में समावेशित होने चाहिए, जो कल्पनाओं को पंख देने में सहायक हैं, जो एक गहरे और सकारात्मक जीवन-दर्शन के साथ गुंथे हुए हैं। विज्ञान और प्रौद्योगिकी का वह स्वरूप स्वीकार्य है, जो हमें ब्रह्मांड की गुत्थियों को सुलझाने में सहायता करे, दूसरे ग्रहों पर जीवन का प्रादुर्भाव कर सके। जब तक विज्ञान हमारे धर्म-दर्शन का अभिन्न अंग था, उसका स्वरूप प्रकृति संवर्धन और मानव कल्याण वाला ही था। जब से विज्ञान को आर्थिकी की पीठ पर बैठा दिया गया, इसका उद्देश्य प्रकृति दोहन पर आधारित आर्थिक वृद्धि तक सीमित रह गया, और सामाजिक-आर्थिक विषमताओं से लेकर अंतरराष्ट्रीय तनावों और प्रचंड युद्धों तक इसकी बढ़-चढ़कर भूमिका रही। अगर विज्ञान का काम मानव की सेवा करना था, मानव कल्पनाओं को पोषित करना था, कला और दर्शन को समृद्ध करना था, तो वह जीवन-विनाशक कैसे हो गया?
प्रश्न यह है कि हमारी वर्तमान सभ्यता की प्रसन्नता का स्तर कितना ऊंचा है। किसी व्यक्ति, समूह, समाज, राष्ट्र और सभ्यता की उत्कृष्टतम उपलब्धि क्या है? यदि विज्ञान और प्रौद्योगिकी ही सर्वोत्तम उपलब्धि के मानक होते, तो यह दुनिया खुशहाली के चरम पर होती। भूख, प्यास, कुपोषण, महामारियों, युद्धों, आतंकवाद और ईर्ष्या-द्वेष-वैमनस्य के साये में मर-खप रही दुनिया में कहीं भी आनंद की कोई लहर दिखाई पड़ती है? भविष्य की कोख में बंजरता के बीज हैं!
यदि कोई सभ्यता सही दर्शन को विकसित नहीं करती, उसका अनुसरण नहीं करती और उसको विस्तार नहीं देती, तो वह अपनी खुशियों को अक्षुण्ण नहीं रख सकती। ऐसी सभ्यता क्षुद्र लक्ष्यों को प्राप्त करने का सहारा लेती है तथा अपनी गहनता के साथ अस्तित्व में नहीं रहती। यदि कोई सभ्यता ऐसे दर्शन का अनुसरण करती है, जो जीवंत सामाजिक-सांस्कृतिक संस्थानों, ज्ञान, आध्यात्मिकता, रचनात्मकता, सौंदर्य, और स्वतंत्रता में योगदान दे, तो यह निश्चित है कि वह निरंतर और अंतहीन रूप से जीवनदायिनी सुखों और खुशियों के बीच खिलती रहेगी।
जीवट भरी सभ्यता वही होती है, जो प्रफुल्लताओं से ओतप्रोत वातावरण में फूलती-फलती है। भारतीय सनातन सभ्यता के सहस्राब्दियों से अनवरत अपनी आभा फैलाने के पीछे सबसे बड़ा कारण यही है कि हमने जिस गहरे ज्ञान की सर्जना की है, वह स्वयं में आंनद का अकूत स्रोत है। आए दिन पर्व मनाना, पौधों और जंतुओं से लेकर मिट्टी, पर्वत, नदियों और सूर्य के प्रति पवित्रता के भाव और जीवन का जयकारा करने वाले सनातन धर्म की नींव पर अटल खड़ा और दुनिया को ज्ञान मंत्र देने वाला भारत स्वयं में पृथ्वी और ब्रह्मांड की सबसे अद्भुत, प्रेरणा-भरी और जीवटता का संचार करने वाली गौरव गाथा है।
यदि विज्ञान प्रकृति-विनाशक रूप में रहा होता, तो भारतीय सभ्यता का भी वही हाल हुआ होता, जो अन्य सभी विलुप्त सभ्यताओं का हुआ है। लेकिन अर्थाधारित कालखंड के इस मोड़ पर कोई एक सभ्यता एकल रूप में नहीं खिल सकती। सब एक-दूसरे पर किसी न किसी रूप में निर्भर हैं। फिर भी दुनिया की प्राचीनतम भारतीय सभ्यता विश्व की समकालीन उभयनिष्ठ सभ्यता को वे सभी जीवन-मूल्य और सनातन दर्शन दे सकती है, जो आशाओं, हरीतिमा और सर्जना-सजग आनंद से भरे भविष्यों का निर्माण करने में सक्षम हैं।
सोर्स: अमर उजाला
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