सम्पादकीय

Earth Day 2022 : यदि हमें जीवन से प्यार है तो धरती की सिसकी भी सुननी होगी और उसकी रक्षा करनी होगी

Gulabi Jagat
21 April 2022 5:08 PM GMT
Earth Day 2022 : यदि हमें जीवन से प्यार है तो धरती की सिसकी भी सुननी होगी और उसकी रक्षा करनी होगी
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जाने कब से यह धरती सभी प्राणियों, जीव-जंतुओं, वनस्पतियों आदि के लिए आधार बनकर जीवन और भरण-पोषण का भार वहन करती चली आ रही है
गिरीश्वर मिश्र। जाने कब से यह धरती सभी प्राणियों, जीव-जंतुओं, वनस्पतियों आदि के लिए आधार बनकर जीवन और भरण-पोषण का भार वहन करती चली आ रही है। कभी मनुष्य भी अपने को कोई विशिष्ट प्राणी न मानकर प्रकृति का अंग समझता था। मनुष्य की स्थिति शेष प्रकृति के अवयवों के एक सहचर के रूप में थी। मनुष्य को प्रकृति के रहस्यों ने आकृष्ट किया और अग्नि, वायु आदि में देवत्व की प्रतिष्ठा होने लगी और वे पूज्य और पवित्र माने गए। प्रकृति के प्रति आदर और सम्मान का भाव रखते हुए, उसके प्रति कृतज्ञता का भाव रखा गया। उसके उपयोग को सीमित और नियंत्रित करते हुए त्यागपूर्वक भोग की नीति अपनाई गई, लेकिन धीरे-धीरे बुद्धि, स्मृति और भाषा के विकास और अपने कार्यों के परिणामों से चमत्कृत होते मनुष्य की दृष्टि में बदलाव शुरू हुआ। प्रकृति की शक्ति के भेद खुलने के साथ मनुष्य स्वयं को शक्तिवान मानने लगा। प्रकृति के संसाधनों के प्रकट होने के साथ दृश्य बदलने लगा और मनुष्य ने उनका दोहन करना शुरू किया। उद्योगीकरण, आधुनिकीकरण और विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के विकास के साथ मनुष्य और प्रकृति के रिश्तों में उलटफेर शुरू हुआ। प्रकृति को नियंत्रित करना और उसे अपने निहित उद्देश्यों की पूर्ति में लगाना स्वाभाविक माना जाने लगा। बुद्धि-वैभव बढऩे के साथ अपनी उपलब्धि पर इतराते-इठलाते मनुष्य ने अपने को स्वामी और प्रकृति को अपनी चेरी का दर्जा देना शुरू किया।
प्रकृति में उपलब्ध कोयला, पेट्रोलियम पदार्थों और विभिन्न गैसों ने ऊर्जा के ऐसे स्रोत प्रदान किए कि मनुष्य को मानों पर लग गए। उसकी लोभ-वृत्ति ने छलांग लगानी शुरू की और प्रकृति के शोषण की गति निरंतर बढ़ती गई। पहले बड़े देशों ने शोषण की राह दिखाई और उन्हें विकसित कहा जाने लगा। फिर छोटे देशों ने भी अनुगमन शुरू किया। यह मान कर कि प्रकृति निर्जीव, अनंत और अपरिमित है, मनुष्य ने प्राकृतिक संसाधनों को हथियाने की मुहिम छेड़ दी, जो तीव्र होती गई और यहां तक कि उसने हिंसात्मक रूप ले लिया। यह अक्सर भुला दिया जाता है कि प्रकृति जीवंत है और ब्रह्माड की समग्र व्यवस्था में धरती की इस अर्थ में खास उपस्थिति है कि सिर्फ यहीं पर जीवन की सत्ता है। इस धरती की सीमा है। उसका विकल्प नहीं है। आज हम जिस दौर में पहुंच रहे हैं, उसमें पृथ्वी को पवित्र और पूज्य न मान कर उपभोग्य माना जा रहा है। आज स्वार्थ की आंधी में जिसे जो भी मिल रहा है, उस पर अपना अधिकार जमा रहा है। विकास के नाम पर वन, पर्वत, घाटी, पठार, मरुस्थल, झील, सरोवर, नदी और समुद्र जैसी भौतिक रचनाओं को ध्वस्त करते हुए मनुष्य के हस्तक्षेप पारिस्थितिकी के संतुलन को बार-बार छेड़ रहे हैं। यह प्रवृत्ति घोर असंतुलन पैदा कर रही है, जिसके परिणाम अतिवृष्टि, अनावृष्टि, तूफान, भूस्खलन, बाढ़ आदि प्राकृतिक आपदाओं के रूप में दिखाई पड़ते हैं। मनुष्य के हस्तक्षेप के चलते जैव विविधता घट रही है और बहुत से जीव-जंतुओं की प्रजातियां समाप्त हो चुकी हैं। हमारा मौसम का क्रम उलट-पलट रहा है। गर्मी, जाड़ा और बरसात की अवधि खिसकती जा रही है, जिसका असर खेती, स्वास्थ्य और जीवन-क्रम पर पड़ रहा है। वैश्विक रपटें ग्लेशियर पिघलने और समुद्र के जल स्तर के ऊपर उठने के घातक परिणामों की जानकारी दे रही हैं। यदि यही क्रम बना रहा तो कई देशों के नगर ही नहीं, कई देश भी डूब जाएंगे। प्रगति के लिए किए जाने वाले हमारे कारनामों से ऐसी गैसों का उत्सर्जन खतरनाक स्तर पर पहुंच रहा है, जो वायुमंडल को बुरी तरह प्रभावित कर रही हैं। धरती के संसाधनों के दोहन का हिसाब लगाएं तो भेद इतना है कि यदि जर्मनी और अमेरिका की तरह सभी देश उपभोग करने लगें तो एक धरती कम पड़ेगी।
प्रकृति के सभी अंगों में परस्पर निर्भरता और पूरकता होती है, पर हम उसकी अनदेखी करते हैं। इस उपेक्षा वृत्ति के कई कारण हैं। एक यह कि परिवर्तन अक्सर धीमे-धीमे होते हैं और सामान्यत: आम जन को उनका पता नहीं चलता। उदाहरण के लिए आक्सीजन, वृक्ष और कार्बन डाई-आक्साइड के रिश्ते को हम ध्यान में नहीं ला पाते। आज पेड़ कट रहे और उनकी जगह कंक्रीट के जंगल मैदानों में ही नहीं, पहाड़ों पर भी खड़े हो रहे हैं। जीवन की प्रक्रिया से इस तरह का खिलवाड़ अक्षम्य है, पर विकास के चश्मे में कुछ साफ नहीं दिख रहा है और हम सब जीवन के विरोध में खड़े होते जा रहे हैं। दूसरा कारण यह है कि प्रकृति और पर्यावरण की जिम्मेदारी किसी अकेले की नहीं, समाज की होती है, लेकिन लोग उसे सरकार पर छोड़ देते हैं। विकास की दौड़ में भौतिकवादी, उपभोक्तावादी और बाजार प्रधान युग में मनुष्यता चरम अहंकार और स्वार्थ के आगे जिस तरह नतमस्तक हो रही है, वह स्वयं जीवन विरोधी होती जा रही है। संयम, संतोष और अपरिग्रह के देश में जहां महावीर, बुद्ध और गांधी जैसे महापुरुषों की वाणी गुंजरित है और जिन्होंने अपने जीवन और कर्म से हमें मार्ग दिखाया, वहां हम निर्दय होकर प्रकृति और धरती की नैसर्गिक सुषमा को जाने-अनजाने नष्ट कर रहे हैं।
यदि जीवन से प्यार है तो धरती की सिसकी भी सुननी होगी और उसकी रक्षा अपने जीवन की रक्षा के लिए करनी होगी। प्रकृति हमारे जीवन की संजीवनी है, भूमि माता है और उसकी रक्षा और देखरेख सभी प्राणियों के लिए लाभकर है। इस दृष्टि से नागरिकों के कर्तव्यों में प्रकृति और धरती के प्रति दायित्वों को विशेष रूप से शामिल करने की जरूरत है। दूसरी ओर प्रकृति के हितों की रक्षा के प्रविधान और मजबूत करने होंगे।
(लेखक पूर्व प्रोफेसर एवं पूर्व कुलपति हैैं)
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