सम्पादकीय

यदि विरोध-प्रदर्शन का अधिकार बेलगाम हो गया तो देश की संवैधानिक व्यवस्था खतरे में पड़ सकती है

Gulabi
16 Oct 2020 2:58 AM GMT
यदि विरोध-प्रदर्शन का अधिकार बेलगाम हो गया तो देश की संवैधानिक व्यवस्था खतरे में पड़ सकती है
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दिल्ली के शाहीन बाग में करीब तीन महीनों तक चले धरने पर सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले के गहरे निहितार्थ हैं

जनता से रिश्ता वेबडेस्क।दिल्ली के शाहीन बाग में करीब तीन महीनों तक चले धरने पर सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले के गहरे निहितार्थ हैं। इस निर्णय से विरोध-प्रदर्शन की मर्यादा रेखा को लेकर हो रही बहस पर विराम लग जाना चाहिए। इस फैसले का सार यही है कि विरोध-प्रदर्शन के दौरान सार्वजनिक जीवन में गतिरोध उत्पन्न करना स्वीकार्य नहीं। इस फैसले का उन राजनीतिक लड़ाइयों पर दीर्घकालिक असर पड़ेगा, जो सड़कों पर लड़ी जाती हैं। जस्टिस संजय किशन कौल, अनिरुद्ध बोस और कृष्ण मुरारी की तीन सदस्यीय पीठ ने अपने फैसले में कहा कि अनुच्छेद 19 संविधान की आधारशिलाओं में से एक है, जो नागरिकों को दो अनमोल अधिकार प्रदान करता है। एक, अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और दूसरा, अनुच्छेद 19(1)(बी) के तहत बिना हथियारों के शांतिपूर्ण ढंग से जुटने का अधिकार।

अनुच्छेद 19: वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और शांतिपूर्ण ढंग से जुटने का अधिकार

पीठ ने कहा, 'ये अधिकार एक दूसरे से संबद्ध हैं, जो प्रत्येक नागरिक को राज्य के क्रियाकलापों या निष्क्रियता के खिलाफ विरोध-प्रदर्शन के लिए शांतिपूर्ण ढंग से एकत्रित होने का अधिकार प्रदान करते हैं। लोकतंत्र को सशक्त बनाने के लिए राज्य द्वारा भी इसका सम्मान और प्रोत्साहन किया जाना चाहिए, जैसा कि हमारे यहां निहित है।' अपने पूर्व के निर्णय के संदर्भ में इन अधिकारों को युक्तियुक्त निर्बंधनों के दायरे में बताते हुए अदालत ने कहा, प्रत्येक मूल अधिकार, चाहे वह व्यक्तिगत हो अथवा किसी वर्ग का, उसका पृथक रूप में कोई अस्तित्व नहीं और उसे प्रत्येक अन्य विरोधाभासी अधिकार के साथ संतुलन साधना होगा। इस दृष्टिकोण से इस मामले में समाधान निकालने के लिए हम इस नतीजे पर पहुंचे कि प्रदर्शनकारियों के अधिकारों को आवाजाही करने वालों के अधिकारों से संतुलित करना होगा।'

सुप्रीम कोर्ट ने कहा- लोकतंत्र और असहमति साथ-साथ चलते हैं

शीर्ष अदालत ने अपने फैसले में यह भी कहा कि लोकतंत्र और असहमति साथ-साथ चलते हैं, लेकिन असहमति जताने के लिए विरोध-प्रदर्शन कुछ अधिकृत स्थानों पर ही किए जाएं। इस मामले में एक विरोध-प्रदर्शन किसी अधिकृत स्थान पर तो छोड़िए, बल्कि सार्वजनिक रास्ते को अवरुद्ध करके किया जा रहा था, जिससे आने-जाने वालों को भारी असुविधा हो रही थी। हम आवेदक की यह अर्जी स्वीकार नहीं कर सकते कि तमाम लोग किसी भी जगह पर विरोध-प्रदर्शन करने के लिए जुट जाएं।

शाहीन बाग के धरने के खिलाफ रिट, विरोध-प्रदर्शन का अधिकार आवाजाही में बाधा नहीं बनना चाहिए

शाहीन बाग के धरने के खिलाफ याचिका लगाने वाले डॉ. नंद किशोर गर्ग की प्रमुख दलील थी कि इसके जरिये प्रदर्शनकारियों ने एक महत्वपूर्ण मार्ग को अवरुद्ध कर दिया, जिससे लोगों को भारी असुविधा का सामना करना पड़ा। विरोध-प्रदर्शन का अधिकार अन्य नागरिकों की निर्बाध आवाजाही में बाधा नहीं बनना चाहिए। इस मुद्दे पर अदालत ने कहा, हमें यह कहने में कोई हिचक नहीं कि सार्वजनिक आवाजाही में इस प्रकार अड़ंगा स्वीकार्य नहीं और यह प्रशासन का दायित्व है कि वह ऐसे अतिक्रमण या अवरोध से इलाके को खाली कराए। अदालत ने स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान विरोध-प्रदर्शन के इतिहास पर रोशनी डालते हुए कहा कि एक बात अवश्य ध्यान रखी जानी चाहिए कि स्वशासित लोकतंत्र में विरोध प्रदर्शन का स्वरूप पूर्ववर्ती औपनिवेशक शासन के दौर वाला नहीं हो सकता।

संविधान में विरोध प्रदर्शन और असहमति का अधिकार विशेष कर्तव्यों के साथ जुड़ा हैै

हमारे संविधान में विरोध प्रदर्शन और असहमति का अधिकार है, लेकिन यह कुछ विशेष कर्तव्यों के साथ जुड़ा हुआ है। यह एक महत्वपूर्ण अवलोकन है। संविधान पर अंतिम मुहर लगने से पहले संविधान की प्रारूप समिति के प्रमुख डॉ. बीआर आंबेडकर ने 25 नवंबर, 1949 को अपने भाषण में इस मुद्दे को छुआ था। उन्होंने कहा था, 'कम्युनिस्ट पार्टी और सोशलिस्ट पार्टी जैसे दो धड़ों द्वारा ही मुख्य रूप से संविधान का विरोध किया जा रहा है। कम्युनिस्टों को यह इसलिए पसंद नहीं, क्योंकि वे सर्वहारा की तानाशाही के सिद्धांत पर आधारित संविधान चाहते हैं। चूंकि यह संसदीय लोकतंत्र पर आधारित है, अत: वे इसका विरोध कर रहे हैं। वहीं सोशलिस्ट चाहते हैं कि बिना किसी क्षतिर्पूित भुगतान के ही सभी निजी संपत्तियों का राष्ट्रीयकरण कर दिया जाए। वे संविधान में मूल अधिकारों को असीमित बनाना चाहते हैं, ताकि अगर उनकी पार्टी सत्ता में आने में नाकाम रहे तो न केवल उनके पास उसकी आलोचना करने, बल्कि राज्य व्यवस्था को उखाड़ फेंकने की निरंकुश आजादी हो।'

पार्टियां लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को पटरी से उतारने के लिए सड़कों पर उपद्रव कराने पर आमादा

यदि आज सोशलिस्ट पार्टी की जगह कांग्रेस को रखा जाए तो यही लगेगा मानों डॉ. आंबेडकर आज के भारत के लिए ही यह कह रहे हों, जहां मतदाताओं द्वारा खारिज कर दी गई पार्टियां लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को पटरी से उतारने के लिए सड़कों पर उपद्रव कराने पर आमादा हैं। डॉ. आंबेडकर की दूसरी बात विरोध-प्रदर्शनों के स्वरूप पर सटीक बैठती है। उन्होंने कहा था, 'यदि वे वास्तविक लोकतंत्र को कायम रखना चाहते हैं तो उन्हेंं पहली चीज यह करनी चाहिए कि अपने सामाजिक एवं आर्थिक लक्ष्यों को हासिल करने के लिए संवैधानिक पद्धतियों में भरोसा रखना होगा। इसका आशय है कि हमें क्रांति की अवधारणा से मुक्ति चाहिए होगी। साथ ही सविनय अवज्ञा, असहयोग और सत्याग्रह का भी परित्याग करना होगा। ये सभी पद्धतियां तभी तक उचित थीं, जब तक हमारे पास विरोध-प्रदर्शन की कोई संवैधानिक प्रविधि नहीं थी, लेकिन जब संवैधानिक पद्धति है, तब असंवैधानिक तौर-तरीकों को जायज नहीं ठहराया जा सकता। ये तौर-तरीके अराजकता का व्याकरण हैं और इनसे जितनी जल्दी निजात पाई जाए, हमारे लिए उतना ही बेहतर।'

यदि विरोध-प्रदर्शन का अधिकार बेलगाम हो गया तो संवैधानिक व्यवस्था खतरे में पड़ सकती है

शाहीन बाग का धरना डॉ. आंबेडकर द्वारा बताई गई श्रेणी में ही आता है, जहां एक महत्वपूर्ण सड़क को अवरुद्ध करके सामान्य जनजीवन में गतिरोध पैदा किया गया। नागरिकता संशोधन कानून पर आपत्ति महज एक मुखौटा था। यदि विरोध-प्रदर्शन का अधिकार बेलगाम हो गया तो संवैधानिक व्यवस्था खतरे में पड़ सकती है। कई महीनों तक अराजकता की आंच पर ऐसी खिचड़ी पकाने के बजाय यह कहीं बेहतर होता कि प्रदर्शनकारी संसद द्वारा पारित कानून के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का रुख करते। यही उचित संवैधानिक प्रतिक्रिया होती। उम्मीद है कि शीर्ष अदालत का निर्णय शाहीन बाग जैसे प्रदर्शनों पर विराम लगाकर असहमति व्यक्त करने के मामले में उचित प्रक्रियाओं की पुनस्र्थापना का पड़ाव बनेगा।

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