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- श्रेष्ठता की कसौटी
संगीता सहाय; हम अपने घरों, कार्यालयों में अक्सर ये बातें सुनते रहते हैं कि फलाने वर्ग या जाति के लोगों को कितना भी बड़ा पद या उपलब्धि हासिल हो जाए, वे अपनी पहचान से ऊपर नहीं उठ पाते। पता चल ही जाता है कि वे किस जाति और वर्ग से हैं। उनका रहन-सहन बदलना मुश्किल होता है। यही बात औरतों के संबंध में भी कही जाती है। उनके औरतपने पर आक्षेप किया जाता है। यह टिप्पणी की जाती है कि लाख कोशिश कर लो, जो हो, वही रहोगी। यह तक कह दिया जाता है कि इन्हें कितना भी सम्मान और अधिकार मिल जाए इनकी पहचान नहीं बदल सकती। यहां पहचान का प्रयोग नकारात्मक संदर्भ में किया जाता है।
गौरतलब है कि कोई भी इंसान, वह स्त्री हो या पुरुष, जिस पारिवारिक और सामाजिक वातावरण में जन्म लेता है, उसका आचरण और व्यवहार बहुत हद तक उसी के अनुरूप होता है। शिक्षा-दीक्षा उसमें परिवर्तन तो लाती है, पर उसकी पहचान नहीं बदलती। यह बात मनुष्य-मात्र पर लागू होता है। पर ध्यान देने की बात यह है कि इस संदर्भ में बात जब कथित रूप से किसी सक्षम और शक्तिसंपन्न वर्ग की होती है, तो वह इस पर गर्व करता है।
अपने संस्कारों की श्रेष्ठता की बात करता है। वहीं जब कमजोर वर्ग की बात होती है, तो इसे बेचारगी का विषय बना दिया जाता है। उसके जीवन की राहों और रहन-सहन को नकारात्मक संस्कारों से जोर दिया जाता है। जबकि यह मानी हुई बात है कि इस गतिशील धरती के समान ही मनुष्य का जीवन भी गतिशील और परिवर्तनशील है। कोई व्यक्ति आज जैसा है, जरूरी नहीं कि वह कल भी वैसा ही रहे।
हम जिस वातावरण में जन्म लेते हैं, पलते-बढ़ते हैं, लगभग उसी के अनुरूप हमारा आचार-व्यवहार भी होता है। इस प्रकार संस्कार भी स्थायी नहीं होता। मनुष्य की शिक्षा-दीक्षा, परिवेश, व्यवहार आदि से उसमें परिवर्तन आता रहता है। हम अक्सर देखते सुनते हैं कि एक साधारण मजदूर के घर जन्मा और पला-बढ़ा बच्चा भी बड़े विद्वान के रूप में सामने आता है। कई बार शिक्षित तथा उच्चपदस्थ माता-पिता की संतान भी योग्य नहीं बन पाते हैं। किसी खास वर्ग या परिवार में पैदा होने से ही मनुष्य गुणी नहीं हो जाता।
माता-पिता के गुण बच्चों में आते हैं, पर यह सत्य भी उतना ही बड़ा है कि गुणी लोग किसी खास वर्ग में ही नहीं होते। परिस्थितियां किसी को सक्षम बना देती है तो किसी को असक्षम। जन्मना कोई भी किसी से श्रेष्ठ या बड़ा नहीं है। मनुष्य-मात्र समान और बराबर है और वह अपने गुणों से श्रेष्ठ और महान बनाता है। इसलिए समानता और बराबरी का अधिकार हर हाल में सभी को मिलना चाहिए।
अक्सर यह प्रश्न उठता है कि एक स्त्री अपने आप को मनुष्य न मानकर मात्र औरत के रूप में ही प्रस्तुत करती है। वहीं तक अपने को सीमित रखती है। दरअसल, औरत को परंपराओं और नियमों के जाल में बांधकर सदैव से उसके हदों को सीमित रखने की कोशिश की गई है। कभी कथित ईश्वर का भय दिखाकर और कभी अन्य तरीकों और अनगिनत कुचक्रपूर्ण चालों द्वारा उसे मनुष्य मानने से ही इनकार किया जाता रहा।
उसे सिर्फ जरूरतों की पूर्ति का साधन बना दिया गया। चूंकि उसके साथ सब कुछ उसके स्त्री होने के कारण हुआ, तो ऐसे में अपनी तमाम उपलब्धियों के बावजूद वह खुद को पहले मनुष्य न मानकर, स्त्री मानती रही है। बड़ी बात यह भी है कि स्त्री होने के कारण ही उसने अपनी जिजीविषा और आत्मचेतना की बदौलत अपनी स्व की पहचान को बचाए और बनाए रखा है। और तमाम बंदिशों के बावजूद जो चाह रही है, वह प्राप्त कर रही है।
ये सारी बातें उन वर्गों पर भी लागू होती हैं, जिन्होंने कालांतर में अवमानना और अपमान का दंश झेला है। उन्हें भी मनुष्य मानने से इनकार किया गया और कुछ मुट्ठी भर लोगों की जरूरतों की पूर्ति का साधन बना दिया गया। आज भी गाहे-बगाहे ऐसी घटनाएं देखने-सुनने को मिल जाती हैं। इसीलिए विकास के इस दौर में भी वर्ग विशेष के कुछ लोग उस खाने से निकल नहीं पाते हैं। यह एक मनोवैज्ञानिक विषय है। ठीक वैसा ही जैसे कि इस वैज्ञानिक सत्य को जानने के बावजूद कि जातीय श्रेष्ठता नामक कोई चीज होती ही नहीं है, फिर भी लोग अपने श्रेष्ठ होने के मुगालते में डूबे रहते हैं। वे अपने को आम मनुष्य न मानकर किसी कथित बड़ी जाति के होने की आत्ममुग्धता में लिप्त रहते हैं।
वास्तविकता यह है कि सभी मनुष्य समान हैं। संविधान और कानून के द्वारा उसे समान रूप से आगे बढ़ने और जीने का अधिकार हासिल है। स्त्री हो या पुरुष, सभी अपनी क्षमता और समझ से कुछ भी प्राप्त कर सकते हैं। वर्ग और जातीय श्रेष्ठता की बातें मनुष्य और समाज पर आरोपित हैं। इसी मिथ्या आरोपण को अत्यंत चालाकी से सत्य का जामा पहनाकर सदियों से लोगों को छला जाता रहा है। जरूरत इसी बात को जानने, समझने और इसके भेद को खोलने की है। इसमें सबसे बड़ी भूमिका मनुष्य की आत्मचेतना की है।