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- दावोस में भारत
तवलीन सिंह: यथार्थ बहरूपीय है। वही शक्ल दिखाता है, जो देखनेवाला देखना चाहता है। पिछले सप्ताह कुछ ऐसा ही हुआ। भारत के प्रधानमंत्री जापान में थे, क्वाड की बैठक के लिए। इसलिए कि मोदी के प्रचारकों को, और शायद मोदी को भी, उनका विश्वगुरु रूप बहुत पसंद है, सो उनकी एक तस्वीर खूब वायरल करवा दी गई, जिसमें वे चल रहे हैं सीना ताने हुए जापान के प्रधानमंत्री के साथ और उनके पीछे आ रहे हैं अमेरिका के राष्ट्रपति, जो बाइडेन और आस्ट्रेलिया के नए प्रधानमंत्री।
सोशल मीडिया पर खुसफुस के मुताबिक इस तस्वीर को वायरल करने के लिए कई मोदी समर्थकों को ऊपर से आदेश आया था। इस तस्वीर को छापा गया भारत के तकरीबन हर अखबार में और देशवासियों को संदेश यही गया कि भारत के प्रधानमंत्री को दुनिया वाले भी विश्व का सबसे बड़े राजनेता मानते हैं। कुछ दिन पहले मैंने एक बहुत बड़े हिंदी अखबार में पढ़ा था कि मोदी इतने कद्दावर नेता हैं कि पुतिन उनकी सलाह लेकर यूक्रेन में युद्ध को समाप्त करने वाले हैं।
बात यह है कि मैं दावोस में थी पिछले सप्ताह, जहां से यथार्थ कुछ अलग दिखा। यहां से ऐसा लगा कि इस अति-ऐतिहासिक सम्मेलन में भारत का नामो-निशान नहीं था। वर्ल्ड इकोनामिक फोरम के संस्थापक क्लाउस श्वाब ने खुद कहा कि पिछले पचास वर्षों में इस सम्मेलन को वे सबसे महत्त्वपूर्ण मानते हैं, इसलिए कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद पहली बार यूरोप में फिर से युद्ध हो रहा है।
यह ऐसा युद्ध है, जिसको कई विशेषज्ञ अभी तक शीत युद्ध कह रहे हैं रूस और पश्चिमी देशों के बीच, लेकिन कई और हैं, जो स्वीकार करते हैं कि यह युद्ध चलता रहा अगर और कुछ महीने, तो शीत न रह कर गर्म युद्ध बन सकता है, जिसमें दुनिया के हर देश को अपना पक्ष चुनना पड़ेगा। भारत इस चर्चा से बाहर रहा है अभी तक इसलिए कि हमने निष्पक्ष रहने का फैसला लिया है।
संयुक्त राष्ट्र में जब भी व्लादिमीर पुतिन के इस बेरहम आक्रमण पर बहस हुई है, भारत रूस को दोषी ठहराने से बचा है। इसका कारण हमारे आला अधिकारियों ने दुनिया के बड़े राजनेताओं को यही बताया है कि हम राष्ट्रहित को ध्यान में रख कर अपनी विदेश नीति तय करते हैं और हमारे हित में नहीं है रूस से दुश्मनी मोल लेना। लेकिन जब दिखा कि पुतिन का यह युद्ध महिलाओं और बच्चों को भी नहीं बख्शता है और पूरे महानगर बर्बाद कर रहा है, तो भारत के प्रधानमंत्री ने कहा जरूर है कि इस तरह का अत्याचार गलत है, लेकिन अब भी हमने तय नहीं किया है कि हम लोकतांत्रिक देशों के खेमे में हैं या रूस और चीन जैसे तानाशाही देशों के खेमे में।
दावोस के इस वार्षिक सम्मेलन में मैं आती रही हूं बहुत सालों से, लेकिन इस बार जो भी लोग यहां आए हैं, उनको स्वीकार करना पड़ रहा है कि पुतिन के इस युद्ध ने दुनिया को बदल दिया है। कोई भी चीज अब वैसी नहीं रही, जैसी थी इस युद्ध के शुरू होने से पहले। इसलिए कि एक बार फिर दुनिया की दो सबसे बड़ी शक्तियां एक-दूसरे के विरोध में भिड़ सकती हैं जैसे शीत युद्ध में अमेरिका और सोवियत संघ एक-दूसरे के सामने थे। इस बार अमेरिका के सामने जो शक्तिशाली देश खड़ा है, वह चीन है, रूस नहीं।
रूस के बारे में तय हो गया है कि न उसकी सैन्य शक्ति इतनी है कि वह अमेरिका का मुकाबला कर सके भविष्य में और न उसकी आर्थिक शक्ति। सो, चीन ने पुतिन के साथ रहने का निर्णय लिया, तो रूस बन सकता है चीन का छोटा पार्टनर।
भविष्य में क्या होगा, कोई नहीं कह सकता, लेकिन जो बात वर्तमान में तय हो चुकी है, वह यह है कि दो हिस्सों में बंटने वाली है दुनिया और जो देश किसी का भी पक्ष नहीं लेना चाहते हैं, उनका महत्त्व बहुत कम रह जाएगा। इस बार दावोस के मुख्य बाजार में महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, तमिलनाडु और तेलंगाना के अलग-अलग दफ्तर खुले हैं और इनके अलावा है भारत का अपना दफ्तर।
लेकिन जिस भवन में सम्मेलन चल रहा है, उसमें भारत पर चर्चा इतनी कम हो रही है कि किसी भी मुख्य बहस में अपनी भारत माता का जिक्र नहीं हो रहा है। लेकिन इस यथार्थ के बारे में भारत के मीडिया में मुमकिन है कि बात तक न होगी, क्योंकि अपने प्रधानमंत्री की प्रचार मशीन इतनी ताकतवर है।
इस मशीन का हिस्सा हैं कई बड़े टीवी समाचार चैनल और कई बड़े अखबार। सो, वही यथार्थ दिखाया जाएगा, जो हमारे प्रधानमंत्री को पसंद है और उनको अपने विश्वगुरु होने पर बहुत गर्व है। यथार्थ दावोस से यह है कि इस वर्ष के सम्मेलन में एक ही नायक थे और उनका नाम है वोलोदिमीर जेलेंस्की।
उन्होंने वर्चुअल तरीके से सम्मेलन को संबोधित किया था, जिसमें अपनी बात ऐसे रखी कि शायद ही कोई था, जिसके दिल तक बात न पहुंची हो। उनका भाषण जब समाप्त हुआ तो ऐवान में हजार से ज्यादा श्रोताओं ने खड़े होकर तालियां बजा कर यूक्रेन से अपना समर्थन जताया। बाहर इंडिया लाउंज के बगल में है रशिया हाउस। इस साल रशिया हाउस का नाम बदल कर रशिया वार क्राइम्ज हाउस रखा गया है।
यानी रूसी युद्ध के अत्याचारों का भवन। इसके अंदर दिन भर भीड़ लगी रही उन लोगों की, जो समर्थन भी जताना चाहते थे यूके्रन से और प्रदर्शन भी देखना चाहते थे, जिसमें पुतिन के इस नाजायज युद्ध की तस्वीरें और वीडियो लगे हुए हैं। इस बार जो दावोस आए थे, उनमें से शायद ही कोई था, जिसने रशिया वार क्राइम्ज हाउस में जाकर माथा न टेका हो।