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- कश्मीर: बोजकिर की...
आदित्य चोपड़ा: क्या कहा जाये राष्ट्रसंघ के उस अध्यक्ष के बारे में जिसे 1972 में भारत-पाकिस्तान के बीच हुए ऐतिहासिक शिमला समझौते असलियत और शर्तों का पता ही न हो ! इसी समझौते की तासीर थी कि 72 से लेकर 1998 तक पाकिस्तान के हुक्मरान कश्मीर का नाम तक लेने से डरते थे। मगर क्या सितम हुआ कि 1998 में दक्षिण अफ्रीका में हुए निर्गुट देशों के सम्मेलन में उस देश के राष्ट्रपति नेल्सन मंडेला ने कश्मीर के मुद्दे का जिक्र कर डाला तो तत्कालीन प्रधानमन्त्री स्व. अटल बिहारी वाजपेयी की विदेश नीति पर भारत में सवाल खड़े होने शुरू हो गये थे। हकीकत यह है कि इसके बाद से 2000 में पाकिस्तान में नवाज शरीफ की सरकार का तख्ता पलट करने वाले जनरल परवेज मुशर्रफ ने जम्मू-कश्मीर के मसले से फिर से धुंआ उड़ाना शुरू किया। इसके बावजूद भारत की बाद की सरकारों ने भी हमेशा शिमला समझौते को आगे रख कर पाकिस्तान को अपनी नजरें नीची रख कर भारत से बातचीत करने की ताकीद की। शिमला समझौता कोई कागज का टुकड़ा नहीं है बल्कि उस पाकिस्तान की शिकस्त का जीता-जागता दस्तावेज है जिसमें हिन्दोस्तान की जांबाज फौज के सिपाहियों की मर्दानगी और सरफरोशी की दास्तानें छिपी हुई हैं। इसलिए राष्ट्रसंघ के तुर्क अध्यक्ष 'बोलकान बोजकिर' को कश्मीर पर जबान खोलने से पहले शिमला समझौता पढ़ लेना चाहिए था। हुजूर ने इस्लामाबाद जाकर फरमा दिया कि पाकिस्तान को जम्मू-कश्मीर का मुद्दा अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर और ज्यादा पुरजोर तरीके से उठाना चाहिए। इससे साबित होता है कि राष्ट्रसंघ के सदर साहब का भारतीय उपमहाद्वीप के बारे में ज्ञान बहुत कच्चा है और आधा-अधूरा है।