सम्पादकीय

परिसीमन का पेच : जम्मू कश्मीर का भूगोल ही नहीं वर्तमान-भूत और भविष्य सब बदलेगा

Tara Tandi
25 Jun 2021 10:12 AM GMT
परिसीमन का पेच : जम्मू कश्मीर का भूगोल ही नहीं वर्तमान-भूत और भविष्य सब बदलेगा
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नई दिल्ली में गुरुवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और कश्मीर के नेताओं के साथ हुई बैठक में एक बात क्लीयर हो गई है

जनता से रिश्ता वेबडेस्क | संयम श्रीवास्तव| नई दिल्ली में गुरुवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Modi) और कश्मीर के नेताओं (Kashmiri Leaders) के साथ हुई बैठक में एक बात क्लीयर हो गई है कि राज्य की विधानसभा सीटों का परिसीमन (Delimitation) होने के बाद ही प्रदेश में चुनाव होने वाले हैं. इस तरह कश्मीर से अनुच्छेद 370 (Artical 370) खत्म होने के बाद प्रदेश में अब विजिबल चेंज दिखने वाला है. दरअसल स्पेशल स्टेटस समाप्त होते ही स्टेट की विधानसभा सीटों के परिसीमन का रास्ता तैयार हो गया था, जिसे नेशनल कॉन्फ्रेंस सरकार ने 2026 तक के लिए कानून बनाकर टाल दिया था. लोकतंत्र का आधार समानता है और अगर समान रूप से रिप्रजेंटशन ही न हो तो कोई भी व्यवस्था लोकतांत्रिक नहीं हो सकती. जम्मू कश्मीर (Jammu And Kashmir) में आजादी के बाद से ऐसा ही हो रहा था. कम जनसंख्या और कम क्षेत्रफल के बावजूद घाटी के लोगों को जम्मू कश्मीर विधानसभा में अधिक रिप्रेजेंटेशन मिला हुआ है. यह असमानता अब नहीं चलने वाली है. यही कारण है कि प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला (Omar Abdullah) इसका विरोध कर रहे हैं.

दरअसल परिसीमन किसी भी राज्य या केंद्र शासित में लोकसभा और विधानसभा चुनाव के लिए क्षेत्र का निर्धारण करता है. परिसीमन द्वारा ही क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति को देखते हुए वहां का निष्पक्ष विभाजन सुनिश्चित किया जाता है. ताकि हर विधानसभा या लोकसभा सीट पर लगभग समान संख्या में मतदाता हों और राज्य में चुनाव होने पर किसी भी एक राजनीतिक दल को अपेक्षित बढ़त ना मिले. हालांकि जम्मू-कश्मीर में यह आखिरी बार 1995 में हुआ था. इसके बाद जम्मू-कश्मीर विधानसभा की सीटें 75 से बढ़कर 87 हो गईं. लेकिन इसमें ध्यान देने वाली बात ये है कि इसके बाद भी जम्मू के पास कश्मीर से ज्यादा सीटें थीं. इनमें 46 सीटें कश्मीर को मिलीं और 37 सीटें जम्मू को और लद्दाख को 4. यानि अगर लद्दाख और जम्मू को मिला भी दिया जाए तो जम्मू-कश्मीर में सरकार नहीं बन सकती थी, जबकि कश्मीर में इतनी सीटें थीं की वहां जीती पार्टी पूरे जम्मू-कश्मीर का नेतृत्व करती थी.

जबकि भौगोलिक दृष्टि से जम्मू और लद्दाख कश्मीर से कहीं बड़ा था. राज्य का 26 फीसदी हिस्सा जम्मू का था और 58 फीसदी हिस्सा लद्दाख का जबकि जम्मू के पास महज़ 16 फिसदी हिस्सा ही है. लेकिन अब जब पीएम मोदी ने यह कह दिया है कि परिसीमन के बाद ही राज्य में चुनाव होंगे, तो घाटी के नेताओं को मिर्ची लगने लगी है क्योंकि उन्हें पता है कि अगर परिसीमन हुआ तो जो उन्होंने घाटी में ही पूरे बहुमत का आंकड़ा ले रखा है वो चला जाएगा और जम्मू के लोग भी सरकार बनाने में भागीदीरी पेश कर पाएंगे. यही वजह रही कि पीएम मोदी के साथ बैठक के बाद उमर अब्दुल्ला ने कहा कि हम सभी ने परिसीमन का विरोध किया है. हालांकि गुरुवार को कश्मीर के नेताओं के साथ दिल्ली में प्रधानमंत्री मोदी, गृहमंत्री अमित शाह और जम्मू-कश्मीर के उपराज्यपाल मनोज सिन्हा के साथ जो बैठक हुई उससे एक संदेश तो निकल कर आया की अब जम्मू कश्मीर में फिर से लोकतंत्र बहाली पर कदम बढ़ाए जा रहे हैं.
परिसीमन को लेकर विरोध क्यों?
परिसीमन को लेकर घाटी के नेता यानि मुफ्ती और अब्दुल्ला परिवार हमेशा से विरोध करते आए हैं. यहां तक कि 2002 में फारुख अब्दुल्ला सरकार ने तो विधानसभा में एक ऐसा कानून लाकर जम्मू-कश्मीर में परिसीमन की प्रक्रिया को 2026 तक रोक दिया था. दरअसल 2002 में नेशनल कॉन्फ्रेंस की फारुख अब्दुल्ला सरकार ने जम्मू-कश्मीर रिप्रेजेंटेशन ऑफ द पीपल एक्ट 1957 और जम्मू-कश्मीर के संविधान के सेक्शन 42 (3) में बदलाव कर दिया था. सेक्शन 42 (3) के बदलाव के तहत यह कहा गया कि 2026 के बाद जब तक जनसंख्या के सही आंकड़े सामने नहीं आते तब तक विधानसभा की सीटों में बदलाव नहीं किया जाएगा. अब्दुल्ला को मालूम था कि 2026 के बाद जनगणना 2031 में होगी इसलिए उन्होंने 2026 तक रोक लगाई ताकि यह रोक अपने आप 2031 तक लग जाए. यह सब कुछ सिर्फ इसलिए किया गया ताकि जम्मू-कश्मीर विधानसभा में जम्मू और लद्दाख का कद ना बढ़े. हालांकि 5 अगस्त 2019 को मोदी सरकार ने जम्मू-कश्मीर से उसके स्पेशल स्टेट का दर्जा वापस ले लिया और उसे यूटी में बदल दिया.

अब जब जम्मू-कश्मीर में फिर से परिसीमन की बात चल रही है तब घाटी के नेता फिर से इसका विरोध करने लगे हैं. इस विरोध में उनका सबसे बड़ा तर्क है कि घाटी में एससी सीटों को आरक्षण ना दिया जाए क्योंकि कश्मीर में 94.4 फीसदी मुसलमानों की आबादी है, ऐसे में एससी सीट होने से उन्हें इसका फायदा नहीं मिलेगा. वहीं परिसीमन के बाद अब राज्य में 87 से बढ़कर विधानसभा सीटें 90 हो जाएंगी. इसे बढ़े हुए संख्या का ज्यादा हिस्सी जम्मू को मिलने की बात कही जा रही है. इस वजह से भी गुपकार के नेता इसका विरोध कर रहे हैं.
परिसीमन के बाद बहुत कुछ बदल जाएगा
जम्मू कश्मीर में परिसीमन के बाद बहुत कुछ बदलने वाला है, जैसा कि उम्मीद है जम्मू कश्मीर विधानसभा में जम्मू को भी बराबरी का हक मिलेगा. जिससे पूरी उम्मीद बन रही है कि भविष्य में शायद जम्मू कश्मीर को कोई हिंदू मुख्यमंत्री मिले. 1947 में जब जम्मू और कश्मीर का भारत में विलय हुआ तब जम्मू और कश्मीर में महाराजा हरि सिंह का शासन था, लेकिन घाटी में जो पाकिस्तान से सटा इलाका था वहां मुसलमानों की जनसंख्या ज्यादा थी और उनके नेता थे शेख अब्दुल्ला. शेख अब्दुल्ला फारुख अब्दुल्ला के पिता थे, जब जम्मू कश्मीर में प्रधानमंत्री बनाने की बात आई तब तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने जम्मू कश्मीर का प्रधानमंत्री महाराजा हरि सिंह की बजाय शेख अब्दुल्ला को 1948 में नियुक्त किया. कश्मीर की हालत यहीं से बिगड़ने लगी इसके बाद 1951 में जम्मू और कश्मीर विधानसभा का गठन हुआ और शेख अब्दुल्ला ने उसका नेतृत्व किया.

कश्मीर घाटी को 43 विधानसभा सीट और जम्मू को 30 विधानसभा सीटें दी गईं. उस वक्त जम्मू की जनसंख्या कश्मीर से कहीं ज्यादा थी, लेकिन इसके बावजूद भी कश्मीर को जम्मू से 13 विधानसभा सीटें ज्यादा दी गईं. ताकि जम्मू कश्मीर का शासन घाटी से ही चलता रहे. हालांकि 5 अगस्त 2019 को केंद्र सरकार ने जम्मू कश्मीर से विशेष राज्य का दर्जा वापस ले लिया, जिसके बाद वहां के सभी स्पेशल कानून स्वत: ही खारिज हो गए.
अब्दुल्ला और मुफ्ती परिवार की राजशाही खत्म हो जाएगी
जम्मू कश्मीर की सियासत में दो ही राजनीतिक पार्टियां हैं जो ज्यादातर जम्मू कश्मीर की सरकार चलाती हैं. इसमें पहली पार्टी है फारुख अब्दुल्ला की नेशनल कॉन्फ्रेंस और दूसरी है महबूबा मुफ्ती की पीडीपी. यही दो परिवार दशकों से जम्मू कश्मीर की सियासत को चलाते आए हैं. यही वजह है कि जब केंद्र सरकार ने जम्मू कश्मीर से विशेष राज्य का दर्जा वापस लिया, तब भी इन दोनों परिवारों ने भारत सरकार का कड़ा विरोध किया. महबूबा मुफ्ती ने तो यहां तक कह दिया था कि अगर भारत सरकार ने जम्मू कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा वापस नहीं दिया तो घाटी में कोई भारत का झंडा उठाने वाला नहीं रहेगा. हालांकि उनके इस बयान के बाद भी जम्मू कश्मीर में शांति पूर्ण तरीके से उपराज्यपाल मनोज सिन्हा के देखरेख में शासन व्यवस्था चल रही है और तेजी से विकास कार्य हो रहे हैं. इससे जम्मू कश्मीर की जनता बेहद खुश है. गुरुवार को जब पीएम मोदी के साथ इन कश्मीरी नेताओं की बैठक हुई और परिसीमन पर बात चली तो उमर अब्दुल्ला ने इसका कड़ा विरोध दर्ज कराया, क्योंकि उमर अब्दुल्ला को पता है कि अगर परिसीमन होता है और जम्मू को ज्यादा हिस्सेदारी मिलती है तो भविष्य में उनका मुख्यमंत्री बनना नामुमकिन हो जाएगा. यही हाल महबूबा मुफ्ती का भी है.
जम्मू के साथ हो रहा अन्याय खत्म होगा
जम्मू कश्मीर जबसे भारत का हिस्सा हुआ है तब से जम्मू में रह रहे लोगों के साथ अन्याय हुआ है. किसी राज्य की जनता की ताकत होती है कि उसके वोट से सरकार बने, क्योंकि सरकार आपकी तभी सुनती है जब उसे पता हो कि आपके वोट से उसे फर्क पड़ने वाला है. लेकिन दशकों से जम्मू कश्मीर में बनने वाली सरकारों को पता था कि उन्हें जम्मू से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला है, क्योंकि घाटी की सीटों से ही जम्मू-कश्मीर विधानसभा में उन्हें बहुमत मिल जाता था. जबकि जम्मू डिवीजन में भी 10 जिले यानि कठुआ, जम्मू, सांबा, उधमपुर, रियासी, राजौरी, पुंछ, डोडा, रामबन और किश्तवाड़ आते हैं और कश्मीर में भी 10 ही जिले आते हैं, यानि अनंतनाग, कुलगाम, पुलवामा, शोपियां, बडगाम, श्रीनगर, गांदरबल, बांदीपोरा, बारामुला और कुपवाड़ा. लेकिन सीटों के हिसाब से देखा जाए तो जम्मू डिवीजन को महज़ 37 सीटें दी गई हैं और कश्मीर डिविजन को 46 सीटें. जबकि 44 सीटों पर ही जम्मू-कश्मीर विधानसभा का बहुमत साबित हो जाता है. 15 अक्टूबर 1947 से 5 मार्च 1948 यानि 142 दिनों तक 'मेहर चंद महाजन' जम्मू कश्मीर के इकलौते हिंदू मुख्यमंत्री रहे थे. उसके बाद से ही आज तक जम्मू कश्मीर की सियासत एक खास समुदाय के ही हाथ में रही है.


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