सम्पादकीय

भारत, रूस और अफगानिस्तान

Subhi
10 Sep 2021 12:45 AM GMT
भारत, रूस और अफगानिस्तान
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भारतीय उपमहाद्वीप के किसी भी हिस्से में भारत की भागीदारी के बिना किसी समस्या का हल संभव नहीं है क्योंकि इस क्षेत्र का हर हिस्सा किसी न किसी समय भारत का ही अंश रहा है।

आदित्य चोपड़ा: भारतीय उपमहाद्वीप के किसी भी हिस्से में भारत की भागीदारी के बिना किसी समस्या का हल संभव नहीं है क्योंकि इस क्षेत्र का हर हिस्सा किसी न किसी समय भारत का ही अंश रहा है। जहां तक अफगानिस्तान का सवाल है तो यह महाराजा रणजीत सिंह की पंजाब सल्तनत का हिस्सा होने के बाद जब 1846 में अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कम्पनी के कब्जे में गया तो 1879 तक यह स्थिति रहने के बाद इसे अंग्रेज महारानी विक्टोरिया ने भारत से अलग किया। इसके बाद 1919 में श्रीलंका को भारत से अलग किया गया और इसके उपरान्त 1935 में म्यांमार (बर्मा) को अलग देश बनाया गया और अन्त में 1947 में पाकिस्तान अलग किया गया जिसमें से 1971 में बांग्लादेश अलग निकला। यह सब ब्रिटिश इंडिया काल के दौरान ही हुआ। (केवल 1971 को छोड़ कर) यही वजह रही कि सिर्फ पाकिस्तान की बदनीयती की वजह से इसके अलावा हर देश के विकास व उत्थान में भारत ने अपनी आजादी के बाद से ही पूर्ण योगदान किया और इनमें नेपाल व मालदीव को भी शामिल किया। यहां तक कि आजादी बाद अपनी फौज खड़ी करने के लिए भारत ने 100 करोड़ रुपए का कर्ज भी दिया जिसके अदा न होने पर उसे 2002 के करीब माफ कर दिया गया। अतः बड़ी आसानी से समझा जा सकता है कि भारत का पाकिस्तान को छोड़ कर इस उपमहाद्वीप के हर देश में कितना सम्मान हो सकता है और योगदान हो सकता है। इसी वजह से राजीव गांधी के शासनकाल के दौरान दक्षेस (सार्क) संगठन का गठन किया गया था और कालान्तर में सार्क चैम्बर आफ कामर्स की स्थापना भी की गई। इसलिए रूस के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार श्री निकोलई पात्रुशेव का अफगानिस्तान बारे में भारत से सलाह करने के लिए नई दिल्ली आना बहुत स्वाभाविक प्रक्रिया है क्योंकि दोनों देश ही अफगानिस्तान के मौजूदा हलात को लेकर बराबर चिन्तित हैं। हालांकि राष्ट्रसंघ में रूस ने इस बारे में स्वयं को चीन के अधिक निकट जताया है। इसके बावजूद रूस जानता है कि भारत की हिस्सेदारी के बिना अफगानिस्तान में अमन-चैन की हुकूमत संभव नहीं है क्योंकि भारत का रुख शुरू से यही रहा है कि 'अफगानिस्तान में भारत वही चाहता है जो अफगानी जनता चाहती है'। भारत की यह समय पर खरी उतरी विदेश नीति किसी भी देश के आन्तरिक मामले में दखल न देने की नीति के समानान्तर इस प्रकार चलती रही है कि उस देश के लोग ही अपने मुल्क के मालिक बने रहें। अफगानिस्तान के मामले में जिस तरह अमेरिका उसे छोड़ते हुए उसकी चाबी तालिबानों के हाथ में देकर आया है उसी का नतीजा है कि कल के खूंखार इनामी आतंकवादी आज वहां मन्त्री बने हुए हैं। ऐसा नहीं है कि इस स्थिति को अमेरिका नहीं समझ रहा है बल्कि वह अपनी इस ऐतिहासिक गलती को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर तालिबानों के कथित उदार चेहरे को आगे लाकर उनके शासन को वैधा दिलाने के प्रयासों में भी आगे बढ़ना चाहता है। यही वजह है कि अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआईए के प्रमुख विलियम जे बर्न्स भी नई दिल्ली तशरीफ ले आये हैं और भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल व विदेश मन्त्री से भेंट कर रहे हैं। भारत की सबसे बड़ी चिन्ता यह भी है कि अमेरिका ने पाकिस्तान की मार्फत अफगानिस्तान में तालिबानी सरकार नाजिल की है जबकि चीन ने भी तालिबानों के बारे में पाकिस्तानी तहरीरों को तवज्जो दी है। इसकी वजह से भारतीय उपमहाद्वीप का सन्तुलन इस प्रकार गड़बड़ा गया है कि पाकिस्तान को अमेरिका द्वारा अफगानितान में छोड़ी गई 84 अरब डालर की सैनिक सामग्री अपनी गिरफ्त में लग रही है क्योंकि अफगानिस्तान में खूंखार आतंकवादियों को गद्दी पर बैठा कर उसने दुनिया के दूसरे मुल्कों को यह पैगाम देने की कोशिश की है कि उसकी सरहदों से लगे तालिबानों के मुल्क में जायज सरकार बन चुकी है।संपादकीय :कोरोना आंकड़ों का दफन होता सचप्रेरणादाई बलिदानतालिबानी 'दहशत' की सरकारकल आज और कलमुहाने पर अफगानिस्तान !ऑनलाइन शिक्षा का अफसाना पिछली बार भी जब तालिबानों ने मुल्ला उमर के नेतृत्व में अफगानिस्तान में अपनी सकार 1996 से 2001 तक चलाई थी तो केवल पाकिस्तान ने ही उस सरकार को मान्यता प्रदान की थी। मगर अब परिस्थितियां सिर्फ अमेरिका के नजरिया बदलने से पूरी तरह बदल चुकी हैं और राष्ट्रसंघ जैसी संस्था यह कह रही है कि तालिबानी सरकार समावेशी सरकार नहीं है। मगर असली सवाल तो यह है कि यह आतंकवादियों की सरकार है। इस सरकार में दुनिया भर में नशीले पदार्थों की तस्करी करने वाले लोग तक शामिल हैं। चीन चाहता है कि मानवीय अधिकार पर ऐसी सरकार को आर्थिक मदद दी जाये जिससे तालिबानी शासन को अपने मुल्क में वैधता मिल सके। पाकिस्तान चाहता है कि आतंकवाद समाप्त करने के नाम पर उसे पहले की तरह अमेरिका व पश्चिमी मुल्क मदद देते रहे। मगर तालिबान चाहते हैं कि उनका मानवीय अधिकारों को गड्ढे में डालने वाला जुल्मो-गारत का निजाम लागू रहे। भारत केवल इतना चाहता है कि अफगानी अवाम की आवाज सुनी जाये। मगर रूस के सामने पाकिस्तान की भूमिका सन्देहास्पद बनी हुई है जिसकी वजह से भारत के साथ अपनी गहरी दोस्ती को देखते हुए उसके सुरक्षा सलाहकार मशविरे के लिए आये हैं। जबकि अमेरिकी सीआईए प्रमुख का एजेंडा अमेरिकी नीतियों का ही पैरोकार है। यही वजह है कि बर्न्स भारत के बाद पाकिस्तान की यात्रा भी करेंगे। असली सवाल यह है कि ब्रिक्स (भारत, रूस,चीन, दक्षिण अफ्रीका व ब्राजील) की बैठक में रूस व चीन अफगानिस्तान के बारे में क्या रुख अपनाते हैं और इसके बाद शंघाई सहयोग संगठन में पाकिस्तान के मुतल्लिक इनकी राय क्या रहती है। इसी से पता चलेगा कि भारत को अफगानिस्तान में अपना रुख किस तरफ मोड़ना चाहिए जिससे इसके राष्ट्रीय हित पूरी तरह सुरक्षित रहें।

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