सम्पादकीय

Gyanvapi Masjid Controversy: आखिर किसी मस्जिद का नाम ज्ञानवापी कैसे हो सकता है?

Gulabi Jagat
18 May 2022 6:33 AM GMT
Gyanvapi Masjid Controversy: आखिर किसी मस्जिद का नाम ज्ञानवापी कैसे हो सकता है?
x
सुप्रीम कोर्ट ने ज्ञानवापी मामले में जैसी टिप्पणी की, उससे इस प्रकरण के तार्किक परिणति तक पहुंचने के आसार बढ़ गए हैं
सुप्रीम कोर्ट ने ज्ञानवापी मामले में जैसी टिप्पणी की, उससे इस प्रकरण के तार्किक परिणति तक पहुंचने के आसार बढ़ गए हैं, क्योंकि उसने वाराणसी की जिला अदालत के रुख से एक बड़ी हद तक सहमति जताई। इस तथ्य से कोई इन्कार नहीं कर सकता कि जिसे ज्ञानवापी मस्जिद कहा जा रहा, वह वस्तुत: काशी विश्वनाथ मंदिर का हिस्सा ही है। यह न केवल साक्षात दिखता है, बल्कि इसके ऐतिहासिक प्रमाण भी हैं। ऐसे प्रमाण खुद मुगलकालीन इतिहासकारों की ओर से दिए गए हैं। जिन्हें ये प्रमाण नहीं दिख-समझ रहे, उन्हें इस पर विचार करना चाहिए कि आखिर किसी मस्जिद का नाम ज्ञानवापी कैसे हो सकता है?
जैसे इसके लिए किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं कि काशी में मंदिर का ध्वंस कर मस्जिद बनाई गई, वैसे ही अन्य कई मंदिरों की जगह बनाई गई मस्जिदों के मामले में भी किसी साक्ष्य की जरूरत नहीं। बात चाहे मथुरा के कृष्ण जन्मस्थान मंदिर पर बनी मस्जिद की हो या फिर दिल्ली की कुव्वत उल इस्लाम मस्जिद की। कुव्वत उल इस्लाम मस्जिद का तो शिलालेख ही यह कहता है कि इसे 27 हिंदू और जैन मंदिरों को तोड़कर बनाया गया। ऐसे अकाट्य प्रमाणों की अनदेखी से बात बनने वाली नहीं है। इस मामले में 1991 में बनाए गए धर्मस्थल कानून का सहारा लेने से भी कोई लाभ नहीं, क्योंकि यह कानून कोई पत्थर की लकीर नहीं। इसे विवादों को ढकने के लिए बनाया गया था और यह सबको पता होना चाहिए कि विवाद छिपाने से सुलझते नहीं, बल्कि रह-रह कर सतह पर ही आते हैं।
भारत के मुस्लिम समाज को न केवल खुली आंखों से दिख रहे सच को स्वीकार करना चाहिए, बल्कि गोरी, गजनी, खिलजी, बाबर, औरंगजेब सरीखे क्रूर आक्रांताओं को अपना पूर्वज या प्रेरणास्रोत मानने से बचना चाहिए। भारत के मुस्लिम अरब, अफगानिस्तान, ईरान आदि से नहीं आए। वे तो यहीं के लोग थे, जिनके पूर्वज हिंदू थे। यह ठीक है कि उनके पूर्वजों ने अत्याचार से बचने, अपनी जान अथवा संपत्ति बचाने के लिए इस्लाम स्वीकार कर लिया, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि वे हमलावरों के वंशज हो गए। उपासना पद्धति बदल जाने से न तो किसी के पूर्वज बदलते हैं और न ही संस्कृति। इसका उत्तम उदाहरण इंडोनेशिया का मुस्लिम समाज है।
उचित यह होगा कि मुस्लिम समाज का वह तबका आगे आए और इसे लेकर मुखर हो कि उसकी जड़ें भारत में हैं और वे वैसे ही भारतीय हैं, जैसे अन्य उपासना पद्धतियों के अनुयायी। जहां उनके लिए यह आवश्यक है कि वे सच को स्वीकार करें, वहीं हिंदू समुदाय के लोगों को भी चाहिए कि काशी और मथुरा के अपने मंदिरों पर दावा जताने के क्रम में ऐसा कुछ न करें, जिससे सामाजिक सद्भाव को क्षति पहुंचे।


दैनिक जागरण के सौजन्य से सम्पादकीय
Gulabi Jagat

Gulabi Jagat

    Next Story