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लगातार बढ़ती कीमतों और वैश्विक कोविड-संकट के कारण उनकी अप्रूवल रैटिंग्स अब 40 फीसदी के नीचे जा चुकी हैं
रुचिर शर्मा का कॉलम:
जो बाइडेन की चमक धुंधला चुकी है। लगातार बढ़ती कीमतों और वैश्विक कोविड-संकट के कारण उनकी अप्रूवल रैटिंग्स अब 40 फीसदी के नीचे जा चुकी हैं। लेकिन वे इकलौते नहीं हैं, ओमिक्रॉन ने दुनिया के ऐसे अनेक नेताओं की छवि को धूमिल किया है, जिनके बारे में पहले लगा था कि वे महामारी से लड़ाई में विजेता बनकर उभर रहे हैं। फ्रांस से लेकर ताईवान तक दुनिया के 15 प्रमुख लोकतांत्रिक देशों- जहां नियमित चुनाव होते हैं- में से दस ऐसे हैं, जिनके शीर्ष नेता या तो अलोकप्रिय हो चुके हैं या उनकी लोकप्रियता घट रही है।
महामारी की शुरुआत में जो मतदाता इन नेताओं के पीछे कमर कसकर खड़े थे और जिनकी अप्रूवल रैटिंग्स नित नए सोपान छू रही थीं, वे अब लस्त-पस्त और थके हुए नजर आते हैं। उनके मन में संशय घर चुका है कि क्या इस वायरस को परास्त करने का कोई उपाय है भी? जॉन हॉपकिंस यूनिवर्सिटी से प्राप्त डाटा बतलाता है कि दिसंबर के बाद से अब तक ऐसे देशों की संख्या में तेजी से गिरावट आई है, जहां नए केसों की संख्या शून्य के पास पहुंच गई है।
अलबत्ता यह सफलता के लिए एक ऊंचा मानदंड है, लेकिन ट्रेंड से यह तो दिखता ही है कि हवा का रुख किधर है। यही कारण है कि दुनिया के 50 सबसे ज्यादा आबादी वाले देशों में आज ऐसा एक भी नहीं है, जो इस वायरस से चल रही लड़ाई में जीतता नजर आता हो। जो देश इस मोर्चे पर अच्छा कर रहे हैं, वे मुख्यतया पलाऊ या वैटिकन सरीखे माइक्रो-स्टेट्स हैं। वहीं, लूजर्स- यानी ऐसे देश जिन्हें ओमिक्रॉन पर कोई कार्रवाई करने की जरूरत है- की संख्या गत दिसंबर से दोगुनी होकर अब 110 से अधिक हो चुकी है।
इससे पूर्व अनेक अधिकारी और पत्रकारगण उन देशों के बारे में अध्ययन कर रहे थे, जिनके यहां नए केस आना लगभग बंद हो गए थे और कोविड के खिलाफ जारी जंग में उन्हें मॉडल की तरह प्रस्तुत किया जा रहा था। वह उद्यम तो अब निष्प्राण हो चुका है। कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, ताईवान, स्वीडन, जर्मनी जैसी अनेक सक्सेस-स्टोरीज़ महामारी की लहरों में धूमिल हो चुकी हैं। कुछ देश तो ऐसे भी हैं, जिन्होंने विफलता से सफलता तक की राह तय की और फिर वहीं लौट आए जहां से शुरुआत की थी।
बाइडेन इसी की कीमत चुका रहे हैं। लेकिन वो इकलौते नहीं हैं, जिनकी रैटिंग्स तेजी से गिरी हैं। यूके, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा में भी यही आलम है। शायद भारत इसमें एक अपवाद है, जो आज भी अपने नेता के पीछे दृढ़ता से खड़ा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अप्रूवल रैटिंग 70 प्रतिशत से अधिक है और निरंतर ऊपर चढ़ती जा रही है। दूसरे अनेक देशों में आलोचकगण सरकारों को दोष दे रहे हैं कि वे महामारी का ठीक से सामना नहीं कर पाईं, जबकि सच्चाई यह है कि पूरी दुनिया में ही हालत कमोबेश एक जैसी है।
न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री जसिंडा आर्डेर्न, जो महामारी के शुरुआती दौर में सितारा बनकर उभरी थीं, की चमक को भी नए वैरियंट्स ने धुंधला दिया है। यूरोप और अमेरिका में राजनेताओं की क्षमता में विश्वास घटा है। जो देश वायरस के सम्पूर्ण उन्मूलन की बात करते थे, अब दूसरी भाषा बोल रहे हैं। ओमिक्रॉन के बाद चीन भी जीरो-कोविड की बात नहीं कर रहा है और टिप्पणीकारों ने भी उसे मॉडल बताना बंद कर दिया है।
सच्चाई तो यह है कि वायरस ने अनेक राज्यसत्ताओं की सीमाओं को उजागर कर दिया है और अब मतदाता धैर्य खोने लगे हैं। यूरोप और अमेरिका के कुछ क्षेत्रों में ओमिक्रॉन का पीक आने के बाद कुछ स्वास्थ्य-अधिकारियों ने उम्मीद जताई है कि शायद अब कोविड का एंडगेम शुरू होने वाला है। लेकिन सच यह है कि समय से पहले जीत की घोषणाएं भी लोगों में असंतोष ही पैदा करती हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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