सम्पादकीय

कोर्ट-कचहरी : अनुभव से उपजी सीजेआई रमन की टिप्पणी- 'प्रक्रिया ही सजा है', इन कहानियों में झलकती है..

Neha Dani
24 July 2022 1:46 AM GMT
कोर्ट-कचहरी : अनुभव से उपजी सीजेआई रमन की टिप्पणी- प्रक्रिया ही सजा है, इन कहानियों में झलकती है..
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इसलिए जस्टिस रमन ने जो कहा, उस पर मैं यकीन करता हूं।

हमारी आपराधिक न्याय प्रणाली में प्रक्रिया ही सजा है। जल्दबाजी में मनमाने ढंग से की जाने वाली गिरफ्तारियों से लेकर कठिनाई से जमानत हासिल करने तक की प्रक्रिया के कारण विचाराधीन लोगों को लंबे समय तक जेल में रहने की समस्या की ओर तत्काल ध्यान दिए जाने की जरूरत है...यह एक गंभीर मुद्दा है कि पूरे देश भर के 6,10,000 बंदियों में से 80 फीसदी विचाराधीन हैं...समय आ गया है, जब इन प्रक्रियाओं पर विचार किया जाए जिनके कारण बिना किसी सुनवाई के इतने लंबे समय तक जेल में रहना पड़ता है' - एनवी रमन, भारत के प्रधान न्यायाधीश


जस्टिस रमन ने 17 सालों तक वकालत की है और वह 22 सालों से जज हैं। वह 'आपराधिक न्याय देने' के नाम पर अदालतों में क्या चल रहा है, उससे अपरिचित नहीं हैं। उन्होंने आरोपियों के परिजनों, वकीलों, नागरिक समाज के कार्यकर्ताओं, पत्रकारों और चिंतित नागरिकों के साथ भी बातचीत की होगी और सैकड़ों त्रासद कहानियां सुनी होंगी। इस लेख का मकसद आपसे कुछ ऐसी ही कहानियों का साझा करना है।


बिना सुनवाई के जेल में
मौजूदा समय में भीमा कोरेगांव मामले के 16 अभियुक्तों की कहानी से अधिक चौंकाने वाली कोई और कहानी नहीं है। एक जनवरी, 2018 को- जैसा कि हर वर्ष इस दिन होता है- भीमा कोरेगांव की लड़ाई की 200 वीं जयंती मनाने के लिए भीमा कोरेगांव में एक सभा (इसमें दलित संगठनों के सदस्यों थे) हुई। भीड़ द्वारा सभा पर हिंसा और पथराव किया गया, जिसे कथित तौर पर दक्षिणपंथी समूहों द्वारा उकसाया गया था। एक व्यक्ति की मौत हो गई और पांच लोग घायल हो गए। राज्य सरकार (भाजपा) की जांच ने दिलचस्प मोड़ ले लिया। छह जून, 2018 को राज्य पुलिस ने दलित और वामपंथी मुद्दों के प्रति सहानुभूति रखने वाले पांच लोगों को गिरफ्तार कर लिया। आने वाले महीनों में कुछ और गिरफ्तारियां की गईं। गिरफ्तार लोगों में एक वकील, एक कवि, एक पादरी, लेखक, प्रोफेसर और मानवाधिकार कार्यकर्ता शामिल थे। 2019 के चुनावों के बाद वहां गठबंधन (गैरभाजपा) सरकार ने सत्ता संभाली। पक्षपातपूर्ण जांच के आरोपों के जवाब में राज्य सरकार ने इस मामले की दोबारा जांच के लिए एसआईटी (विशेष जांच दल) गठित कर दी। दो दिनों के भीतर ही केंद्र सरकार (भाजपा) ने दखल दिया और इस मामले को एनआईए को स्थानांतरित कर दिया! अनेक याचिकाओं के बावजूद आरोपियों को जमानत देने से इनकार कर दिया गया।

84 वर्षीय पादरी फादर स्टेन स्वामी की पांच जुलाई, 2021 को जेल में मौत हो गई। सिर्फ 82 वर्षीय जाने-माने कवि वरवर राव ही 22 सितंबर, 2021 से अंतरिम चिकित्सकीय जमानत पर हैं। जेएनयू के पीएच.डी. के छात्र शरजील इमाम को दिसंबर, 2019 में सीएए विरोधी आंदोलन के दौरान जामिया मिल्लिया इस्लामिया और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) में दिए गए उनके दो भाषणों के कारण गिरफ्तार कर लिया गया। दिल्ली में चल रहे मामले के अलावा असम, उत्तर प्रदेश, मणिपुर और अरुणाचल प्रदेश में भी वह आरोपों का सामना कर रहे हैं। वह 28 जनवरी, 2020 से जेल में हैं और उन्हें जमानत नहीं मिली। जेएनयू के पूर्व छात्र तथा कार्यकर्ता उमर खालिद को फरवरी, 2020 के दंगों के सिलसिले में 14 सितंबर, 2020 को गिरफ्तार किया गया। उन्हें भी जमानत देने से इनकार कर दिया गया। केरल के जाने-माने पत्रकार सिद्दीकी कप्पन को उस समय गिरफ्तार कर लिया गया जब वह हाथरस (यूपी) बलात्कार मामले की पड़ताल और उसकी रिपोर्टिंग करने के लिए जा रहे थे। वह पांच अक्तूबर, 2020 से जेल में हैं और उन्हें जमानत नहीं दी गई।

क्या है कानून?
इस लेख का विषय यह नहीं है कि आरोप सही हैं या गलत। विषय यह है कि आरोपियों को जमानत क्यों नहीं दी जाती। जांच के दौरान आरोपी पूर्व-विचाराधीन होते हैं; अदालत में जब आरोप तय हो जाते हैं, तब वह विचाराधीन बन जाते हैं। आरोप तय होने से पूर्व सबूत एकत्र करने, आरोप तय करने, सुनवाई और पैरवी - नहीं भी हो सकता, यह मर्जी पर है- में कई साल लगेंगे। क्या सुनवाई पूरी होने तक आरोपी को जेल में रहना चाहिए? क्या सुनवाई-पूर्व जेल, सुनवाई, सबूत, दोषसिद्धि और सजा का विकल्प है? क्या यही है देश का कानून? यदि वास्तव में यही देश का कानून है, तो क्या यह कानून दोबारा नहीं लिखा जाना चाहिए या इसमें संशोधन नहीं होना चाहिए? जस्टिस रमन के व्यथित बयान के पीछे यही सवाल हैं। इनके जवाब सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित कानून में तलाशे जा सकते हैं।

चालीस साल पहले गुरुबख्श सिंह सिब्बिया (1980) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय की संविधान सभा ने एक कानून निर्धारित किया : 'दंड प्रक्रिया संहिता की विभिन्न धाराओं से जो सिद्धांत निकलता है, वह यह कि जमानत देना नियम है और इनकार अपवाद है।' 2014 में अर्नेश कुमार के मामले में कोर्ट ने कहा कि गिरफ्तार करने की शक्ति को व्यापक रूप से प्रताड़ना और उत्पीड़न का औजार माना जाता है और निश्चित रूप से इसे जनता का मित्र माना जाता है। 29 जनवरी, 2020 को सुशीला अग्रवाल के मामले में एक अन्य संविधान पीठ ने गुरबख्श सिंह सिब्बिया और अर्नेश कुमार मामलों के बचे जालों को साफ किया और स्वतंत्रता के अधिकार को बनाए रखने के लिए अदालतों की शक्ति और कर्तव्य की फिर से पुष्टि की : अपने आप को यह याद दिलाना उपयोगी होगा कि नागरिक जिन अधिकारों को गहराई से संजोते हैं, वे मौलिक हैं- न कि यह प्रतिबंध मौलिक हैं।

गहरा धब्बा
इसके बावजूद गिरफ्तारी के अधिकार का भारी दुरुपयोग होता है। इससे चिंतित सुप्रीम कोर्ट ने 11 जुलाई, 2022 को सतेंद्र कुमार अंतिल के मामले में कानून की स्पष्ट व्याख्या कर और 20 जुलाई, 2022 को मोहम्मद जुबैर के मामले में स्पष्ट आदेश देकर गिरफ्तारी के अधिकार पर अंकुश लगाने वाले फैसले दिए हैं। यह आपराधिक न्याय प्रणाली पर एक दुखद टिप्पणी है कि इन घोषणाओं के बावजूद भीमा कोरेगांव मामले के आरोपी, शरजील इमाम, उमर खालिद, सिद्दीकी कप्पन और हजारों अन्य लोग बिना दोषी ठहराए जेल में बंद हैं। इसलिए जस्टिस रमन ने जो कहा, उस पर मैं यकीन करता हूं।

सोर्स: अमर उजाला

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