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- संसद में गतिरोध खत्म...
लोकतन्त्र में संसद की महत्ता इस प्रकार विवेचित है कि इसके पास देश के किसी भी संवैधानिक पद पर प्रतिष्ठापित व्यक्ति के विरुद्ध अभियोग चलाने का अधिकार है। इसके साथ ही जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से चुनी गई लोकसभा के पास अधिकार है कि वह इस सदन में बहुमत के आधार पर किसी भी दल या दलों के गठबन्धन को सत्ता पर काबिज करे और उसके अल्पमत में आने पर उसे हटा दे। इसे देश का सर्वोच्च सदन कहने के पीछे मन्तव्य यही है कि इसकी समन्वित सत्ता के आगे देश का प्रत्येक संवैधानिक संस्थान नतमस्तक हो परन्तु संसद को यह सर्वोच्चता भारत का संविधान ही देता है और तय करता है कि इसमें जनता द्वारा परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से चुने गये प्रतिनिधि उसका सच्चा प्रतिनिधित्व करते हुए अपने दायित्व का शुद्ध अन्तःकरण से निर्वहन करें। इस संसद की संरचना सत्ता व विपक्ष में बैठे हुए राजनीतिक दलों के सदस्यों से बनती है। इनका कर्त्तव्य होता है कि वे सत्ता पर आसीन सरकार को संविधान के अनुसार काम करते हुए देखें। यह कार्य वे अपने-अपने सदनों के बनाये गये नियमों में बंध कर इस प्रकार करते हैं कि हर हालत में उनका लक्ष्य जनहित व राष्ट्रहित रहे। इसी जनहित व राष्ट्रहित को देखते हुए हमारे संविधान निर्माताओं ने संसद के माध्यम से सत्ता पर काबिज किसी भी सरकार की जवाबदेही संसद के प्रति नियत की और सुनिश्चित किया कि विपक्ष में बैठे सांसदों की यह जिम्मेदारी होगी कि वे सरकार के हर फैसले या कदम की संसद के भीतर तसदीक करें और इस कार्य के लिए संसद के सदनों द्वारा बनाये गये नियमों का पालन करते हुए किसी भी जनहित के मुद्दे पर सरकार से जवाबतलबी करें। गौर करिये यदि ऐसा न होता तो दोनों सदनों राज्यसभा व लोकसभा में ध्यानाकर्षण प्रस्ताव से लेकर शून्यकाल व कामरोको प्रस्ताव तक का प्रावधान क्यों किया गया होता? ये सब हथियार विपक्ष को इसलिए दिये गये जिससे बहुमत के गरूर में कोई भी सरकार निरंकुश न हो सके। दूसरी तरफ ऐसे प्रस्तावों को स्वीकृत या अस्वीकृत करने का अधिकार इन सदनों के सभापतियों को इस नीयत के साथ दिया गया कि अपने पदों पर बैठे सभापति पूरी तटस्थता के साथ निरपेक्ष भाव से ऐसे प्रस्तावों पर अपने दलगत आग्रह छोड़ कर पूर्णता में निरपेक्ष भाव से फैसला सदन के नियमों के अनुसार करेंगे। इसी वजह से सभापति के निर्णयों को चुनौती न देने का नियम भी दोनों सदनों में बनाया गया। मगर वर्षाकालीन सत्र के शुरू से ही जिस तरह का गतिरोध संसद में बना हुआ है वह विपक्ष व सत्ता पक्ष दोनों को ही गंभीरतापूर्वक परिस्थितियों का जायजा लेने को प्रेरित करता है। इस सन्दर्भ में सभी विपक्षी दलों ने कांग्रेस नेता श्री राहुल गांधी के नेतृत्व में संगठित होकर जिस तरह संसद में पेगासस जासूसी कांड को उठाने की मांग की है उसके सीधे तार सभापतियों के विवेक से जाकर जुड़ते हैं। संसद के भीतर सरकार की सत्ता इसके दोनों सदनों के सभापतियों के अधीन इस प्रकार होती है कि वे किसी भी मुद्दे या प्रश्न के न्यायोचित होने पर सरकार को निर्देश दे सकते हैं। सदन के भीतर सभापति की निगरानी में सरकार व विपक्ष दोनों ही इस प्रकार काम करते हैं कि इसके नियमों का पालन होता रहे और कोई भी पक्ष मर्यादाहीन न होने पाये परन्तु इस मामले में विपक्ष का पलड़ा इसलिए भारी रहता है क्योंकि अपने तर्कों के आधार पर उसके पास सरकार के विरोध करने का अधिकार सुरक्षित रहता है। दूसरी तरफ सरकार भी मर्यादा भंग होने पर सदन के नियमों को लागू करने की मांग कर सकती है। अभी हाल ही में हमने देखा कि राज्यसभा में रेल व सूचना प्रौद्योगिकी मन्त्री अश्विनी वैष्णव के हाथ से उनके पेगासस जासूसी कांड पर दिये जा रहे बयान को छीन कर फाड़ देने वाले तृणमूल कांग्रेस के सांसद श्री शान्तनु के खिलाफ कार्रवाई की गई और उन्हें संसद के शेष सत्र से निष्कासित कर दिया गया। ठीक इसी प्रकार विपक्षी सांसदों का भी यह अधिकार बनता है कि सदन के नियमों के अनुसार उनकी भी मांग को स्वीकार किया जाये और पेगासस के मुद्दे पर पूरी बहस कराई जाये। यदि समूचा विपक्ष संगठित होकर इसकी मांग कर रहा है तो सदन के नियम व स्थापित परंपराएं ही इस बात की इजाजत देते हैं कि बहस का रास्ता खोला जाये।संपादकीय :बंद होते इंजीनियरिंग संस्थान!गपशप से वरिष्ठ नागरिकों के लिए दुनिया हुई छोटी...अपने जवानों की दुःखद शहादत'संसद जीवन्त बने'येदियुरप्पा की विदाईअफगान नीति अग्नि परीक्षालोकसभा में विपक्ष भारी अल्पमत में है अतः संसद के माध्यम से देश को यह जानने का हक है कि विपक्ष पेगासस को लेकर जो आरोप लगा रहा है उसमें सत्य का अंश कितना है वरना लोगों में भ्रम का वातावरण ही बना रहेगा। इसके चलते संसद की कार्यवाही में अवरोध आना समूची संसदीय प्रणाली का ही उपहास कहा जायेगा। अतः संसद के सभी निर्णायक संस्थानों को इसका हल तुरन्त निकालना चाहिए क्योंकि देश इस समय भारी समस्याओं से जूझ रहा है और प्रमाण यह है कि अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने भारत की चालू वर्ष के दौरान वृद्धि दर को सीधे तीन प्रतिशत घटा दिया है। इसलिए 'हंगामा' नहीं 'सूरत' बदलनी चाहिए।