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- जीवन का गीत सुनो रे
कृष्ण कुमार रत्तू: बदलते हुए पर्यावरणीय परिदृश्य में इन दिनों बारिश के संदर्भ भी बदल गए हैं। सावन के महीने में घनघोर घटाएं कभी अंतर्मन को आनंदित कर नई अंतर्दृष्टि के द्वार खोलती थीं। इन दिनों बारिश के मौसम में मन-मस्तिष्क में कितनी स्मृतियों की ध्वनियां उमड़ते हुए मेघों की तरह संवाद-रहित हो गई हैं। गावों की बरसात का वह अंदाज और रोमांच कहीं दूर छूट गया है। सोंधी मिट्टी की खूशबू, जो लंबे इंतजार के बाद मेघों की पहली बरसात के बाद आती थी, लगता था वह जिंदगी की ताजगी का एक ऐसा पल है, जो लौटकर फिर अगले वर्ष आएगा। शायद इसीलिए मन को 'बरसो रे मेघा' जैसे गीतों की लय ताजगी से भर देती थी।
इस मौसम के बदलाव में हमारा अपना दोष भी है। पिछले दशकों में जिस तरह हमने अपने जल, जंगल और जमीन को नष्ट किया, अपने पहाड़ों को उजाड़ा और अपने मैदानों को सीमेंट के जंगल में बदला है, शहरों की नई सभ्यता को जन्म दिया है उसका परिणाम यह है कि हमारे गांव बिल्कुल समाप्त होने की कगार पर पहुंच गए हैं। गांवों में भी जमीन का फीसद अप्रत्याशित रूप से कम हो गया है। नए सर्वेक्षणों में पर्यावरणीय अनुपात चौंकाने वाले हैं।
बरसात, जो कभी हमारी ग्रामीण संस्कृति की प्रतीकात्मक झलक ही नहीं, बल्कि हमारे रिश्तों के पारिवारिक संबंधों को भी प्रगाढ़ करती थी, अब बिखर-सी गई है। सच तो यह है कि अब बरसो रे मेघा जैसे मन को हरसाने वाले गीत कहीं खो गए हैं। बरसते पानी और गरजते मेघों का संगीत अब आभासी दुनिया में सिमट गया है। पहाड़, बारिश आदि अब नाम के रह गए हैं।
नई पीढ़ी को मेघों के बरसने का संगीत इन दिनों नहीं सुनता है। बदलती हुई जिंदगी की यह सबसे बड़ी त्रासदी है कि हमने आने वाली पीढ़ी के लिए जल, जंगल, जमीन के साथ अपना परंपरागत गीत-संगीत और बरसात जैसे मौसम का रोमांच और रोमांस सब कुछ गंवा दिया है। सच तो यह है कि अब बारिश त्रासद दृश्य, गावों में बाढ़ से तबाही के मंजर दिखाती है। समाचारों की सुर्खियों में इन दिनों बरसात के इसी तरह के दृश्य हैं। क्या यह मानवीय तबाही नहीं!
वे बरसात के रूमानी पल, जिस पर शायरों ने दिल खोल कर लिखा है। भीगती हुई फिल्मों की नायिका और रोमांच के प्रज्ज्वलन में लिप्त रोमांस से भरा नायक पर्दे पर देखना अब संभव नहीं है, क्योंकि बदलते सामाजिक ताने-बाने और नई तकनीक ने मौसम का भी नया अध्याय लिख दिया है। भीगे हुए मौसम में जीवन कितना सहज और जिंदगी से लबरेज हो जाता था, वह बीते जमाने की परिकल्पना हो गई है, क्योंकि बिगड़ती हुई पर्यावरणीय स्थितियों ने मौसम का मिजाज भी बदल दिया है।
अब या तो बादल फटते हैं या फिर बाढ़ का प्रकोप कई बस्तियों, पहाड़ों की पहचान तक को बहा ले जाता है। वहीं पर मैदानों को बाढ़ की धार से रोक देता है। आम आदमी, जो कभी बरसात के इन दिनों में आकाश से बरसते हुए पानी को भगवान की रहमत मानता था, अब डरने लगा है। सावन के महीने में गाए जाने वाले सुदूर गांवों के हरियाले परिवेश के प्रेम भरे गीत और संगीत भी भूल रहे हैं।
समय का एक सच यह भी है कि जिंदगी समय का चक्रनाद है, जिसमें सभी ऋतुएं अपने समय से गुजरती हैं, पर हमारी तहजीब में नए तजुर्बों, बढ़ते उद्योगीकरण और आबादी के विस्फोट ने इस ऋतु-चक्र को भी बेतरतीब कर दिया है। अब ऋतुएं अपने समय से भटक गई हैं। गर्मी का मौसम लंबा हो गया है। मेघों से बरसता पानी भी अब सावन के महीने में भटकी हुई नींद की तरह हमारे जीवन से छूटता जा रहा है। यह हमारी बदलती हुई जीवन-शैली का एक भयावह सच है, जिसमें हम सब भागीरदार हैं।
आम आदमी जीने की जुगत में जीवन बसर कर रहा है। शहर का आदमी शहरीकरण का शिकार हो गया है। इस स्थिति में एडवर्ड सईद का कथन याद आता है, जब उन्होंने कहा था कि जिस तरह से हम पर्यावरणीय स्थितियों को इस धरती पर नष्ट करते जा रहे हैं, आने वाले कुछ वर्षां में हम अपनी पहचान को भी खत्म कर देंगे, यही हमारी सभ्यता के नष्ट होने की निशानी होगी।
अब जब भी सावन आता है, हर बार सूखा हो जाता है। आदमी का मन भी, जो प्रकृति का परिचायक है, अपने गीत-संगीत और मेघों की मल्हार, दुलार से दूर होता जा रहा है। क्या आप नहीं समझते कि मन में मेघा ही न बरसे, कभी आपका तन ही न भीगे तो आपकी जिंदगी कैसी होगी। एक बार जरा कभी आभासी दुनिया से बाहर निकल कर बरसात में भीगकर तो देखो, आपको जिंदगी का संगीत सुनाई देगा।