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संयुक्त राष्ट्र की चेतावनी
डा. सुरजीत सिंह। एक बार फिर दुनिया जलवायु परिवर्तन पर चर्चा के लिए स्काटलैंड के ग्लासगो में एकत्रित होने जा रही है। ग्लासगो में कांफ्रेंस आफ पार्टीज यानी कोप-26 की वार्ता के बाद ही यह तय होगा कि मानवता की सबसे बड़ी चुनौती से निपटने के लिए कौन सा देश कितनी दूर जाने के लिए तैयार है? उम्मीद है कि कोप-26 में सम्मिलित होने वाले देश अधिक संवेदनशीलता का परिचय देंगे। इसके अनेक कारण हैं। सबसे पहला यह कि इस वर्ष विश्व के अलग-अलग देशों ने प्रकृति के रौद्र रूप को कभी तेज बारिश, कभी सूखा तो कभी बढ़ते तापमान के रूप में चरम पर देखा है।
अगस्त में संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट ने चेतावनी दी थी कि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के कारण ग्लोबल वार्मिग अगले दो दशकों में 1.5 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच सकती है। इसे यदि दो डिग्री सेल्सियस तक ही सीमित रखना है तो ग्रीनहाउस गैसों में 30 प्रतिशत तक कटौती करनी होगी। 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने के लिए 55 प्रतिशत की कटौती करनी होगी। जलवायु परिवर्तन पर काम नहीं करने की आर्थिक लागत भी बढ़ती जा रही है।
चीन, अमेरिका, ब्रिटेन सहित विश्व के लगभग सौ से अधिक देशों ने शून्य उत्सर्जन के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए उत्सर्जन में कटौती की अपनी योजनाएं प्रस्तुत कर दी हैं। जो बाइडन के नेतृत्व में अमेरिका ने पुन: जलवायु परिवर्तन के मुद्दों के प्रति अपनी सहमति व्यक्त करते हुए अपने अनुदान को बढ़ाकर 11.4 बिलियन डालर करने की बात कही है। भारत ने हमेशा ही ग्लोबल वार्मिग को रोकने के लिए अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त की है।
भारत का मत है कि कोप की विभिन्न बैठकों में विकसित देशों द्वारा जिन प्रतिबद्धताओं का वादा किया गया था, पहले उन्हें पूरा करने की बात होनी चाहिए। जैसे- 2015 में पेरिस समझौते के अंतर्गत अमीर देशों द्वारा जलवायु परिवर्तन के खतरों से निपटने में गरीब देशों की मदद करने के लिए सलाना सौ अरब डालर जुटाने के लक्ष्य को आज तक पूरा नहीं किया गया है। कार्बन क्रेडिट बाजार को मजबूत करने की दिशा में भी बहुत स्पष्ट कार्य नहीं हुआ है। भारत द्वारा जमा किए गए कार्बन क्रेडिट भंडार को विकसित देश क्योटो प्रोटोकाल की समाप्ति के कारण मान्यता देने के लिए तैयार नहीं हैं।
भारत एक उभरती अर्थव्यवस्था है, जहां वर्तमान में बुनियादी ढांचे में सबसे अधिक निवेश किया जा रहा है, जिससे ऊर्जा की मांग बढ़ती जा रही है। अन्य उभरती अर्थव्यवस्थाओं की भी यही मांग है कि विकास कार्यक्रम प्रभावित न हों, इसके लिए उन्हें स्वच्छ ऊर्जा और विकास से संबंधित तकनीकी का हस्तांतरण भी होना चाहिए। भारत में प्रति व्यक्ति उत्सर्जन विश्व औसत के आधे से भी कम है, जो अमेरिका के उत्सर्जन के आठवें भाग से भी कम है। विकासशील देशों का मत है कि विकसित देशों को कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए अधिकांश बोझ वहन करना चाहिए, जो वायुमंडल में 75 प्रतिशत से अधिक ग्रीनहाउस गैसों के लिए जिम्मेदार हैं। इसलिए वैश्विक कार्बन बाजार तंत्र बनाने की दिशा में नीतियां बननी चाहिए, जिससे गरीब देशों को जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए मदद की जा सके।
पेरिस समझौते में शामिल केवल पांच देशों ने ही कार्बन उत्सर्जन शून्य करने के लिए कानून पारित किया है, परंतु प्रत्येक देश के लिए शून्य कार्बन उत्सर्जन की परिभाषा भी अपने-अपने हिसाब से है। क्लाइमेट वाच के आंकड़ों के अनुसार केवल पांच देशों ने ही अंतरराष्ट्रीय परिवहन (वायु और समुद्री) को अपने लक्ष्य का हिस्सा बनाया है। यूरोपीय संघ ने कहा कि वह सभी ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन रोकेगा। चीन ने अपने लक्ष्य में केवल कार्बन डाईआक्साइड के उत्सर्जन को शून्य बनाने की बात कही है। मीथेन और नाइट्रस आक्साइड को इसका हिस्सा ही नहीं बनाया है।
भारत ने उत्सर्जन की कोई सीमा निर्धारित नहीं की है। इसके बावजूद वह शून्य कार्बन उत्सर्जन की दिशा में निरंतर प्रयत्नशील है। 2005 से 2014 तक भारत में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन की तीव्रता में 21 प्रतिशत की गिरावट आई है। हालांकि विकास के आधार को मजबूत करने के लिए भारत के विनिर्माण क्षेत्र को 2025 तक सकल घरेलू उत्पाद का 25 प्रतिशत तक करने का लक्ष्य है, जिसका सीधा असर जलवायु क्षेत्र में परिवर्तन पर भी होगा। इसके लिए भारतीय उद्योगों को ऊर्जा के हरित तौर-तरीकों को अपनाने की दिशा में निरंतर अग्रसर होना होगा। अक्षय ऊर्जा को स्थानीय और नगर निगम के स्तर पर बढ़ावा दिया जाना चाहिए। कार्बन टैक्स के साथ-साथ पर्यावरण के लिए अनुकूल औद्योगिक समाधान को बढ़ावा देने की भी जरूरत है। वनाच्छादित क्षेत्र को बढ़ाने के साथ-साथ इलेक्टिक वाहनों और हाइडोजन मिशन की दिशा में बहुत कार्य किए जाने की आवश्यकता है।
आज दुनिया के सभी देशों के लिए जलवायु परिवर्तन पर ठोस कदम उठाने से अधिक और कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं है। हमारे पास इस सुंदर ग्रह को बचाने के लिए अभी भी समय है। 2050 तक के लक्ष्य को हासिल करना वर्तमान समय की एक बहुत बड़ी चुनौती है। इसके लिए वार्ताकारों और विश्लेषकों को वैश्विक तापमान वृद्धि को एक सीमित स्तर पर लाने के लिए 2030 के लक्ष्य पर स्वयं को अधिक केंद्रित करना चाहिए। इसमें सरकारों और विश्व नेताओं की महत्वपूर्ण भूमिका के अलावा मीडिया और संगठनों की भी प्रतिभागिता को बढ़ावा दिया जाना चाहिए। जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से धरती को बचाने के लिए ग्लासगो से पूरे विश्व की एकजुटता का संदेश ही आना चाहिए, नहीं तो धरती को बचाने में और देर हो जाएगी।
(लेखक अर्थशास्त्र के प्रोफेसर हैं)
Gulabi
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