सम्पादकीय

अंग्रेज और सेवक

Gulabi
31 Aug 2021 6:09 AM GMT
अंग्रेज और सेवक
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अधिकारों के लिए लड़ रहे लोगों पर गोलियां गुलाम भारत के जलियांवाला बा$ग में भी चल सकती हैं

अधिकारों के लिए लड़ रहे लोगों पर गोलियां गुलाम भारत के जलियांवाला बा$ग में भी चल सकती हैं और आज़ाद भारत के दिल्ली या मंदसौर में भी। बस $फ$र्क इतना है कि तब अंग्रेज़ गोरे थे और आज काले हैं। बस नहीं बदले तो केवल सेवक, जो तब भी काले थे और आज भी काले हैं। $गुलाम भारत में गोरे अंग्रेज़ों की ड्रेस आज़ाद भारत में बैंड बजाने वालों की तरह थी या कोट-पैंट और हैट। आज़ाद भारत में काले अंग्रेज़ खादी, स$फेद या मौ$के के अनुसार कुछ और पहन लेते हैं। पर सेवक तब भी वही पहनते थे, जो आज पहनते हैं। खा$की या अंग्रेज़ी पोशाक, हैट तो नहीं लेकिन कोट-पैंट के बिना उन्हें कुछ अधूरा सा लगता है। लेकिन यक्ष प्रश्न है कि अंग्रेज़ या सेवक आदमी होता है या उसकी मानसिकता। अगर ऐसा नहीं होता तो चचा $गालिब, "हुआ है शह का मुसाहिब फिरे है इतराता, वगरना शहर में '$गालिब की आबरू क्या है कहने को मजबूर न हुए होते। पता नहीं किस अ$क्लमंद ने पहली मर्तबा ब्रिटेन के लोगों को अंग्रेज़ कहा होगा, वरना अंग्रेज़ तो सृष्टि के आरंभ से दुनिया के हर देश और कोने में पाए जाते हैं और सेवक भी। जो अपने इलाके के हिसाब से गोरे, काले या भूरे कुछ भी हो सकते हैं। इसी तरह सेवक, किसी भी रंग के हो सकते हैं। ईरान, पाकिस्तान या अफगानिस्तान जैसे इस्लामिक देशों में शरिया थोपने वाले क्या उन अंग्रेज़ों से कम हैं, जिनके राज में सूरज कभी डूबता नहीं था। इसी तरह मुसलमान अंग्रेेज़ों की तरह उनके सेवक भी इन देशों में बिना मूंछों की दाढ़ी, ऐसी अज़ान जिसे शायद $खुदा ही बरदाश्त कर पाए, औरतों पर हर पल नापा$क नि$गरानी व$गैरह थोपने के लिए दूसरों के साथ अपना अमन-आमान बरबाद करने पर तुले हुए हैं। वैसे कम तो हमारे आर्यावर्त के काले अंग्रेज़ और सेवक भी नहीं। अवाम को बहलाने के लिए खिलौना देने के बाद वे उससे खेलते रहते हैं। जब अवाम खेलने से मना करती है तो आज़ाद और $गुलाम भारत का भेद मिट जाता है। यह भेद तभी तक $कायम रहता है, जब तक अवाम उनके दिए खिलौने से खेलती रहती है। अंग्रेज़ों और सेवकों को कभी खिलौने की ज़रूरत महसूस नहीं होती। उनके लिए भीड़ की शक्ल में इतनी खिलौना भेड़ें होती हैं कि उनके साथ खेलते हुए वे उन्हें कहीं भी, कभी भी काट सकते हंै। बस मौ$के के हिसाब से $कत्लगाह बदलती रहती हैं। नहीं बदलती तो मानसिकता। खिलौना कभी $गरीबी हो जाती है तो कभी बेरोज़गारी। कभी विकास हो जाता है तो कभी जन-कल्याण।

अपने सियासी $फायदों के लिए जब खिलौनों को बांटना होता है तो उन्हें मज़हब के दड़बों की $कैद में डाल दिया जाता है। वरना देश की एकता, अखंडता और विविधता $कायम रहती है। मानसिकता कभी गोधरा का चोला पहन लेती है तो कभी राम जन्मभूमि का। कभी मुज़फ्फर नगर हो जाती है तो कभी प्रयागराज या हरिगढ़। कभी जाति आधार पर जनगणना को मना करती है तो कभी आसन्न चुनावों को देख कर मंडल और कमंडल के बाहर आबे-ज़मज़म या गंगा की तरह ओबीसी आरक्षण हो जाती है। बेचारे सेवकों का क्या? हमेशा $खानदानी होते हैं, अंग्रेज़ जो हुक्म दें, उसकी तामील, बिना कुछ सोचे-समझे। वे तो अपनी अ$क्ल बांधे कभी जलियांवाला बा$ग में अधिकारों के लिए लड़ रहे $गुलामों पर $फायरिंग करते हैं तो कभी करनाल में उनका सिर फोड़ते हैं। कभी जेएनयू में छात्रों को दौड़ाते हैं तो कभी दिल्ली में खाइयां खोदते हैं। कभी किसी को आतंकवादी या राष्ट्रविरोधी बता कर जेलों में डालते हैं और जमानत भी नहीं लेने देते। रही बमुश्किल दो $फीसदी अंग्रेज़ों और सेवकों के बीच पिसने वाली अवाम, वह बेचारी तो सदा अपने पेट में भूख का झुनझुना बांधे $खुद ही खेलती रहती है।
पी. ए. सिद्धार्थ, लेखक ऋषिकेश से हैं
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