सम्पादकीय

मानव अधिकार का बखेड़ा

Gulabi Jagat
15 April 2022 5:40 AM GMT
मानव अधिकार का बखेड़ा
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अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकेन की मानव अधिकार संबंधी टिप्पणी पर दोनों भारतीय मंत्रियों ने कुछ नहीं कहा
By NI Editorial
अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकेन की मानव अधिकार संबंधी टिप्पणी पर दोनों भारतीय मंत्रियों ने कुछ नहीं कहा। बाद में एस जयशंकर ने एक भारतीय अखबार से यह जरूर कहा कि अमेरिका की भारत में मानव अधिकारों की स्थिति पर नजर है, तो हमारी भी अमेरिका में मानव अधिकारों की मौजूदा हालत पर निगाह है।
लंबे समय अमेरिका के विदेश मंत्री के मुंह से भारत में मानव अधिकारों के कथित उल्लंघन की चर्चा सुनने को मिली। मौका दोनों देशों के बीच 2+2 बैठक के बाद साझा प्रेस कांफ्रेंस का था। प्रेस कांफ्रेंस में विदेश मंत्री एस जयशंकर और रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह भी मौजूद थे। अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकेन की मानव अधिकार संबंधी टिप्पणी पर उन दोनों ने कुछ नहीं कहा। बाद में एस जयशंकर ने एक भारतीय अखबार से बातचीत में यह जरूर कहा कि अगर अमेरिका की भारत में मानव अधिकारों की स्थिति पर नजर है, तो हमारी भी अमेरिका में मानव अधिकारों की मौजूदा हालत पर निगाह है। लेकिन इस बयान को भारतवासी श्रोतावर्ग को ध्यान में रख कर दिया गया ही समझा जाएगा। ब्लिंकेन के बयान के एक दिन बाद अमेरिकी विदेश मंत्रालय ने दुनिया भर में मानव अधिकारों की स्थिति पर अपनी विस्तृत रिपोर्ट जारी की। उसमें भारत में मानव अधिकारों की भयावह स्थिति का जिक्र हुआ। उस पर भी भारत सरकार की प्रतिक्रिया अधिकतर देश के अंदर अपने समर्थकों को तुष्ट करने के लिए ही है। जबकि इसी मुद्दे पर चीन ने एक वैश्विक बहस खड़ी कर दी है।
जिस रोज अमेरिका ने मानव अधिकारों को लेकर अपनी रिपोर्ट जारी की, उसके अगले दिन चीन ने अमेरिका में मानव अधिकारों की हालत पर एक विशेष रिपोर्ट जारी की। उसके पहले यूरोपीय संघ के साथ शिखर वार्ता में जब ये मुद्दा ईयू की तरफ से उठाया गया, तब चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने इस प्रश्न पर उपनिवेशवादी अत्याचारों का जिक्र करते हुए खुद यूरोप को कठघरे में कड़ा करने की चाल चल दी। ब्रिटिश पत्रिका द इकॉनमिस्ट ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया है कि उस शिखर बैठक के बाद यूरोपीय राजधानियों में ये चर्चा शुरू हो गई है कि मानव अधिकारों के मसले पर चीन को घेरने की रणनीति पर पुनर्विचार की जरूरत है। सार यह है कि मानव अधिकार को विदेश नीति के मकसद हासिल करने का हथियार बनाने का पश्चिम का तरीका अब कारगर साबित नहीं हो रहा है। यह बदलती हुई दुनिया का एक और संकेत है। लेकिन इस बदलती दुनिया में लगभग सभी देशों के सामने नए प्रकार की चुनौतियां पेश आ रही हैँ। भारत के सामने असल सवाल है कि क्या हमारा नेतृत्व इन चुनौतियों के बरक्स अपना रास्ता तलाशने में सक्षम है?
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