- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- हम सभी भारतीयों को अगर...
सम्पादकीय
हम सभी भारतीयों को अगर ऐसी भाषा बोलने के लिए कहें, जिससे उनका कोई लेना-देना नहीं है, तो यह अजीब लगेगा
Gulabi Jagat
12 April 2022 8:07 AM GMT
x
केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह का 37वीं संसदीय राजभाषा समिति की बैठक में गुरुवार को दिया गया बयान
जी प्रमोद कुमार।
केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह (Amit Shah) का 37वीं संसदीय राजभाषा समिति की बैठक में गुरुवार को दिया गया बयान, कि भारत (India) के अन्य राज्यों को भी हिंदी बोलनी चाहिए, एक बार फिर हिंदी बनाम क्षेत्रीय भाषाओं के विवाद को राजनीतिक मोर्चे लाकर खड़ा सकता है. यह दिलचस्प है कि बीजेपी (BJP) 2014 में सत्ता पर काबिज होने के बाद से राष्ट्रभाषा के तौर पर हिंदी के मुद्दे को नियमित अंतराल पर कैसे बार-बार उठाती रही है.
शाह कथित तौर पर चाहते हैं कि लोग हिंदी बोलें और आधिकारिक मामलों में हिंदी के जरिए ही संवाद किया जाए. इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के मुताबिक, शाह ने राजभाषा समिति के सदस्यों को बताया कि कैबिनेट का 70 प्रतिशत एजेंडा अब हिंदी में ही तैयार होता है और पूर्वोत्तर के आठ राज्यों में 22,000 हिंदी शिक्षकों की भर्ती की गई है. इसके अलावा, क्षेत्र के नौ आदिवासी समुदायों ने अपनी बोलियों की लिपियों को देवनागरी में बदल दिया है. कथित तौर पर ये सभी राज्य दसवीं कक्षा तक के स्कूलों में हिंदी अनिवार्य करने पर सहमत भी हो गए हैं.
कुछ हद तक इससे ममता बनर्जी भी नाखुश होंगी
तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन, उनकी पार्टी डीएमके (द्रविड़ मुनेत्र कड़गम) और राज्य के अन्य क्षेत्रीय दलों के शाह के सुझाव को स्वीकार करने की कोई संभावना नहीं है. कुछ हद तक इससे ममता बनर्जी भी नाखुश होंगी. इन दोनों राज्यों में स्थानीय भाषाएं उनकी राजनीतिक पहचान भी हैं. केरल, जिसने इतिहास में कभी हिंदी विरोध को राजनीतिक रंग नहीं दिया है, वह थोड़ा अलग जा सकता है, लेकिन वह भी इस मौके को छोड़ना नहीं चाहेगा और इसे बीजेपी के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के रूप में प्रस्तुत करेगा. इसी तरह की भावना कर्नाटक के भीतर गैर-बीजेपी खेमों से भी उभर सकती है.
हालांकि, सबसे बड़ा जवाबी हमला तमिलनाडु से होगा, जहां न केवल हिंदी, बल्कि संस्कृत भी सिर्फ कोई भाषा नहीं हैं, वे इसे उत्तर भारतीय वर्चस्व के प्रतीक के तौर पर देखते हैं. इस मुद्दे पर सभी दल एकमत हैं, इनमें वे भी शामिल हैं जो समय-समय पर बीजेपी के साथ गठबंधन में रह चुके हैं. आखिरी बार शाह ने 2019 में इसी तरह का आह्वान किया था, जब उन्होंने कहा था कि हिंदी "राज्यभाषा" हो सकती है, जो आम भाषा है और देश को एकजुट कर सकती है, इसे लेकर विशेष तौर पर राजनेताओं और अभिनेताओं ने मिलकर त्वरित और कड़ी प्रतिक्रिया दी.
कमल हासन, जो अभी-अभी एक राजनेता के रूप में उभर रहे थे, वह विशेषरूप से कड़ा रुख अपनाते दिखे, तब उन्होंने कहा कि "किसी भी शाह, सुल्तान या सम्राट" को विविधता में एकता के वादे से पीछे नहीं हटना चाहिए, जो भारत को गणतंत्र बनाने के समय किया गया था. स्टालिन ने तो राज्यव्यापी विरोध प्रदर्शन तक का आह्वान कर दिया, ताकि इस कदम को और आगे बढ़ने से पहले ही रोक दिया जाए.
हिंदी का विरोध द्रविड़ राजनीति के डीएनए में है
हिंदी का विरोध द्रविड़ राजनीति के डीएनए में है. यदि तमिल और उसकी संस्कृति के प्रति अडिग जुनून द्रविड़ विचारधारा की परिभाषित विशेषताओं में से एक है, तो हिंदी या किसी वडामोझी (उत्तरी भाषा) का विरोध एक उत्प्रेरक है, जो इसे हमेशा मजबूत करता है. यद्यपि भारतीय संविधान का अनुच्छेद 347 उन भाषाओं के भी उपयोग की अनुमति देता है जो 'आधिकारिक भाषा' नहीं हैं (देवनागरी लिपि में हिंदी), 2014 में जब से बीजेपी सत्ता में आई हैं, तब से उसके नेताओं ने समय-समय पर स्पष्ट तौर से हिंदी के वर्चस्व पर जोर दिया है.
सत्ता में इनके (बीजेपी) आने के पहले वर्ष में ही, यूजीसी (यूनिवर्सिटी ग्रांट कमीशन) ने कथित तौर पर तमिलनाडु के विश्वविद्यालयों को एक सर्कुलर भेजकर कहा कि हिंदी उनकी मुख्य भाषा होनी चाहिए. उसी वर्ष, सीबीएसई (केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड) स्कूलों के माध्यम से संस्कृत को बढ़ावा देने के भी आरोप लगे थे और 2016 में, केंद्रीय मंत्री जितेंद्र सिंह ने कथित तौर पर कहा था कि उनकी सरकार दक्षिण और उत्तर-पूर्व में सरकारी कार्यालयों में बातचीत के लिए हिंदी के उपयोग को एक नियमित भाषा के रूप में बढ़ावा देना चाहती है.
2016 में, जब केंद्र ने संस्कृत को महत्व दिया, तो 93 वर्षीय करुणानिधि ने कहा था, हिंदी विरोधी आंदोलन जैसे एक और विरोध प्रदर्शन के लिए परिस्थितियां पैदा न की जाएं. अगर वे इसे थोपने की योजना बना रहे हैं तो संस्कृत के प्रभुत्व को खत्म करने के लिए हर तमिल को एक साथ आना चाहिए. आइए संकल्प लें कि तमिलनाडु में संस्कृत के लिए कोई जगह नहीं है.
तमिलनाडु अब भी हिंदी की बहुत खराब उपस्थिति वाला राज्य बना हुआ है
जैसा जवाबी राजनीतिक हमला तमिलनाडु ने किया, वह आश्चर्यजनक नहीं था, क्योंकि राज्य का आधुनिक राजनीतिक इतिहास हिंदी विरोधी भावनाओं पर आधारित रहा है, जिसकी शुरुआत भारत की स्वतंत्रता से पहले ही हो गई थी. 1930 के दशक में जब मद्रास प्रेसीडेंसी के तत्कालीन मुख्यमंत्री सी राजगोपालाचारी ने हिंदी थोपने की कोशिश की, तब राज्य में व्यापक स्तर पर विरोध प्रदर्शन देखने को मिले.
1940 के दशक में जब प्रेसीडेंसी में एक और कांग्रेस सरकार फिर से इसे लेकर आई, तब भी बड़े स्तर पर विरोध प्रदर्शन होने लगे और 1960 के दशक में भी, जब केंद्र हिंदी को एकमात्र आधिकारिक भाषा बनाने की कोशिश कर रहा था. असल में, इन आंदोलनों ने कांग्रेस और राष्ट्रीय भावनाओं को तमिलनाडु की राजनीति से अलग कर दिया और द्रविड़ आंदोलन व प्रांतीय गौरव को मजबूती प्रदान की. तमिलनाडु अब भी हिंदी की बहुत खराब उपस्थिति वाला राज्य बना हुआ है, हालांकि सांस्कृतिक तौर पर कुछ ही ऐसे इलाके दिखाई देते हैं जहां पर CBSE स्कूलों में संस्कृत और हिंदी को प्रोत्साहित करने के प्रयास हो रहे हैं.
1965 में हुए हिंदी विरोधी प्रदर्शनों के बावजूद केंद्र सरकारें इसे आगे बढ़ाने का प्रयास करती रही हैं. 1986 में, DMK को नवोदय स्कूलों के माध्यम से हिंदी थोपने का संदेह हुआ और इसलिए उसने राजीव गांधी सरकार के खिलाफ लड़ाई लड़ी और 2014 में, जयललिता ने केंद्र सरकार के उस आदेश पर कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त की, जिसमें भारत सरकार के अधिकारियों को सोशल मीडिया पर हिंदी में संवाद करने को कहा गया था, तमिलनाडु के विश्वविद्यालयों में हिंदी को लागू करने के यूजीसी के कदम के खिलाफ भी ऐसा ही किया गया. दिलचस्प बात यह है कि 2014 आते-आते, अब भी मूलरूप से हिंदी थोपे जाने का बोझ उठाने वाली कांग्रेस ने जयललिता का समर्थन कर दिया था.
बीजेपी नियमित अंतराल पर हिंदी को ही आगे क्यों लेकर आती है
अनुच्छेद 343 जो हिंदी को आधिकारिक भाषा बनाता है, वही अंग्रेजी के भी उपयोग की अनुमति देता है और अनुच्छेद 344 (1) व 351 के तहत आठवीं अनुसूची 22 भाषाओं को भी आधिकारिक भाषाओं के रूप में उपयोग करने की अनुमति देती है, तो वास्तव में यह हैरान करने वाला है कि बीजेपी नियमित अंतराल पर हिंदी को ही आगे क्यों लेकर आती है, वह भी ऐसे देश में जहां 30 ऐसी भाषाएं हैं, जिनमें हरेक को 10 लाख से ज्यादा लोग बोलते हैं. लगभग 122 भाषाएं ऐसी हैं, जिनमें हर भाषा को 10,000 से ज्यादा लोग बोलते हैं. इसके अलावा, भारत में लगभग 1,600 भाषाएं हैं जो देश के विभिन्न हिस्सों में बोली जाती हैं.
जब देश सांस्कृतिक विविधता को संरक्षित करने और उसे जानने में लगे हैं, ऐसे में अलग-अलग पहचानों को समरूपता देने का प्रयास करना, धरोहर और इतिहास की भावना के विरुद्ध है. दूसरे देशों जैसे- फ्रांस, जर्मनी और रूस से तुलना करें तो वहां लोग इंग्लिश के अलावा अन्य भाषाओं का प्रयोग करते हैं, ऐसे में भारत के अंदर यह तर्क (समरूपता) टिकता नहीं है, क्योंकि यहां हमारी कुल आबादी में केवल 41 प्रतिशत ही हिंदी बोलते हैं. क्या यह अजीब नहीं है कि हम अनिवार्य रूप से अधिकांश भारतीयों को ऐसी भाषा बोलने के लिए कहते हैं, जिससे उनका कोई लेना-देना ही नहीं है?
जैसा कि महान अमेरिकी भाषाविद् और अलास्का मूल भाषा के प्रस्तावक रहे प्रोफेसर माइकल क्रॉस ने कहा, "जब आप एक भाषा खो देते हैं और एक भाषा विलुप्त हो जाती है तो यह संग्रहालय को बम से उड़ाने जैसा होता है." जब कई अफ्रीकी अपनी भाषा के बजाय फ्रेंच, अंग्रेजी, स्पेनिश और पुर्तगाली बोलते हैं, तो हम जो देखते हैं वह कई सौ वर्षों के सांस्कृतिक इतिहास का क्षरण होता है. केवल वे ही उपनिवेश नहीं थे, बल्कि उनकी भाषाएं और संस्कृतियां भी थीं.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
Gulabi Jagat
Next Story