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- जीडीपी आकलन और हकीकत
विजय प्रकाश श्रीवास्तव: जीडीपी मात्रात्मक पहलुओं से ज्यादा और गुणात्मक पहलुओं से कम जुड़ा हुआ है। इसमें मान्यता है कि जो बड़ा है, वह बेहतर है। यह अच्छे एवं बुरे उत्पादन में फर्क नहीं करता। इसमें उन कार्यकलापों को भी जोड़ लिया जाता है जो आय में वृद्धि तो करते हैं, परंतु दीर्घकालिक रूप से अर्थव्यवस्था तथा समाज के लिए नुकसानदेह हैं।
वित्त वर्ष 2022-23 के बजट की संतोषदायक बात यह मानी जा रही है कि इस वर्ष देश की सकल घरेलू उत्पाद विकास (जीडीपी) दर नौ फीसद से ऊपर बनी रहेगी। यह अर्थव्यवस्था पर महामारी के प्रभाव के बावजूद है। भारत की गिनती दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ रही अर्थव्यवस्थाओं में की जाती है और अनुमान है कि अगले एक दशक में यह विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन जाएगी। यह अनुमान भी उस समय देश के संभावित जीडीपी के आधार पर लगाया गया है।
आमतौर पर किसी अर्थव्यवस्था की स्थिति का आकलन उसके जीडीपी के ही आधार पर किया जाता है। इसके अनुसार संयुक्त राज्य अमेरिका, चीन, जापान और जर्मनी क्रमश: पहले से चौथे स्थान और भारत पांचवे स्थान पर है। यह ध्यान देने योग्य है कि इनमें से चीन को छोड़ बाकी सभी देशों की आबादी भारत की अपेक्षा काफी कम है, फिर भी वे अर्थव्यवस्था के आकार के लिहाज से भारत से आगे हैं और इनकी गिनती विकसित देशों में होती है। जबकि भारत को अभी भी विकासशील देश माना जाता है।
विकसित देशों में जो अवसंरचना मौजूद है और लोगों का जो औसत जीवन स्तर है, वह भारत से बहुत आगे है। साथ ही ऐसे कई देश हैं जिनकी जीडीपी विकास दर भारत की अपेक्षा कम है, पर समग्र विकास के मामले में वे भारत से आगे हैं। यही विश्लेषण इस प्रश्न को जन्म देता है कि क्या जीडीपी और इसकी विकास दर किसी अर्थव्यवस्था की सही स्थिति को दर्शाते हैं?
जीडीपी एक देश की भौगोलिक सीमाओं के दायरे में एक निर्दिष्ट समयावधि के भीतर उत्पादित माल तथा सेवाओं का मूल्य होता है। इसकी गणना तीन तरीकों से की जाती है- पहला उत्पादनों के मूल्य के आधार पर, दूसरा- व्ययों की राशि के आधार पर और तीसरा आय के आधार पर। आधार कोई भी हो, लेकिन अर्थशास्त्रियों के साथ-साथ समाजशास्त्रियों के भी एक वर्ग का मानना है कि सिर्फ जीडीपी और इसके बढ़ने की दर के आंकड़े को देख कर अर्थव्यवस्था की पूरी स्थिति नहीं जानी जा सकती।
जैसे व्यापारिक जगत में प्रतिस्पर्धा स्वाभाविक रूप से दिखती है, वैसे ही विभिन्न देश भी एक दूसरे से आगे निकलने की कोशिश में लगे रहते हैं। ज्यादातर यह होड़ आर्थिक मोर्चे पर होती है। वैसे भी लोकतांत्रिक सरकारें अपने-अपने देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत करने पर ध्यान लगाती हैं। ऐसा करने के पीछे के प्रयोजनों में एक इसे अपना कर्तव्य समझ कर करना होता है। दूसरा प्रयोजन सरकारों द्वारा अपनी साख बनाने से है, ताकि उनकी आर्थिक उपलब्धियों के आधार पर उन्हें सत्ता में दुबारा आने का मौका मिले। इस प्रकार सकल घरेलू उत्पाद के आर्थिक एवं राजनीतिक दोनों निहितार्थ हैं।
इसमें कोई संदेह नहीं कि समग्र रूप से एक देश की माली हालत का आकलन करना एक कठिन कार्य है। ऐसे में यहां सकल घरेलू उत्पाद एक बड़ी मदद बन कर आता है। इसकी अवधारणा के प्रशंसकों की कमी नहीं है। जर्मनी के एक विश्वविद्यालय में प्रोफेसर फिलिप लेपनीज सकल घरेलू उत्पाद को मानव इतिहास में सर्वाधिक शक्ति संपन्न सांख्यिकीय आंकड़ा बताते हैं। पर अब इससे भिन्न सोचने वालों का वर्ग उभर कर सामने आ रहा है। कुछ आलोचकों का कहना है कि जीडीपी किसी देश के आर्थिक स्वास्थ्य को दर्शाने हेतु सांख्यिकी का सारांश मात्र है। कुछ और लोग इसे एक आकलन भर बताते हैं।
जीडीपी मात्रात्मक पहलुओं से ज्यादा और गुणात्मक पहलुओं से कम जुड़ा हुआ है। इसमें मान्यता है कि जो बड़ा है, वह बेहतर है। यह अच्छे एवं बुरे उत्पादन में फर्क नहीं करता। इसमें उन कार्यकलापों को भी जोड़ लिया जाता है जो आय में वृद्धि तो करते हैं, परंतु दीर्घकालिक रूप से अर्थव्यवस्था तथा समाज के लिए नुकसानदेह हैं। जैसे वनों को काट कर उद्योगों की स्थापना, समुद्र में गहराई से मछली पकड़ना, कारखानों में उत्पादन का बढ़ना और इसके साथ जल और वायु प्रदूषण में भी वृद्धि होना।
वर्तमान में जो अर्थव्यस्थाएं अपने संसाधनों का भरपूर दोहन कर रही हैं, आंकड़ों में उनका जीडीपी ज्यादा होगा। लेकिन इस दोहन की जो कीमत चुकानी पड़ सकती है, उसका इसमें कोई हिसाब नहीं होता। कई ऐसे अवसर हो सकते हैं जब जीडीपी में ऊंचा स्थान रखने वाला देश अपने से पिछड़े देश से भी किसी महत्त्वपूर्ण मोर्चे पर पिछड़ जाए।
यह जरूरी नहीं कि किसी देश का जीडीपी उस देश के निवासियों के जीवन की गुणवत्ता को भी सही प्रकार से दर्शाए, क्योंकि इसमें स्वास्थ्य, शिक्षा, अवसरों की समानता जैसी बातों को हिसाब में नहीं लिया जाता, जो किसी भी दृष्टि से रुपए-पैसे से कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। इसे समझने के लिए कहीं दूर जाने की जरूरत नहीं है। हम दुनिया की शीर्ष अर्थव्यवस्थाओं में शामिल होने के रास्ते पर हैं, पर कुछ जमीनी सच्चाइयों को समझ लेना भी जरूरी है। देश में बेरोजगारी अपने चरम पर है। लोग काम करने को तैयार हैं, पर काम नहीं है।
अर्थव्यवस्था का आकार भले बढ़ रहा हो, पर यह रोजगार के पर्याप्त अवसर पैदा करने में विफल रही है। करोड़ों की तादाद उन लोगों की है जो अपनी काबिलियत अथवा योग्यता के अनुरूप नियोजित नहीं हैं और जो भी काम मिल गया, उसी को अपनी नियति मानने को बाध्य हैं। भारी भरकम शुल्क वाले स्कूलों, कालेजों और विश्वविद्यालयों की आय भी कहीं न कहीं सकल घरेलू उत्पाद में इजाफा कर रही है। पर गांवों में शिक्षा की हालत पतली है। अभी भी ऐसे विद्यालयों के बारे में सुनने को मिलता है जिनमें शिक्षक या तो जरूरत से काफी कम है या बस कभी-कभार अपने काम पर हाजिर होते हैं।
बाल श्रम के निषेध के कानूनों के बावजूद होटलों, ढाबों और अन्य अनेक जगहों पर बच्चों से काम लेकर उनका शोषण बदस्तूर जारी है। स्वास्थ्य सुविधाओं का जो हाल है, वह हम महामारी के दौर में देख चुके हैं। गरीबों के लिए इलाज पहुंच से दूर अभी भी बना हुआ है। अचल संपत्ति की कीमतें तथा मांग दोनों बढ़ रही है, पर झुग्गी झोपड़ियां भी बनी हुई हैं। बेघर लोगों की संख्या भी कम नहीं है। बढ़ते प्रदूषण के दुष्परिणामों के किस्से हम सुनते रहते हैं। कृषि उत्पादन भले बढ़ रहा हो, लेकिन कर्ज के बोझ से लदे और भूमिहीन किसानों की संख्या भी बढ़ रही है।
एक तरफ महिला सशक्तिकरण की आवाज है, तो नारी उत्पीड़न एवं बलात्कार के बढ़ते मामले हमारा सर शर्म से नीचा कर देते हैं। निम्न मध्यम वर्ग से लोग माध्यम आय वर्ग में कदम रख रहे हैं। कई परिवार ऐसे हैं जिनमें यदि तीन या चार सदस्य हैं तो सभी अच्छी रकम कमा रहे हैं, लेकिन दो जून की रोटी न कमा पाने वालों का वर्ग भी मौजूद बना हुआ है। अमीर-गरीब के बीच खाई घटने की बजाय बढ़ती जा रही है। शिक्षा और भुगतानों का डिजिटलीकरण हो रहा है, पर अभी के हालात में इस डिजिटलीकरण का लाभ लोगों की सीमित संख्या को ही उपलब्ध है। सामाजिक सुरक्षा के मामले में भी हम बहुत पीछे हैं। दुनिया के खुशहाल देशों की सूची में भारत अभी भी नीचे की पायदान पर है। इससे सकल घरेलू उत्पाद की सीमाएं स्पष्ट हो जाती हैं।
जीडीपी बढ़ाने पर देश का ध्यान बना रहे, यह निश्चित रूप से महत्त्वपूर्ण है। इस संकेतक के ऊंचा होने से दुनिया में हमारा मान बढ़े, यह अच्छी बात है। पर इसके साथ यह भी आवश्यक है कि हम समग्र विकास पर ध्यान केंद्रित करते हुए उपर्युक्त कमियों को दूर करें, ताकि विकास समावेशी साबित हो और उस कल्याणकारी राज्य का सपना सच हो जो आजादी के पचहत्तर वर्षों में भी पूरा नहीं हुआ है।