सम्पादकीय

अदृश्य दीवारें

Gulabi Jagat
6 July 2025 5:33 PM GMT
अदृश्य दीवारें
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विजय गर्ग

ग्रामीण समाज में अक्सर ऐसी घटनाएं देखने को मिलती हैं, जिसमें बचपन से लेकर जवानी तक साथ-साथ पले-बढ़े भाइयों तक के बीच में किसी बहुत मामूली-सी बात को लेकर अनबन हो जाती है । छोटी-सी बात कब बड़ी बन जाती है, पता ही नहीं चलता। ऐसे में दोनों के बीच जिस तरह बातचीत बंद हो जाती है, वह वक्त कब दिन, महीनों से साल दर साल में बदलता चला जाता है, समझ ही नहीं आता । स्वाभाविक है ऐसे में दोनों परिवारों के बीच में भी बातचीत बंद हो जाती है और आपस में कोई सामाजिक सहभागिता भी नहीं हो पाती । हालांकि, दोनों दूसरे-तीसरे व्यक्ति के माध्यम और तरीके से एक-दूसरे की खबर लेते रहते हैं । एक भाई का परिवार दूसरे भाई के परिवार के दुख के बारे में सुनकर दुखी होता है और सुख के बारे में सुन कर खुश होता है। बावजूद इसके दोनों परिवार के बीच घुलना-मिलना तो दूर बातचीत तक बंद रहती है । ऐसा नहीं है कि दोनों समझौता नहीं चाहते होंगे, लेकिन दिक्कत यह रहती है कि पहले बातचीत शुरू कौन करे। छोटी- सी बात से शुरू हुई यह कहानी अहम का मामला बन जाता है और प्रेम पर भारी पड़ जाता है ।

दो दोस्तों, दो रिश्तेदारों, परिजनों के बीच अक्सर इस तरह का मामला देखने को मिलता है । शिकायत रहती है कि उसने मुझे पहले फोन नहीं किया । वह मुझे फोन नहीं करता फिर मैं क्यों करूं? छोटी-छोटी शिकवे-शिकायतों का यह सिलसिला लगातार चलता रहता है। फोन हाथ में है और दोस्त को बस लगाना ही तो है । फिर हम अपने आपको बटन दबाने से रोक क्यों लेते हैं? ऐसा नहीं है कि यह मनोभाव एक ही व्यक्ति के मन में उमड़ती -घुमड़ती रहती होगी। सभी इंसान ही हैं। ये ऐसी भावनाएं हैं जो सबके अंदर में आती- जाती हैं। बस उसका बरसना बाकी रह जाता है। ऐसी घटनाएं नकारात्मक तरीके से व्यक्ति के मन में परत-दर-परत जमती जाती हैं और आखिर में ये किसी पहाड़ से भी बड़े स्वरूप का आकार ले लेती हैं। ये कहीं दिखती नहीं है, लेकिन मन में जरूर खड़ी रहती है और कई बार खुन्नस, रंजिश, प्रतिशोध सहित तमाम बुराइयों को जन्म देती है ।

कई बार मन के भीतर प्रेम रहते हुए भी लोग इसलिए सख्त व्यवहार करते हैं कि उनका अहंकार उनके वास्तविक भाव पर हावी होता है। वे अपने भीतर बसे या छिपे प्रेम का, भावना का प्रकटीकरण नहीं कर पाते हैं। ऐसे में सवाल यह उठता है कि आखिर ऐसा क्यों होता है ? लोग मन में बसे अहं के अदृश्य दीवार को गिरा क्यों नहीं पाते हैं ? अपनी भावना को मन के भीतर कैद करने से घुटन तो जरूर होती होगी । फिर लोग इससे निजात क्यों नहीं पाना चाहते हैं ? लोग खुद से क्यों लड़ते रहते हैं ? शायद ऐसे लोग यह सोचते होंगे कि बात होगी तो यह कहूंगा, यह शिकायत भी कर दूंगा और प्रेम की बातें भी प्रकट कर दूंगा, लेकिन जब आमने-सामने आ हैं तो वे तमाम बातें जुबान तक नहीं आ पाती हैं। मन के भीतर ही दबी रह जाती हैं। भावना को सही तरीके से और सही समय पर प्रकट नहीं किए जाने के कारण आज के दौर में अवसाद के कई मामले सामने आ रहे हैं। अस्पतालों के अवसाद विभाग में बढ़ती मरीजों की संख्या इस बात की गवाही देती नजर आती है ।

कई बार ऐसे लोग मिलते हैं, जो बताते हैं कि मेरे किसी परिजन या रिश्तेदार का निधन हो गया... उनसे 'बहुत स्नेह था ... उनसे मैं बहुत कुछ कहना चाहता था... बचपन में उनके कंधे चढ़ कर खेलता था... उनके साथ उनकी थाली में बैठ कर खाना खा लेता था। लेकिन किसी दिन 'हम बड़ा तो हम बड़ा जैसी एक छोटी-सी बात को लेकर हम लोगों में तकरार बढ़ती गई और हम लोग दूर होते गए। अब मैं भी अधेड़ हो गया हूं

और उनका तो निधन ही हो गया । काश वे मुझे एक बार मिलते तो दिल की सारी बातों को खोलकर उनके सामने रख देता, लेकिन अब यह संभव नहीं है। जब तक थे, तब तक कहा नहीं, अब कहना चाहता हूं तो वे हैं नहीं। विडंबना यह है कि ऐसे लोग खुद पहल करके समय को थाम नहीं लेते और बाद में बस अफसोस करते रह जाते हैं ।

भावना को मन में दबाने के बजाय हम उसे समय पर और सही तरीके से बिना अहंकार के किसी के सामने प्रकट करें, क्या यह संभव नहीं है ? अगर ऐसा है तो हमें करना चाहिए, क्योंकि यह अच्छा है। इससे हम मन ही मन लड़ने, घुटने और अवसाद में रहने के बजाय खुली हवा में सांस ले सकेंगे, खुश रह सकेंगे । व्यक्ति अपने मन को खोल कर देखे, सहज-सरल बन कर देखे... विवेक के साथ स्थितियों का आकलन करते हुए भावनाओं को प्रकट करके देखे । निश्चित तौर पर यह सकारात्मकता को बढ़ाएगा और आखिरकार उसके लिए किसी तरह से अच्छा ही साबित होगा । अच्छे या बुरे की ऊहापोह को दूर करेगा । यों भी, किसी से किसी बात पर अनबन हो गई है तो देखने की जरूरत यह है कि क्या वह कोई ऐसी बात थी, जिससे दूसरे की गरिमा और जीवन को स्थायी हानि हुई ! अगर नहीं, तो दुनिया के चलते रहने की दृष्टि से जीवन को भी सहज बनाना चाहिए और बीती बातों को भुला कर नए सिरे से जीवन को ऐसे अहसास देने की कोशिश करनी चाहिए, जिसमें मानवीयता के मूल्य समाहित हों।

विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल मलोट पंजाब

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