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- ई-शिक्षा के संकट
सुशील कुमार सिंह: भारत इंटरनेट की सुस्त रफ्तार की समस्या से भी परेशान है। इस मामले में भारत एक सौ चौंतीस देशों की सूची में एक सौ उनतीसवें स्थान पर है जो पड़ोसी पाकिस्तान, श्रीलंका से भी पीछे है। कोरोना काल में इस मामले में भी सुधार तेजी से होता दिखाई तो दिया, मगर देश की ढाई लाख पंचायतें और साढ़े छह लाख गांवों में शत-प्रतिशत इंटरनेट पहुंच कब बनेगी, इसका कोई अंदाजा नहीं है।
शिक्षा का उद्देश्य उसे अधिक शिष्य केंद्रित, आनंदायक, प्रयोगात्मक व खोजोन्मुख बनाना होना चाहिए। शायद इसी की खोज हर शिक्षा नीति और हर तरीके के पाठ्यक्रम में कमोबेश होती रही है। पर शिक्षा और शिक्षण पद्धति को लेकर एक विचित्र विरोधाभास और दुविधा की स्थिति भी रही है। एक आदर्श और गुणकारी शिक्षा व्यवस्था में कौनसे तत्व शामिल होने चाहिए, इसे लेकर आजादी के पचहत्तर सालों में कोई एक निश्चित धारणा शायद ही बन पाई हो। नतीजन इस अनिश्चितता का भरपूर दंड हर नई पीढ़ी कमोबेश भुगतती रही है और अब कोविड-19 के इस दौर में बीते दो साल से आनलाइन शिक्षा तो मौजूदा पीढ़ी को एक नया सबक सिखा रही है जहां शिक्षा एक नए संघर्ष के साथ मानसिक संतुलन भी बरकरार रखने की कवायद लिए रही है।
मौजूदा वैश्विक महामारी के दौर में संचार, नेतृत्व और नीति-निर्माताओं, प्रशासन व समाज के बीच तालमेल के जरूरी तत्व के रूप में डिजिटल व्यवस्था की केंद्रीय भूमिका हो गई है। डिजिटल का यह दायरा कोविड-19 से संबंधित योजनाओं के ज्यादा पारदर्शी, सुरक्षित और अंतर प्रचालनीय ढंग से प्रसार हेतु महत्त्वपूर्ण औजार बनते देखा जा सकता है, मगर संदर्भ कुछ इसके उलट भी रहे हैं। देखने को मिला है कि शिक्षा मंत्रालय को अभिभावकों की ओर से थोक में शिकायतें भी मिलीं, जिसमें बच्चों को विद्यालयों की ओर से घंटों आनलाइन पढ़ाया जाना, गृह कार्य के अनुपात को भी बरकरार रखना और दिन भर कंप्यूटर, लैपटाप और मोबाइल से बच्चों का चिपके रहना। जाहिर है, अनावश्यक व्यस्तता के चलते व्यवहार में बदलाव होना स्वाभाविक था।
इससे सीखने की न केवल क्षमता घटी, बल्कि बच्चों में चिड़चिड़ापन भी आने लगा। हालांकि महामारी के समय शिक्षा को संभालने में ई-लर्निंग एक महत्त्वपूर्ण विकल्प के रूप में सामने आया। इसी की बदौलत कोरोनाकाल में लगभग पूरी शिक्षा व्यवस्था को बेपटरी होने से बचाए रखने में मदद मिली। गौरतलब है कि डिजिटल प्रौद्योगिकी के उभार ने शिक्षण विधियों, विश्वविद्यालयी प्रशासन प्रणालियों, उच्च शिक्षा संबंधी लक्ष्यों और भविष्य में स्थापित होने वाले विश्वविद्यालयों के संदर्भ में एक नया दृष्टिकोण अपनाने का अवसर भी दिया है। इसीलिए भारत सरकार ने वित्त वर्ष 2022-23 के बजट में डिजिटल विश्वविद्यालय खोलने का एलान किया।
जब भी सुशासन को कड़ीबद्ध करने का प्रयास किया जाता है तो इसमें यह सुनिश्चित करना भी शामिल रहता है कि लोक व्यवस्था की भरपाई में कोई कमी न रहे और लोक विकास को पूरा अवसर मिलता हो। ई-शिक्षा के माध्यम से क्या सभी को अवसर मिला, यह सवाल आज भी कहीं गया नहीं है। इसके अलावा शिक्षा, चिकित्सा, सड़क, बिजली, पानी सहित तमाम बुनियादी विकास व सतत विकास की धाराओं को भी मनचाहा मुकाम मिले, यह भी सुशासन का ही फलक है। महामारी के चलते सब कुछ सही रहे, इसकी कोशिश तो की जा सकती है, पर नतीजा मनमाफिक भी मिले हैं, इस पर संदेह है। डिजिटल इंडिया का प्रसार भारत में क्या उस पैमाने पर हुआ है जहां से सुशासन का गुणा-भाग समाप्त होता है।
वैसे डिजिटल इंडिया साल 2015 में प्रकट तो हुआ, मगर इसकी बुनियाद दशकों पुरानी है। दरअसल इसकी नींव तब पड़ी थी जब भारत सरकार ने 1970 में इलेक्ट्रानिक विभाग और 1977 में राष्ट्रीय सूचना केंद्र का गठन किया था। 1991 के उदारीकरण से देश एक नई धारा को ग्रहण कर रहा था जिसमें इलेक्ट्रानिक विन्यास भी इसका एक हिस्सा था। ई-क्रांति भले ही देर से आई, मगर इसका प्रसार दशकों पुराना है। साल 2006 में राष्ट्रीय ई-गवर्नेंस योजना के प्रकटीकरण ने दक्षता, पारदर्शिता और जवाबदेही को सुनिश्चित कर दिया।
ई-शिक्षा इसी की एक कड़ी है जो कोरोना काल में आसमान छूने के लिए बेताब रही, मगर छलांग पूरी न पड़ी। गौरतलब है कि डिजिटलीकरण ई-शिक्षा का भी एक बहुत बड़ा औजार है। ई-शासन मौजूदा समय में एक नई करवट ले रहा है और विकास की जमीन अब डिजिटलीकरण से युक्त है, मगर एक सौ छत्तीस करोड़ आबादी वाले भारत में इंटरनेट का दायरा उस औसत में अभी भी नहीं है कि ई-शिक्षा के माध्यम से शिक्षा को पूरा मुकाम दिया जाए।
नेशनल सैंपल सर्वे से पता चलता है कि साल 2017-18 करीब बयालीस फीसद शहरी और पंद्रह प्रतिशत ग्रामीण परिवारों के पास ही इंटरनेट की सुविधा थी। मौजूदा समय में शहरी आबादी में सड़सठ फीसद और ग्रामीण में महज इकतीस फीसद तक इंटरनेट की पहुंच है। इंटरनेट एंड मोबाइल एसोसिएशन आफ इंडिया के मुताबिक 2020 तक देश में इंटरनेट उपभोक्ताओं की संख्या करीब तिरसठ करोड़ थी। हालांकि 2025 तक यह नब्बे करोड़ के आंकड़े को छू जाने की उम्मीद है। इतना ही नहीं, भारत इंटरनेट की सुस्त रफ्तार की समस्या से भी परेशान है।
इस मामले में भारत एक सौ चौंतीस देशों की सूची में एक सौ उनतीसवें स्थान पर है जो पड़ोसी पाकिस्तान, श्रीलंका से भी पीछे है। कोरोना काल में इस मामले में भी सुधार तेजी से होता दिखाई तो दिया, मगर देश की ढाई लाख पंचायतें और साढ़े छह लाख गांवों में शत-प्रतिशत इंटरनेट पहुंच कब बनेगी, इसका कोई अंदाजा नहीं है। हालांकि सरकारी नीतियों और बयानबाजियों में इसका सही जवाब मिल जाएगा। उससे स्पष्ट है कि विद्यार्थियों की एक बड़ी संख्या ई-शिक्षा से वंचित रह गई। पड़ताल यह बताती है कि देश में सभी तरह के यानी केंद्रीय, राज्य, डीम्ड और निजी सहित हजार से अधिक विश्वविद्यालय हैं। इसके अलावा चालीस हजार से अधिक महाविद्यालय भी हैं जहां से हर साल लगभग चार करोड़ छात्र स्नातक की डिग्री पाते हैं।
डिजिटलीकरण को कितने भी बड़े पैमाने पर व्यापक रूप दे दिया जाए, मगर अंतिम व्यक्ति तक इसका लाभ तभी पहुंच पाएगा जब यह कहीं अधिक सुलभ और सस्ता होगा। देखा जाए तो डिजिटल इंडिया, ई-लर्निंग के लिए करीब चार सौ करोड़ रुपए खर्च किए जाएंगे। शिक्षा के मापदंडों पर कई तकनीक आजमाई जा रही हैं और जिस तरह बीते दो वर्षों में शिक्षा क्षेत्र एक बड़े संघर्ष से जूझा है, उससे यह स्पष्ट हो चला है कि डिजिटल छलांग मौजूदा समय की पहली जरूरत बन गई है। सुशासन भी यही कहता है कि जो जनता को चाहिए, उसे उपलब्ध कराने में शासन को नहीं देर करनी चाहिए और न ही कोई मजबूरी जतानी चाहिए।
'सबके लिए डिजिटल शिक्षा' के लक्ष्य को हासिल करने के लिए बुनियादी शर्त यह है कि डिजिटल शिक्षा से जुड़ी आधारभूत संरचना का विकास तो किया ही जाए, साथ ही डिजिटल साक्षरता की दिशा में भी तेजी से कदम उठाए जाएं। अभी भारत में ई-शिक्षा अपनी शैशवावस्था में है। ई-शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए सरकार ने विभिन्न ई-लर्निंग कार्यक्रमों का समर्थन किया है। वैसे देखा जाए तो ई-शिक्षा को दो श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है। पहली श्रेणी के तहत एक ही समय में विद्यार्थी और शिक्षा अलग-अलग स्थानों से एक-दूसरे से शैक्षणिक संवाद करते हैं।
इसमें आडियो और वीडियो कांफे्रंसिंग, लाइव चैट और आभासी कक्षाएं शामिल हैं, जबकि दूसरी श्रेणी शैक्षणिक व्यवस्था में विद्यार्थी और शिक्षक के बीच संवाद करने का कोई विकल्प नहीं है। इसमें वेब आधारित अध्ययन होता है जिसमें विद्यार्थी किसी आनलाइन कोर्स, ब्लाग, वेबसाइट, वीडियो, ई-बुक आदि की मदद से शिक्षा प्राप्त करते हैं। ई-शिक्षा का माध्यम कुछ भी हो, लेकिन इसे फलक पर तभी पूरी तरह से लाया जा सकता है जब इस पर आने वाले खर्च को उठाना सहज हो। दो टूक यह भी है कि ई-शिक्षा भले ही तमाम फायदों से युक्त हो, मगर सेहत की दृष्टि से इसकी सीमा रहेगी। इतना ही नहीं कक्षा कार्यक्रम के अंतर्गत किए जाने वाले अध्ययन में जिस प्रकार का व्यक्तित्व विकास संभव होता है, उसकी भी घोर कमी इसमें रहेगी।