सम्पादकीय

कश्मीर में आर्थिक बदलाव!

Subhi
30 Dec 2021 2:18 AM GMT
कश्मीर में आर्थिक बदलाव!
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जम्मू-कश्मीर राज्य का जिक्र जिस तरह आतंकवादी व राजनीतिक असन्तोष की घटनाओं को लेकर अक्सर होता रहता है उसके विपरीत इस सूबे में घटने वाली ऐसी घटनाओं का जिक्र नहीं होता जिनका सम्बन्ध इसके भविष्य को लेकर रहता है।

जम्मू-कश्मीर राज्य का जिक्र जिस तरह आतंकवादी व राजनीतिक असन्तोष की घटनाओं को लेकर अक्सर होता रहता है उसके विपरीत इस सूबे में घटने वाली ऐसी घटनाओं का जिक्र नहीं होता जिनका सम्बन्ध इसके भविष्य को लेकर रहता है। हाल ही में विगत सोमवार को इस प्रान्त की राजधानी श्रीनगर में जमीन- जायदाद को लेकर 'रियलिटी सम्मिट' या शिखर सम्मेलन हुआ जिसमें इस क्षेत्र की सक्रिय नामवर कम्पनियों ने हिस्सा लिया। इसका आयोजन जम्मू-कश्मीर प्रशासन की ओर से किया गया था। इस वाणिज्यिक सम्मेलन में लगभग 19 हजार करोड़ रुपए मूल्य के जायदाद खरीद-फरोख्त के 39 समझौतों या सहमति पत्रों पर हस्ताक्षर किये गये। इनमें से 19 समझौते आवासीय परियोजनाएं स्थापित करने के हैं और आठ व्यावसायिक प्रतिष्ठान स्थापित करने के हैं तथा चार परियोजनाएं होटल खड़ा करने के बारे में हैं। अभी तक इस राज्य के क्षेत्रीय राजनीतिक दल यह कहते आ रहे थे कि अनुच्छेद 370 समाप्त करने के बाद सूबे में एक पैसे का भी नया निवेश नहीं आया है। मगर इन समझौते के होने के बाद उन्होंने उल्टी आलोचना यह कह कर करनी शुरू कर दी है कि यह कार्य जम्मू-कश्मीर के आवासीय व जैविक सन्तुलन को बिगाड़ने के लिए किया जा रहा है। चाहे पीडीपी हो या नेशनल कान्फ्रेंस दोनों एक ही भाषा में अलग-अलग शब्दों में यह कहने की कोशिश कर रहे हैं कि इससे जम्मू-कश्मीर के मूल निवासियों का हक मारा जायेगा क्योंकि बाहर के लोग आकर यहां बसेरा करेंगे और व्यापारिक गतिविधियां शुरू करेंगे। जम्मू-कश्मीर के लोगों को 370 का झुनझुना पकड़ाने वाले इन कथित रोशन ख्याल सियासतदानों से कोई यह पूछे कि पिछले 74 सालों से इस सूबे और इसके लोगों की तरक्की के लिए उन्होंने क्या किया ? तो उनका जवाब सिवाय इसके कुछ नहीं हो सकता कि उन्होंने रियासत के खास दर्जे का ख्वाब दिखाते हुए यहां के लोगों की गुरबत को बरकरार बनाये रखा। जरा फारूख अब्दुल्ला साहब या मोहतरमा महबूबा मुफ्ती से यह पूछा जाये कि पिछले सोमवार को तीन ऐसी परियोजनाएं लगाने पर भी सहमति बनी जिनका ताल्लुक आधारभूत ढांचा खड़ा करने से है। तीन परियोजनाएं तो सूबे में फिल्मी सहूलियतें मुहैया कराने के बारे में हैं और दो वित्त क्षेत्र का बुनियादी तन्त्र विकसित करने के बारे में हैं। इन सभी परियोजनाओं का फायदा आखिरकार कश्मीर के रहने वाले लोगों को ही होगा। यदि खाली फिल्मी परियोजनाओं को ही लिया जाये तो आतंकवाद से पहले मुम्बई की कोई ऐसी फिल्म होती होगी जिसमें कश्मीर की खूबसूरत वादियों में शूटिंग न की जाती हो। जम्मू-कश्मीर सूबे की आमदनी में उस समय तक फिल्म उद्योग का योगदान अच्छा-खासा हुआ करता था। फिल्मी कम्पनियों के कश्मीर में आने से किस हद तक राजस्व का फायदा होगा। इसका अन्दाजा लगाया जाना बहुत मुश्किल काम नहीं है। इसके साथ ही यहां होटल उद्योग को बढ़ावा देने से सैलानियों की बढ़ती आमद को संभालने में मदद तो मिलेगी ही साथ ही उन्हें बढ़ावा भी दिया जा सकेगा। जहां तक आवासीय परियोजनाओं का सवाल है तो इससे आबादी में परिवर्तन आने का तर्क पूरी तरह निराधार है। भारत में सैकड़ोंं पहाड़ी पर्यटक स्थल हैं जहां संभ्रान्त या सम्पन्न कहे जाने वाले लोग अपने लिये अस्थायी निवास की व्यवस्था करते हैं मगर इससे भी ऊपर इसका असली लाभ जम्मू-कश्मीर के लोगों को ही होगा जो आधुनिक सुविधाओं से परिपूर्ण आवास अपनी पहुंच के भीतर आने पर खरीद सकेंगे। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि इन परियोजनाओं का लाभ कश्मीर को होगा और स्थानीय पेशेवर युवकों को रोजगार मिलेगा। वित्त क्षेत्र में बुनियादी सुविधाएं शुरू होने का लाभ जाहिर तौर पर कश्मीरी जनता को ही मिलेगा और वह अपना जीवन उसी तरह सुगम बना सकेगी जिस तरह देश के अन्य राज्यों के लोग बनाते हैं। हकीकत तो यह है कि 370 के सब्जबाग में कश्मीरी जनता की आर्थिक तरक्की को क्षेत्रीय राजनीतिज्ञों ने इस हद तक जमींदोज किया कि लोगों ने मुफलिसी को ही अपनी तकदीर मान लिया। लोकतन्त्र में यह संभव नहीं है क्योंकि इस व्यवस्था में शासन लोगों के कन्धों पर ही टिका होता है और वह राजनीतिक रूप से सजग होकर जब सत्ता में अपनी भागीदारी तय करती है तो राष्ट्रीय सम्पत्ति में अपना हिस्सा भी मांगती है। भारत आज दुनिया की छठी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है और इसके एक सूबे को बदलाव की इस बयार से बाहर नहीं रखा जा सकता। संपादकीय :चंडीगढ़ की पसंद...अमर शहीद रमेश चंद्र जी के जन्मोत्सव पर ऑनलाइन संगीतमय भजन संध्या का आयोजनकाले धन के कुबेरहिन्दू-मुस्लिम नहीं भारतीयविधानसभा चुनाव और कोरोनाकानून के दुरुपयोग से खंडित होते परिवारआखिरकार पिछले 74 सालों में कश्मीर की युवा पीढ़ी को यहां के राजनीतिज्ञों को क्या दिया? सत्तर के दशक तक एक समय वह भी था जब सर्दियों में कश्मीरी भारत के मैदानी इलाकों में आकर गली-मुहल्लों में घरों के ईंधन रूप में प्रयोग होने वाली लकड़ी को चूल्हे में जलाने के उपयुक्त बनाने हेतु फाड़ा करते थे या अन्य प्रकार की मजदूरी किया करते थे। परन्तु धीरे-धीरे इसमें परिवर्तन आया जिसमें एक वजह घाटी में आतंकवाद का पनपना भी रहा। लेकिन एक ही लोकतान्त्रिक मुल्क में रहने वाली किसी भी कौम को बहुत लम्बे अर्से तक खुशहाली से महरूम नहीं रखा जा सकता । इसलिए 370 हटाने का जो सियासी पार्टियां विरोध करती हैं उन्हें यह सोचना चाहिए कि जम्मू-कश्मीर का भी हिन्दोस्तान की खुशहाली में जायज हिस्सा है और इसे पाने के लिए यहां के नागरिकों को अपने जायज संवैधानिक हक पाने का अधिकार है जिन्हें 370 हटा कर दिया गया है। विकास परियोजनाओं के बारे में कश्मीरियों के दिमाग में शक पैदा करने की जो कोशिशें सियासती जमाते करती हैं वे कश्मीरियों का ही नुकसान करती हैं और उन्हें बदहाल बनाये रखने की कोशिशें ही करती हैं। कश्मीर में यदि वाणिज्यिक गतिविधियां बढ़ती हैं तो इसका लाभ निश्चित तौर पर सबसे पहले यहां के नागरिकों को ही मिलेगा। उनकी औसत आमदनी में इजाफा होने के साथ रोजगार के अवसर भी बढ़ेंगे।


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