सम्पादकीय

नए कृषि कानूनों के फायदे गिनाने के बावजूद सरकार किसानों की आशंकाएं दूर करने में नाकाम

Gulabi
5 Dec 2020 10:11 AM GMT
नए कृषि कानूनों के फायदे गिनाने के बावजूद सरकार किसानों की आशंकाएं दूर करने में नाकाम
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किसानों की आशंकाओं को दूर करने में केंद्र सरकार अब तक रही असफल

जनता से रिश्ता वेबडेस्क। कृषि क्षेत्र में लाए गए तीन सुधारवादी कानूनों के विरोध में किसानों का एक वर्ग इन दिनों सड़कों पर आया है। इन किसानों को आशंका है कि इन कानूनों की आड़ में सरकार एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) पर फसलों की सरकारी खरीद और वर्तमान मंडी व्यवस्था से पल्ला झाड़कर कृषि बाजार का निजीकरण करना चाहती है।

हालांकि सरकार का कहना है कि इन तीन कानूनों से कृषि उपज की बिक्री के लिए एक नई वैकल्पिक व्यवस्था तैयार होगी जो वर्तमान मंडी एवं एमएसपी व्यवस्था के साथ-साथ चलती रहेगी। इससे फसलों के भंडारण, विपणन, प्रसंस्करण, निर्यात आदि क्षेत्रों में निवेश बढ़ेगा और साथ ही किसानों की आमदनी भी बढ़ेगी।

पहले कानून में किसानों को अधिसूचित मंडियों के अलावा भी अपनी उपज को कहीं भी बेचने की छूट प्रदान की गई है। सरकार का दावा है कि इससे किसान मंडियों में होने वाले शोषण से बचेंगे, किसानों की फसलों के ज्यादा खरीदार होंगे और उनको फसलों की अच्छी कीमत मिलेगी।

दूसरा कानून अनुबंध कृषि से संबंधित है जो बोआई से पहले ही किसानों को अपनी फसल तय मानकों और कीमत के अनुसार बेचने का अनुबंध करने की सुविधा देता है।

तीसरा कानून आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन से संबंधित है, जिससे अनाज, खाद्य तेल, तिलहन, दलहन, आलू और प्याज सहित सभी कृषि खाद्य पदार्थ अब नियंत्रण से मुक्त होंगे। इन पर कुछ विशेष परिस्थितियों के अलावा स्टॉक की सीमा भी अब नहीं लगेगी।


किसानों की आशंकाओं को दूर करने में केंद्र सरकार अब तक रही असफल

बहरहाल इन तमाम दावों के बावजूद किसानों की आशंकाओं को दूर करने में सरकार अब तक असफल रही है। अभी मंडियों में फसलों की खरीद पर 8.5 प्रतिशत तक टैक्स लगाया जा रहा है, परंतु नई व्यवस्था में मंडियों के बाहर कोई टैक्स नहीं लगेगा। इससे मंडियों से व्यापार बाहर जाने और कालांतर में मंडियां बंद होने की आशंका निराधार नहीं है। अत: निजी या सरकारी मंडी, दोनों ही व्यवस्थाओं में टैक्स के प्रावधानों में समानता होनी चाहिए।

किसान निजी क्षेत्र द्वारा भी एमएसपी पर फसलों की खरीद की वैधानिक गारंटी चाहते हैं

किसान निजी क्षेत्र द्वारा भी कम से कम एमएसपी पर फसलों की खरीद की वैधानिक गारंटी चाहते हैं। एमएसपी से नीचे फसलों की खरीद कानूनी रूप से वर्जित हो। किसानों की मांग है कि विवाद निस्तारण में उन्हें न्यायालय जाने की भी छूट मिले। सभी कृषि जिंसों के व्यापारियों का पंजीकरण अनिवार्य रूप से किया जाए। छोटे और सीमांत किसानों के अधिकारों और जमीन के मालिकाना हक का पुख्ता संरक्षण किया जाए। प्रदूषण कानून और बिजली संशोधन बिल में भी उचित प्रावधान जोड़कर किसानों के अधिकार सुरक्षित किए जाएं।

एमएसपी पर सरकारी खरीद की व्यवस्था किसानों के लिए महत्वपूर्ण प्रश्न है

दरअसल एमएसपी पर सरकारी खरीद की व्यवस्था किसानों के लिए बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न है। हमारे देश में 23 फसलों की एमएसपी घोषित होती है। इसमें मुख्य रूप से खाद्यान्न-गेहूं, धान, मोटे अनाज, दालें और तिलहन, गन्ना एवं कपास जैसी कुछ नकदी फसलें शामिल हैं। दूध, फल, सब्जियों, मांस, अंडे आदि की एमएसपी घोषित नहीं होती।
2019-20 में एमएसपी पर खरीदी जाने वाली फसलों में से गेहूं और चावल (धान के रूप में) दोनों को जोड़कर लगभग 2.15 लाख करोड़ रुपये मूल्य की सरकारी खरीद एमएसपी पर की गई। चावल के कुल 11.84 करोड़ टन उत्पादन में से 5.14 करोड़ टन यानी 43 प्रतिशत की एमएसपी पर सरकारी खरीद हुई।
इसी प्रकार गेहूं के 10.76 करोड़ टन उत्पादन में से 3.90 करोड़ टन यानी 36 प्रतिशत की सरकारी खरीद हुई। गन्ने की फसल की भी लगभग 80 प्रतिशत खरीद सरकारी रेट पर हुई।
इसी प्रकार कपास के कुल उत्पादन 3.55 करोड़ गांठों में से 1.05 करोड़ गांठों यानी लगभग 30 प्रतिशत की एमएसपी पर सरकारी खरीद हुई। दलहन और तिलहन की फसलों की भी एमएसपी पर कुछ मात्रा में सरकारी खरीद होती है। चूंकि अपनी कुल उपज का किसान स्वयं भी बहुत बड़ी मात्रा में उपभोग कर लेते हैं जिससे उनका सारा उत्पाद कभी भी बाजार में नहीं आता।
अत: यदि किसान द्वारा बाजार में बेची गई मात्रा के सापेक्ष सरकारी खरीद का आकलन करें तो उपरोक्त सरकारी खरीद का प्रतिशत और अधिक बढ़ जाता है।

एमएसपी पर सरकारी क्रय की व्यवस्था किसानों की जीवन रेखा है

इस प्रकार फसलों की सरकारी खरीद से करोड़ों किसान परिवार लाभान्वित होते हैं। जिन फसलों की एमएसपी पर बड़ी सरकारी खरीद होती है उनके दाम बाजार में भी संभले रहते हैं और निजी क्षेत्र के व्यापारी भी एमएसपी के आसपास ही दाम देने को मजबूर होते हैं। इस प्रकार एमएसपी पर सरकारी क्रय की व्यवस्था किसानों की जीवन रेखा है। जिन लोगों का यह कहना है कि एमएसपी को निजी क्षेत्र पर बाध्यकारी नहीं बनाया जा सकता, उन्हें गन्ने की अर्थव्यवस्था को समझना चाहिए। गन्ने का रेट सरकार घोषित करती है और उसी रेट पर निजी चीनी मिलें किसानों से खरीदती हैं। चीनी मिलें भी तरह-तरह के पैकेज सरकार से लेती रहती हैं। चीनी मिलों से चीनी की बिक्री का न्यूनतम रेट भी सरकार ने घोषित किया हुआ है। इसी प्रकार मजदूरों का शोषण रोकने के लिए सरकार न्यूनतम मजदूरी दर घोषित करती है। सरकार अपने राजस्व की सुरक्षा के लिए जमीनों का न्यूनतम बिक्री मूल्य एवं सेक्टर रेट घोषित करती है। ऐसे तमाम उदाहरण हैं जहां जनहित या वर्गहित में सरकार सेवाओं या वस्तुओं का मूल्य निर्धारित या नियंत्रित करती है तो किसानों की आर्थिक सुरक्षा के लिए फसलों का न्यूनतम मूल्य निर्धारित करने की भी कोई राह अवश्य तलाशी जा सकती है।

सरकार किसानों की मांगों का आकलन कर कोई उचित फैसला ले, तभी गतिरोध दूर हो सकेगा

हमारे देश में लगभग 30 करोड़ टन खाद्यान्न का वार्षिक उत्पादन हो रहा है जिसमें 75 प्रतिशत केवल गेहूं और चावल ही हैं। एक अनुमान के अनुसार किसान अपने परिवार के लिए खाद्यान्न रखने के बाद बाकी लगभग 20 करोड़ टन बाजार में बेच देते हैं। इसमें से लगभग 10 करोड़ टन सरकार खरीद लेती है, बाकी 10 करोड़ टन निजी व्यापारी खरीदते हैं। आशा है कि सरकार किसानों की मांगों का आकलन कर कोई उचित फैसला करेगी। तभी मौजूदा गतिरोध दूर हो सकेगा।


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