सम्पादकीय

विरोध और विरोधाभास

Neha Dani
26 Nov 2020 2:15 AM GMT
विरोध और विरोधाभास
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कृषि कानूनों के विरोध में एक बार फिर बड़ी तादाद में किसान सड़कों पर उतर आए हैं |

जनता से रिश्ता वेबडेसक| कृषि कानूनों के विरोध में एक बार फिर बड़ी तादाद में किसान सड़कों पर उतर आए हैं और वे दिल्ली की तरफ आगे बढ़ रहे हैं। इसमें देश भर के किसान संगठन हिस्सा ले रहे हैं। पंजाब से दिल्ली की तरफ बढ़ते इन किसानों को रोकने के लिए हरियाणा सरकार ने अगले दो दिन के लिए राज्य की सीमाएं बंद कर दी हैं। इसके पहले भी किसान दिल्ली पहुंचे थे और राजपथ पर उग्र प्रदर्शन किया था। पंजाब से किसान इसलिए दिल्ली की तरफ कूच करने में सफल हो पा रहे हैं कि वहां कांग्रेस की सरकार है और वह खुद केंद्र के इन कानूनों का विरोध कर रही है। जिन प्रांतों में भाजपा की सरकारें हैं, वहां किसानों को सख्ती से रोकने का प्रयास किया जा रहा है।

हरियाणा में भी किसान इन कानूनों के खिलाफ लामबंद हैं, पर वहां उन पर सख्ती से अंकुश लगाने की कोशिश की जा रही है। पर पुलिस बल के जरिए किसानों को धरने-प्रदर्शन से रोक कर सरकारें उनके आक्रोश को कितना दबा पाएंगी, कहना मुश्किल है। केंद्र और भाजपा शासित राज्य सरकारें बार-बार दलील दे रही हैं कि कृषि कानून किसानों के हित में हैं, पर इस बात से किसान संतुष्ट नहीं हो पा रहे, तो जाहिर है कि कहीं न कहीं कोई कमी या भ्रम जरूर बना हुआ है।

सार्वजनिक हित में कानून बनाना सरकारों का कर्तव्य है। मगर यह भी उनका दायित्व है कि अगर उन कानूनों को लेकर विरोध या असहमति के स्वर उभरते हैं, तो उन्हें सुना और उनमें मौजूद कमियों को दूर किया जाए। कृषि कानूनों में सबसे बड़ा विरोध किसान मंडियों को खत्म करने को लेकर हो रहा है। किसानों को लग रहा है कि इस तरह कृषि उत्पाद का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय होना बंद हो जाएगा और निजी कंपनियां मनमाने तरीके से दरें तय करने लगेंगी।

हालांकि केंद्र सरकार कह चुकी है कि वह न्यूनतम समर्थन मूल्य समाप्त नहीं करेगी, पर किसानों को इस पर भरोसा नहीं हो पा रहा। यह ठीक है कि किसान मंडियां पूरे देश में प्रभावी नहीं हैं और न पूरे देश में बड़ी जोत के किसान हैं, जिन्हें किसान मंडियों के खत्म होने से नुकसान उठाना पड़Þ सकता है। मगर नए कानूनों से निजी कंपनियों को लाभ मिलने की आशंका पैदा हो गई है, तो इसके समाधान के लिए प्रयास होने ही चाहिए। पहले ही कृषि उत्पादों पर निजी कंपनियों की दखल बढ़ने से महंगाई पर काबू पाना कठिन बना हुआ है, इसे लेकर सरकारों की भी चिंता होनी चाहिए।

किसी कानून या फैसले पर असहमति या विरोध हर नागरिक का लोकतांत्रिक अधिकार है। उससे निपटने का तरीका यह नहीं हो सकता कि दमन का रास्ता अख्तियार किया जाए। किसान नेताओं के साथ मिल-बैठ कर उनकी बातें सुनी जाएं और कानूनों में रह गई कमियों को दूर किया जाए। अगर किसानों को किन्हीं बिंदुओं पर भ्रम बना हुआ है, तो उसे दूर करना भी सरकार की ही जिम्मेदारी है।

जबसे यह कानून बना है, तभी से इसका लगातार विरोध हो रहा है। मगर यह समझना मुश्किल है कि सरकार इसे लेकर फैले भ्रमों को तार्किक ढंग से दूर करने के बजाय बल प्रयोग का सहारा क्यों ले रही है। सरकारों पर लोगों का भरोसा तभी बना रहता है, जब उनके फैसलों में पारदर्शिता होती है। ऐसा न हो तो उन पर विपक्षी दलों को अपनी राजनीतिक गोटियां बिठाने का मौका मिलता है और आम लोगों में असंतोष गाढ़ा होता है।

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