सम्पादकीय

कलियुग में सब बदल गया है, अब अच्छा करने वाले को भी प्रमाण दिखाना पड़ता है

Gulabi Jagat
17 March 2022 8:17 AM GMT
कलियुग में सब बदल गया है, अब अच्छा करने वाले को भी प्रमाण दिखाना पड़ता है
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इसी हफ्ते की बात है। सड़क से गुजरते हुए मैंने देखा कि पांच लोगों का परिवार एक ही प्लेट से खाना खा रहा था
एन. रघुरामन का कॉलम:
इसी हफ्ते की बात है। सड़क से गुजरते हुए मैंने देखा कि पांच लोगों का परिवार एक ही प्लेट से खाना खा रहा था। वो लोग पास की किसी कंस्ट्रक्शन साइट पर काम करने आए थे। प्लेट पर चावल का ढेर था, ऊपर रोटियां बिल्कुल चार टुकड़ों में रखी थीं। एक छोटी प्लेट भी थी, जिसमें कुछ कटी प्याज-अचार रखा था। उस समूह की महिला, जो शायद बच्चों की मां रही होगी, एकदम पतली दाल से भरी कटोरी ला रही थी।
उसकी तली आसानी से दिख रही थी। उन लोगों को मैंने दो पॉकेट सैंडविच की पेशकश की, जो उसी दिन सुबह यात्रा के दौरान मुझे हवाई जहाज में दिए गए थे। बच्चों की आंखें बता रही थीं कि वे ये लेना चाहते हैं, पर बच्चों की मां की चौड़ी आशंकित आंखें उन्हें रोक रही थीं। अपना इरादा बताकर उन्हें राजी करने में मुझे कुछ मिनट लगे, उन्हें बताया कि ये कहां से मिले हैं और तब सफल हुआ। ये सेल्स जॉब से कम नहीं थी।
मैं कार में बैठ गया और सोचने लगा। कार के अंदर खाना था और बाहर एक ऐसा परिवार था जो अपनी रोजमर्रा की जरूरतों के लिए संघर्ष कर रहा था। इसने मुझे अहसास कराया कि भोजन हमेशा व्यापक रूप से उपलब्ध रहा है, फिर भी कई लोग इसके बिना रहते हैं। संयुक्त राष्ट्र के अध्ययन के मुताबिक ग्लोबल हंगर बढ़ता हुआ मसला है। एक आकलन के अनुसार साल 2019 में 69 करोड़ लोग हर रात भूखे सोए।
महामारी के कारण यह संख्या 8.3 से 13.2 करोड़ और बढ़ गई। अब जैसा कि यूक्रेन युद्ध से मुख्य फसलों की आपूर्ति को खतरा है, दुनिया एक संभावित खाद्य संकट का सामना कर रही है। बढ़ती कीमतों के साथ यह और कुछ करोड़ों लोगों को गंभीर भूख के खतरे में डाल सकती है। अगर ये डर सच होता है तो यह हम शिक्षित और शायद थोड़ी बेहतर स्थिति में मौजूद लोगों की जिम्मेदारी है कि भोजन का बुद्धिमानी से इस्तेमाल करें, इसे बर्बादी से बचाएं और भूखों को बांटें।
और तब मुझे विशाल सिंह ठाकुर और उनके बेघर सहायक घनश्याम बाथरे की याद आई, जो खाना बर्बाद होने से बचाते हैं और जो लोग जन्मदिन पर खाना दान करना चाहते हैं, उसे असल भूखों तक गाडरवारा रेलवे स्टेशन पर बांटते हैं। गाडरवारा मध्यप्रदेश में भोपाल-जबलपुर के बीच पड़ता है। यह उन स्टेशंस में से है, जहां से कई एक्सप्रेस ट्रेनें गुजरती हैं बावजूद इसके स्टेशन पर खाने की सुविधा नहीं है, हालांकि चंद ट्रेनें ही यहां रुकती हैं।
पर हर शाम को स्टेशन के बाहर एक विचित्र नजारा देखने मिलता है, वहां कोई भी जाकर देख सकता है कि विशाल न सिर्फ स्थानीय बेघरों-गरीबों को खाना खिलाते हैं, बल्कि घर का बना खाना साफ-सुथरा पैक करके उन लोगों को पैकेट देते हैं, जिनकी ट्रेन छूट गई हो और अगली ट्रेन के इंतजार में भूखे हों। वह उनके चेहरों को पढ़कर पूछते हैं, 'मुझे लगता है आप भूखे हैं, कृपया ये खाना लीजिए।'
दिलचस्प रूप से यह आदमी उन लोगों को अपना विजिटिंग कार्ड देता है, जो उसका खाना लेने में हिचकिचाते हैं। इस कार्ड पर नाम नहीं, बस 'विशाल राम रोटी सेवा' लिखा होता है और यह बताता है कि यह कार्य 2015 से जारी है। इस पर मोबाइल नंबर होता है और पता है 'गाडरवारा स्टेशन।'
जब मेरे एक सहकर्मी ने उनसे पूछा, 'भोजन पाने वालों को विजिटिंग कार्ड देकर अच्छे काम का प्रचार क्यों करते हैं?' तब विशाल ने कहा, 'मैं कार्ड सिर्फ उन लोगों को देता हूं जो मुुझसे खाना लेने में झिझकते हैं और इस सेवा की पुष्टि कर सकते हैं।'
फंडा यह है कि ऐसा हर्गिज न सोचें कि चूंकि आप समाज के लिए अच्छा कर रहे हैं, तो अपनी अच्छाई का प्रमाण दिखाने की जरूरत नहीं। हम चमक-दमक भरी दुनिया में रहते हैं, इसलिए कलियुग में कभी-कभी प्रमाण की आवश्यकता है, यहां तक कि अच्छे कामों के लिए भी।
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