सम्पादकीय

नवाचार का पाठ

Subhi
4 Nov 2022 6:14 AM GMT
नवाचार का पाठ
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इसीलिए लाख कोशिश के बावजूद आभासी यानी ‘वर्चुअल’, ‘आनलाइन’ या फिर ‘डिजिटल’ माध्यम से शिक्षण अपना उतना प्रभाव नहीं छोड़ पाए, जितना वास्तविक कक्षा में होने वाला शिक्षण।

रामानुज पाठक: इसीलिए लाख कोशिश के बावजूद आभासी यानी 'वर्चुअल', 'आनलाइन' या फिर 'डिजिटल' माध्यम से शिक्षण अपना उतना प्रभाव नहीं छोड़ पाए, जितना वास्तविक कक्षा में होने वाला शिक्षण। महामारी के दौर में भले ही मजबूरीवश आनलाइन स्वरूप में शिक्षण संचालित किया गया, लेकिन कोरोना का जोर कम होने के बाद स्कूलों में कक्षा शिक्षण जो नियमित या प्रत्यक्ष स्वरूप में होता है, उसकी ओर शिक्षक और शिक्षार्थी, दोनों ही सप्रेम लौट आए। दरअसल, कक्षा में प्रत्यक्ष शिक्षण में शिक्षक और शिक्षार्थी पारस्परिक संवाद करते हैं, प्रश्न पूछते हैं, उत्तर देते हैं। इसलिए कक्षा शिक्षण सीखने की अति उत्तम, वैज्ञानिक और प्रभावी विधि मानी जाती रही है।

वर्तमान समय में एक जटिल समस्या बनकर उभरी है 'कक्षा की नीरसता'। कक्षा का वातावरण बोझिल और निष्प्रभावी होता जा रहा है। कुछ शिक्षक ऐसे होते हैं जो अपनी शिक्षण कला से कक्षा के नीरस और उबाऊ माहौल में रस भर देते हैं, कक्षा के वातावरण को रोचक बना देते हैं। कभी किसी लघुकथा से तो कभी किसी दृष्टांत से। कभी किसी समसामयिक प्रसंग से तो कभी गीत-गजल से विद्यार्थियों में नई ऊर्जा का संचार कर देते हैं, उनमें उमंग भर देते हैं। इसीलिए ऐसे नवाचारी शिक्षकों की कक्षा विद्यार्थी कभी छोड़ना नहीं चाहते हैं।

एक परिपक्व समझ के मुताबिक, वही सफल शिक्षक है, जिसकी कक्षा में पढ़ने के लिए विद्यार्थियों में उत्साह और उमंग हो आतुरता हो। कक्षा की भीड़ बताती है कि अमुक शिक्षक का शिक्षण कितना प्रभावी है। शिक्षकों को चाहिए कि विद्यार्थियों में प्रश्न पैदा करें उन्हें जिज्ञासु बनाएं, रटने वाली विद्या से दूर करें।

कोई भी शिक्षार्थी तभी जीवन में और प्रतियोगी परीक्षाओं में अच्छा कर पाता है, जब उसमें मौलिकता हो, सोच मौलिक हो, लेखन कौशल और अभिव्यक्ति में मौलिकता हो। निजी विद्यालयों की जो सबसे बड़ी कमी रही है, वह यह है कि वे विद्यार्थी को चिंतनशील बनने से रोकते हैं। बच्चों को मोटी-मोटी किताबों में ही उलझाए रखते हैं। शासकीय विद्यालयों में काम के अनुभवों के आधार पर कहा जा सकता है कि सरकारी स्कूल का विद्यार्थी ज्यादा चिंतनशील होता है और समस्याओं से लड़ने के लिहाज से ज्यादा जुझारू होता है।

उसकी मौलिकता को निखारने के सरकारी स्कूलों में मंच और अवसर ज्यादा मिलते हैं। लेकिन अब जो दोनों प्रकार के विद्यालयों में कमी हो गई है या इस कमी के कारण जो समानता आ गई है, वह यह है कि 'कक्षा का वातावरण' अशासकीय और शासकीय दोनों विद्यालयों में उबाऊ हो रहा है। विद्यार्थी कई बार शिक्षकों की कक्षाओं में जम्हाई लेते हैं और भौतिक, रसायन और जीव विज्ञान जैसे विषयों का पाठ्यक्रम पूरा करने को ही अपना परम धर्म समझ बैठते हैं। कक्षाओं की सजीवता खोने लगी है और शिक्षकों में जीवट खोने लगी है।

दरअसल, कक्षाओं को प्रयोगशाला और कार्यशाला- दोनों का किरदार निभाना चाहिए, लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा। ऐसा भी नहीं है कि कक्षा के वातावरण में जान फूंकने वाले शिक्षक नहीं हैं, लेकिन इनकी संख्या बहुत कम है। आज स्वाध्यायी शिक्षकों की संख्या दिनों दिन घटती जा रही है। प्रत्येक संकुल क्लस्टर में गिने-चुने ही ऐसे शिक्षक बचे हैं जो कक्षागत वातावरण को रोचक बना कर पढ़ाते हैं। भारत का भविष्य गढ़ने वाले शिक्षक कक्षा का वातावरण अगर रोचक बना दें, 'पहले अपनाओ, बाद में पढ़ाओ' की उक्ति को आत्मसात कर लें तो न केवल कक्षाओं, विद्यालयों से बीच में पढ़ाई छोड़ने की प्रक्रिया घटेगी, बल्कि उम्दा किस्म के वैज्ञानिक नवोन्मेषी विद्यार्थी पैदा होंगे। शिक्षा मनोविज्ञान के तहत भी यह माना जाता है कि कक्षा का सौम्य वातावरण अधिगम में वृद्धि करता है।

स्कूलों में शिक्षक ही विद्यार्थियों के सबसे बड़े आदर्श और नायक होते हैं। बच्चे उनके चलने, बोलने, उठने, वस्त्र विन्यास, केश विन्यास की सबसे ज्यादा नकल करते हैं। पर दुखद पहलू यह है कि आज बच्चे अपना भविष्य शिक्षक के रूप में नहीं चाहते। हमारी सरकारों को भी चाहिए कि शिक्षकीय पेशा को आकर्षक बनाएं, वेतन-भत्ते, सेवा शर्तें ऐसी हो कि युवा इस पेशे की ओर आकर्षित हों। इसके अलावा, इस पेशे में उन्हीं युवाओं को आना चाहिए, जिनमें 'शिक्षकीय निष्ठा' और 'अध्ययनशीलता' हो, कक्षा को सजाने-संवारने का माद्दा रखते हों और जिनमें श्रमशीलता, सरलता और उद्यमिता हो।

लेकिन दुखद है कि ऐसा हो नहीं पा रहा है। बल्कि शिक्षण की पद्धति और स्वरूप ऐसा होता जा रहा है कि स्कूल और कालेज में पढ़ते हुए विद्यार्थियों का मानस बेहतर भविष्य के नाम पर ज्यादा पैसा वाले क्षेत्र में अपनी जगह बनाना हो जाता है। हालांकि नियमित शिक्षकों की आय बेहतर रही है, मगर वह स्वरूप भी अब तेजी से बदल रहा है और सरकारें कम खर्च में रखे गए शिक्षकों से काम चलाना चाहती हैं। इसका असर शिक्षण और शिक्षा पर पड़ेगा ही और इसका असली पीड़ित विद्यार्थी को होना है!


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