सम्पादकीय

जिन्ना के मुरीद अखिलेश

Subhi
3 Nov 2021 1:49 AM GMT
जिन्ना के मुरीद अखिलेश
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भारत के सन्दर्भ में मुहम्मद अली जिन्ना की वही हैसियत है जो किसी संभ्रान्त घर में पैदा हुए अपने खानदान को बेआबरू और रुसवा करने वाले किसी ‘नालायक और नामाकूल’ बेटे की होती है।

आदित्य नारायण चोपड़ा: भारत के सन्दर्भ में मुहम्मद अली जिन्ना की वही हैसियत है जो किसी संभ्रान्त घर में पैदा हुए अपने खानदान को बेआबरू और रुसवा करने वाले किसी 'नालायक और नामाकूल' बेटे की होती है। अतः जिन्ना की शान में किसी भी तरह का कसीदा काढ़ने वाले किसी भी पार्टी के किसी भी नेता के लिए इस मुल्क की अवाम का नजरिया और सुलूक भी इसी तरह का होना चाहिए। आज की समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव को शायद यह भी नहीं मालूम कि स्वतन्त्र भारत में प्रखर समाजवादी विचारों की लौ जलाने वाले महान चिन्तक व जनप्रिय नेता स्व. डा. राम मनोहर लोहिया ने जिन्ना के बारे में क्या लिखा और कहा था? केवल चुनावी माहौल को साम्प्रदायिक पुट देने की गरज से अखिलेश बाबू ने जिस तरह राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, पं. जवाहर लाल नेहरू और सरदार पटेल के साथ जिन्ना की गिनती स्वतन्त्रता सेनानियों में कर डाली है, वह केवल शर्मसार होने की बाइस नहीं है बल्कि दिमागी तौर पर दिवालियेपन का इजहार भी करती है और बताती है कि उत्तर प्रदेश के एक जमाने में मुख्यमन्त्री रहे श्रीमान अखिलेश यादव को भारत के इतिहास के बारे में किसी दसवीं के छात्र के बराबर भी इल्म नहीं है। अगर अखिलेश बाबू डा. लोहिया की पुस्तक 'भारत के बंटवारे के खतावार लोग'(गिल्टी मेन आफ इंडियाज पार्टीशन) पढ़ लेते तो 'चुनावी चस्के' में भारत के करोड़ों मुसलमानों का अपमान करने की जुर्रत न करते। जिन्ना की प्रशंसा उन भारतीय मुसलमानों का घनघोर निरादर है जिन्होंने 1947 में देश के बटवारे के समय अपने मादरे वतन को छोड़ना वाजिब नहीं समझा। अगर एक राजनीतिक विश्लेषक के तौर पर देखा जाये अखिलेश यादव ने जिन्ना का कसीदा काढ़ कर अपने जनाधार पर अपने हाथों से ही कुल्हाड़ी चला दी है। अखिलेश यादव भारत के सच्चे नागरिक मुसलमानों को क्या जिन्ना से जोड़ कर देखना चाहते हैं? ध्यान रखा जाना चाहिए कि जिन्ना बेशक एक नामी बैरिस्टर थे मगर वकालत में एक समय तक आजादी से पहले उनके सहायक रहे स्व. एम.सी. चागला ने बंटवारे से पहले अपनी राष्ट्रवादी मुस्लिम पार्टी बना कर देश विभाजन का कड़ा विरोध किया था। इतना ही नहीं उत्तर प्रदेश में ही देवबन्द में स्थित दारुल उलूम के उलेमाओं ने भारत विभाजन की सख्त मुखालफत की थी, जमीयत उल-उलेमाएं हिन्द के साये में बंटवारे के खिलाफ तहरीक भी चलाई थी। ये सब जिन्ना के सिद्धान्तों का पूरी ताकत से विरोध कर रहे थे और भारत की एकता के पक्के पक्षधर थे। अखिलेश यादव ने इन सभी देशभक्त मुसलमानों को आम भारतीयों की निगाहों में शक के घेरे में लाने का महापाप ही नहीं किया बल्कि जिन्ना के द्विराष्ट्रवाद के सिद्धान्त को स्वतन्त्र भारत में हवा भी दे दी। जिस भारत में बच्चा जन्म लेते ही जिन्ना को भारत की आजादी की लड़ाई का खलनायक कहने लगता है उसे नेहरू, गांधी और पटेल के बराबर इज्जत बख्श करके अखिलेश यादव ने सिद्ध कर दिया है कि चुनावों में जीत के लिए वह किसी भी हद को पार कर सकते हैं। मगर न तो भारत के हिन्दू इतने मूर्ख हैं और न मुसलमान इतने बेवकूफ हैं कि वे समाजवादी पार्टी के नेता की असल मंशा न समझ सकें और चुनावों से पहले ही अपना पक्का इरादा न बना सकें। अखिलेश यादव भूल रहे हैं कि उन्होंने अपनी एक गलती से अगले साल होने वाले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों की बागडोर अपने ही हाथों से भाजपा व कांग्रेस के हाथ में दे दी है। क्योंकि समाजवादी पार्टी के जो समर्थक नागरिक हैं, खास कर ग्रामीण वर्ग के मतदाता वे इस मुद्दे पर कोई समझौता नहीं कर सकते। अपने ही बुने जाल में अखिलेश बाबू इस तरह फंसे हैं कि उन्हें 'न माया मिलेगी और न राम' बंटवारे का दर्द भारत के गांवों से ज्यादा कोई और नहीं समझ सकता जब जिन्ना की कारगुजारियों की वजह से भाई-भाई का दुश्मन हो गया था और हर काम साझा करने वाले लोग एक-दूसरे के खून के प्यासे हो गये थे। सबसे ज्यादा कत्लोगारत पंजाब सूबे में हुई थी जबकि इस राज्य के हिन्दू-मुसलमानों की संस्कृति एक थी। करोड़ से अधिक लोग बेघर हो गये थे और दस लाख लोगों की लाशों पर नामुराद पाकिस्तान को जिन्ना ने तामीर कराया था। इसी वजह से डा. लोहिया ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक में लिखा था कि जिन्ना ने एेसा सितम कर डाला है जिसका खामियाजा आने वाली पीढि़यां सदियों तक भुगत सकती हैं। अतः यह बेवजह नहीं था कि डा. लोहिया ने ही सबसे पहले 1955 में भारत-पाक महासंघ बनाने का प्रस्ताव रखा था। इसकी वजह यही थी कि जिन्ना ने पानी पर लकीर खींचने की हिमाकत की है जिसे दोनों मुल्कों के लोगों का भाईचारा ही नकारा सकता है। मगर क्या गजब है कि अखिलेश यादव आजाद भारत के लोगों के ईमान का ही इम्तिहान लेने को उतावले हो रहे हैं। मगर इससे एक सबक सीखने की भी जरूरत है कि राजनीतिक दल अपना उल्लू साधने के लिए किस तरह लोगों के जीवन से जुड़े चुनावी मुद्दों को ताक पर रखने की तरकीबें भिड़ाते हैं। संपादकीय :सदस्यों को दिवाली का तोहफा... Meradocतेजी से सुधरती अर्थव्यवस्थाग्लासगो कॉप सम्मेलन से उम्मीदेंममता दी का कांग्रेस पर वार ?रोम में गूंजा मोदी मंत्र14 राज्यों में उपचुनावयह सनद रहनी चाहिए कि आजाद हिन्दोस्तान में भारत के मुसलमानों ने अपना सियासी लीडर आज तक किसी मुसलमान को नहीं माना है और अपनी किस्मत की बागडोर हमेशा हिन्दू नेताओं के हाथ में ही दी है और भारत के लोकतन्त्र में बराबरी का दर्जा हासिल किया है। यही वह नुक्ता है जो भारतीय मुसलमानों को दिल से हिन्दोस्तानी साबित करता है मगर इसका मतलब यह नहीं है कि अखिलेश यादव जैसा इतिहास का अज्ञानी नेता उन्हें अपने ही भाइयों के बीच शक के घेरे में डालने की गुस्ताखी करे। अगर गौर से देखें तो हम इसी नतीजे पर पहुंचेंगे क्योंकि उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी भी एक जमाने तक मुस्लिम वोट बैंक की मुरीद रही है।''चलता हूं थोड़ी दूर हर तेज रौ के साथ पहचानता नहीं हूं अभी रहबर को मैं।''


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