सम्पादकीय

गए दिन हंसी-ठिठोली के

Subhi
2 April 2022 5:26 AM GMT
गए दिन हंसी-ठिठोली के
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हास्य हमारी मानसिक जरूरत है। विरेचन का शक्तिशाली माध्यम भी। मगर अफसोस कि हास्य की यह फसल दिन पर दिन सूखती जा रही है। उस पर हमारी वैचारिक संकीर्णता का पाला पड़ रहा है, तो दूसरी ओर उसे द्विअर्थी सस्ते हास्य का खर-पतवार चौपट कर रहा है।

हास्य हमारी मानसिक जरूरत है। विरेचन का शक्तिशाली माध्यम भी। मगर अफसोस कि हास्य की यह फसल दिन पर दिन सूखती जा रही है। उस पर हमारी वैचारिक संकीर्णता का पाला पड़ रहा है, तो दूसरी ओर उसे द्विअर्थी सस्ते हास्य का खर-पतवार चौपट कर रहा है। भरतमुनि ने हास्य को शृंगार रस की अनुकृति माना है। यानी नकल करना या अनुकरण करना ही हास्य है।

पर यह हास्य रस की अत्यंत सीमित परिभाषा है। केवल नकल को हंसी का मूल नहीं माना जा सकता। साहित्य दर्पण के सर्जक आचार्य विश्वनाथ ने हास्य के छह भेद किए हैं- स्मित, हसित, विहसित, उपहसित, अपहसित और अतिहसित। इसमें स्मित और हसित को उत्तम श्रेणी का हास्य माना जाता है। हास्य रस का संबंध मानव जाति से है और हास्य का संबंध मन और बुद्धि से, इसलिए भी हास्य की महत्ता को कम नहीं माना जा सकता। हास्य की विद्यमानता जीवन पर्यंत रहती है। मगर दुर्भाग्य से हमारा हास्यबोध दुर्बलताओं का शिकार हो रहा है।

एक समय में बाबू गुलाबराय, शिवपूजन सहाय, अन्नपूर्णानंद वर्मा, बेढब बनारसी, गोपाल प्रसाद व्यास, कांतानाथ पांडेय चोंच जैसे लेखक हास्य रस की रचनाएं लिख रहे थे और उनको पर्याप्त सम्मान प्राप्त था। नेहरू का कार्टून बना कर आरके लक्ष्मण स्वयं उनके हस्ताक्षर करवाते थे। मगर समय के साथ-साथ राजनीतिक संकीर्णता बढ़ी और सहनशीलता का मूल्य पूरे भारतीय समाज में घटा है। हमारे नेता भी इसी मूल्य-पतन की ओर अग्रसर हो रहे समाज के उत्पाद हैं। ऐसे में उनसे उदारता की उम्मीद करना बेमानी होगा।

आज जब राजनीतिक दलों का उद्देश्य मात्र किसी भी तरह सत्ता हासिल करना रह गया है, संस्कार शिविरों की बात करना और उसका उदाहरण प्रस्तुत करना शीर्ष नेतृत्व के वश की बात नहीं रह गई है। समाज में सांप्रदायिक सौहार्द घटा है और निजी अहंकार में तीव्रता से वृद्धि हो रही है। परिवारों का तेजी से विघटन और बढ़ते तलाक के मुकद्दमों की संख्या इसका ज्वलंत प्रमाण है।

सब कुछ जल्दी पा लेने की होड़ और आर्थिक बदहाली की बढ़ती मार ने लोगों की बेचैनी बढ़ा दी है। लगता है, इसी कारण हमारा हास्यबोध लगातार सिकुड़ता जा रहा है। आज हम अपनी बनाई कंदराओं से बाहर निकलना ही नहीं चाहते। मिलने-जुलने के आनंद से दूर होकर न केवल स्वस्थ हास्य को बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं, बल्कि नाराज होकर उस पर कानूनी कार्रवाइयों की धमकी और दे बैठते हैं।

हमारी संस्कृति में हंसी-मजाक की पुष्ट परंपरा रही है। गोपियां न केवल ऊधो पर व्यंग्य बाण चलाती हैं, बल्कि उनका परिहास भी उड़ाती हैं। असल में, यह परिहास भाव ही हास्य और व्यंग्य के बीच का वह पुल है, जो व्यंग्य को रोचक बनाता और उसे बौद्धिक कर्म से जोड़ता है। यह संश्लिष्ट परिहास ही, जो कि शुद्ध हास्य से उत्पन्न होता है, कालांतर में यात्रा करता हुआ बौद्धिक आयामों को स्पर्श करता हुआ तिक्त परिहास के रूप में उपलब्ध हो जाता है। यही व्यंग्य भावना की मुख्य वस्तु है।

कुछ आलोचक हास्य को व्यंग्य से पूर्णत: अलग मानते हैं। पर हास्य ही व्यंग्य को प्रकट करता, उसे अस्तित्व प्रदान करता है। वह उसी का आवश्यक अंग है। उसकी देह है। कुछ आलोचक कहते हैं कि व्यंग्य स्वयं में प्रतिकूल है और हास्य उसे अनुकूल बनाता है। व्यंग्य स्वयं में जैसे कोई अपराध है, हास्य उसे क्षम्य बना देता है।

नौटंकी, तमाशा, हेला, खयाल, दंगल तथा विवाह समारोहों में वधू पक्ष द्वारा गाली गायन आदि इस बात का उदाहरण है कि भारतीय समाज एक जीवंत समाज है, जहां न केवल सदाशयता को स्थान था, बल्कि अपनी आलोचना सुनने का साहस भी जन सामान्य, ताकतवर लोगों में होता था। होली गायन और 'पैरोडी' के माध्यम से राजनीतिक व्यंग्य भी कसे जाते थे। इंग्लैंड में 'पंच' और भारत में 'शंकर्स वीकली' जैसी कार्टून पत्रिकाएं निकलती थीं। होली पर साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं और अखबारों के कटाक्ष करते हुए विशेषांक निकलते थे। पर, सहृदयता के अभाव और समाज में बढ़ते हुए सोच के संकरेपन ने इस सबको हाशिए पर ला दिया है।

अब न तो कोई मूर्ख कहलाना पसंद करता है और न स्वयं की कमजोरियों पर हंसने का साहस रखता है। हास्य सृजन हेय दृष्टि से देखा जा रहा है, जबकि अश्लीलता से लबरेज और फूहड़ 'लाफ्टर शो' की टीआरपी लगातार बढ़ रही है।

श्रीनारायण चतुर्वेदी के अनुसार हास्य सृजन हवा में गांठ बांधने जैसा कठिन कर्म है। वह व्यंग्य को पठनीय ही नहीं बनाता, उसे साधारण जन तक पहुंचाने में वाहक की भूमिका भी निभाता है। बस प्रश्न यही है कि उसके लिए अकबर इलाहाबादी जैसा शायर भी हो और गांधी, नेहरू और अटल जी जैसा राजनीतिक नेतृत्व भी। इसके लिए न केवल समाज को अपनी पाचन शक्ति ठीक करनी होगी, बल्कि विरोध के स्वर को भी सम्मान देना सीखना होगा।


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