सम्पादकीय

झारखंड सरकार सुनिश्चित करे कि लिंचिंग निवारण कानून का इस्तेमाल इंसाफ दिलाने के लिए हो, राजनीतिक बदले के लिए नहीं

Rani Sahu
22 Dec 2021 4:05 PM GMT
झारखंड सरकार सुनिश्चित करे कि लिंचिंग निवारण कानून का इस्तेमाल इंसाफ दिलाने के लिए हो, राजनीतिक बदले के लिए नहीं
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झारखंड विधान सभा में “भीड़ हिंसा एवं भीड़ लिंचिंग निवारण बिल 2021” (Prevention of violence and mob lynching bill 2021) बिना किसी बहस के पास हो गया

ब्रज मोहन सिंह झारखंड विधान सभा में "भीड़ हिंसा एवं भीड़ लिंचिंग निवारण बिल 2021" (Prevention of violence and mob lynching bill 2021) बिना किसी बहस के पास हो गया. इस विधेयक को पास करवाने के लिए सरकार को बहुत ज़्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ी, हालांकि मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी ने बहस की मांग की थी. सुप्रीम कोर्ट की तरफ से सभी राज्यों को हिदायत दी गई थी कि भीड़ द्वारा की जा रही हिंसा और हत्या (Mob lynching) की घटनाओं को रोकने का राज्य सरकारों और केंद्र सरकार द्वारा प्रयास होना चाहिए, राज्य की जरूरत के हिसाब से इसके लिए ठोस कानून भी बनने चाहिए.

लिंचिंग निवारण बिल लाने वाला झारखंड तीसरा राज्य बन गया, इसके पहले पश्चिम बंगाल और राजस्थान सरकार ने ऐसे ही बिल पारित किए. संयोग से ये सभी वैसे राज्य हैं जहां गैर-बीजेपी सरकारें हैं और अचरज नहीं कि बीजेपी इसे "खास वर्ग" को खुश करने वाला बिल बता रही है
अल्पसंख्यकों में बिल के बाद खुशी, वहीं बीजेपी नाराज़-
झारखंड में अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय के बीच इस बिल के आने के पहले से ही खुशी की लहर थी, जिसका इज़हार वहाँ के लोगों ने मस्जिदों के सामने आकर मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के पक्ष में नारे लगाकर भी किया. झारखंड में मुस्लिम समुदाय के लोगों कुल आबादी का लगभग 15 प्रतिशत है, हेमंत सोरेन खुद को अल्पसंख्यकों के हितैषी के तौर पर प्रचारित करने में कोई भी कमी नहीं छोड़ते. झारखंड की लगभग 10 विधान सभा सीटों पर मुस्लिम समुदाय 20-38 प्रतिशत के साथ निर्णायक स्थिति में हैं.
राज्य में जेएमएम और काँग्रेस की साझा सरकार बनने ने बाद भी लिंचिंग की कई घटनाएँ हुईं जिसको लेकर अल्पसंख्यकों की तरफ से कड़े कदम उठाए जाने की मांग की थी.
झारखंड जनाधिकार मंच की तरफ से दावा किया गया था कि राज्य में 2016 से 2021 के बीच मोब लिंचिंग की घटना में 30 लोगों की हत्या हुई, संसदीय कार्य मंत्री आलमगीर आलम ने कहा कि राज्य में पिछले पाँच वर्ष में 53 लोगों की लिंचिंग हुई, आंकड़े का आधार क्या था इसके बारे में कोई पुख्ता जानकारी नहीं दी गई.
सरकार लिंचिंग की सज़ा मौत चाहती थी, अब होगी उम्र कैद-
झारखंड का ये बिल राजस्थान या बंगाल के बिल से बहुत भिन्न नहीं है, बिल बनने से पहले ड्राफ्ट में लिंचिंग की सज़ा सीधे मौत बताई जा रही थी, लेकिन बाद में इसे संशोधित करके उम्र कैद में तब्दील कर दिया गया. एक और महत्वपूर्ण फर्क है आर्थिक दंड के प्रावधान में. झारखंड में आर्थिक दंड पाँच लाख से लेकर 25 लाख तय की गई. मामूली रूप से घायल लोगों को भी एवज में 3 लाख रुपए मुआवजा देने का प्रबंध किया गया है.
इस घटना की जांच के लिए आईजी स्तर के अधिकारियों की नियुक्ति की बात कोई नई नहीं है. राज्य के डीजीपी खुद नोडल अफसरों की नियुक्ति से लेकर क्रियाकलाप तक की ज़िम्मेदारी लेंगे. राज्य में कानून व्यवस्था और भीड़ द्वारा की जा रही हिंसा का नीयत समय पर जायजा लेते रहेंगे. इस बिल का मकसद यही है कि राज्य में उन्माद की स्थिति पैदा नहीं पाए, पुलिस के आला अधिकारी इसे सुनश्चित करेंगे.
इस बिल में एक महत्वपूर्ण कमी की तरफ विपक्ष ने इशारा किया कि क्या दो लोगों को भीड़ का नाम दिया जा सकता है? क्योंकि बिल में दो या दो से अधिक लोगों के हिंसा में शामिल होने की घटना को लिंचिंग का नाम दिया जा सकता है. क्या इसका बेज़ा इस्तेमाल नहीं होगा?
इस बिल को सिलेक्ट कमिटी में क्यों नहीं भेजा गया?
इस विधेयक को सिलैक्ट कमिटी में भेजे जाने से इसके अलग अलग पक्षों पर चर्चा संभव थी लेकिन इसे आनन-फानन में पास कर दिया गया. ऐसा ही राजस्थान में भी हुआ था जहां 2019 में लिंचिंग विरोधी बिल को सिलैक्ट कमिटी में भेजने से सरकार ने परहेज किया. इस कानून का बेज़ा इस्तेमाल विरोधियों को निशाने पर लाने के लिए नहीं किया जाएगा, इसकी संभावना बेहद कम है क्योंकि लिंचिंग के मामलों ने पुलिस की भूमिका काफी अहम होती है. पुलिस चाहे तो किसी का नाम एफआईआर में डाल या निकाल सकती है.
राजस्थान के बहु-प्रचारित पहलू खान के मामले में भी पुलिस के ऊपर सवाल उठाया गया क्योंकि पुलिस ने उनलोगों के नाम एफआईआर से बाहर कर दिये थे, जिसके ऊपर पहलू खान ने इल्ज़ाम लगाया था.
लिंचिंग के मामले में क्या आईपीसी की धारा थी नाकाफी?
आईपीसी के सेक्शन 304 और 302 के तहत भीड़ द्वारा की गई हिंसा के आरोपियों को सजा देने का प्रावधान है. सेक्शन 149 और सैक्शन 149 भी भीड़ द्वारा की गई हिंसा को परिभाषित कर उसे दंडित करने का प्रावधान रखता है. हालांकि किसी समूह द्वारा किए गए अपराध और उसके पीछे की सोच (prosecution of group crimes) के मामले में स्पष्टता की ज़रूरत पिछले कुछ वर्षों में महसूस की जाती रही है. आईपीसी के समर्थन में ये बात काही जा सकती है कि जहां तक सज़ा की बात है लिंचिंग बिल कुछ अलग नहीं है, सिर्फ आर्थिक दंड के प्रावधान के मामले में राजी द्वारा पास किए गए बिल में ज़्यादा ज़ोर दिया गया है.
गौ-हत्या के मामले में देश भर में गौ-रक्षकों द्वारा कानून अपने हाथ में लेने से इतनी बड़ी समस्या खड़ी हुई है. इसके लिए एक और बिल लाने से ज़्यादा ज़रूरी था कि आईपीसी की पहले से मौजूद धाराओं का सही इस्तेमाल हो. लिंचिंग निवारण बिल से क्या गौकशी के मामले रुकेंगे, इस पर रौशनी नहीं डाली गई है. एक बड़ा खतरा ये है कि बिल के गलत इस्तेमाल होने की अवस्था में समाज धार्मिक आधार पर बंटेगा. हेमंत सोरेन सरकार को इस मामले में प्रतिक्रियावादी होने के बजाय समग्र समाज को साथ लेने की ज़्यादा चिंता करनी होगी, जिससे लगे कि वो किसी खास वर्ग के नहीं बल्कि सभी झारखंडियों की चिंता करते हैं.
बात जब झारखंड की हो रही है, राजस्थान की हो रही है, तो बात पंजाब की भी होनी चाहिए. गुरुद्वारा परिसर में और किसान आंदोलन की आढ़ में हुई जघन्य पाशविक हत्या क्या भीड़ द्वारा की गई हत्या (mob lynching) की परिधि में नहीं आता है इस पर भी कानून की जानकारों को विचार करना चाहिए. क्योंकि भीड़ द्वारा की जा रही इस तरह की हिंसा से जनहानि तो होती ही है साथ-साथ न्याय पर से भी लोगों का भरोसा उठता जाता है.
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