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सम्पादकीय
By NI Editorial
अगर केंद्रीय मंत्रिमंडल और सत्ताधारी पार्टी के संसदीय दल में ऐसे नेताओं के लिए भी जगह नहीं है, तो उसे अल्पसंख्यक तुष्टिकरण का नहीं, बल्कि अल्पसंख्यकों का नाकार ही समझा जाएगा।
मुख्तार अब्बास नकवी की केंद्रीय मंत्रिमंडल से विदाई भारत के उभर रहे नए रूप पर एक और मुहर है। सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी नकवी को आगे चाहे जैसी जिम्मेदारी दे, लेकिन केंद्रीय मंत्रिमंडल में एक भी मुसलमान का मंत्री ना रहना एक ऐसा संकेत है, जिसे इस देश के लिए अच्छा नहीं कहा जा सकता। असल में जो देश धर्मनिरपेक्ष नहीं हैं, वे भी अपने यहां अक्सर अल्पसंख्यक समुदायों को ऐसा संदेश देने की कोशिश करते हैं कि उस देश में वे अवांछित नहीं हैं। मगर भारत में भाजपा राज में लगातार यही संदेश दिया गया है। नकवी या भाजपा के दूसरे मुस्लिम नेता कभी भी अल्पसंख्यक पहचान पर जोर देने वाले नेता नहीं थे। बल्कि वे अल्पसंख्यक की वैसी ही धारणा के पोषक रहे हैं, जिसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा ने बनाना चाहा है। लेकिन अगर केंद्रीय मंत्रिमंडल और सत्ताधारी पार्टी के संसदीय दल में ऐसे नेताओं के लिए भी जगह नहीं है, तो उसे अल्पसंख्यक तुष्टिकरण का नहीं, बल्कि अल्पसंख्यकों का नाकार ही समझा जाएगा।
लोकसभा में तो पहले से ही भाजपा का कोई सदस्य नहीं था। राज्यसभा में अभी तक तीन सदस्य थे। इनमें से पूर्व केंद्रीय मंत्री एमजे अकबर का कार्यकाल 29 जून को और बीजेपी के राष्ट्रीय प्रवक्ता सैयद जफर आलम का कार्यकाल चार जुलाई को समाप्त हो गया। नकवी का कार्यकाल भी सात जुलाई को पूरा हो गया। इसके बाद भाजपा के पास पूरे देश में ना तो एक भी मुस्लिम सांसद बचा है और ना विधायक। दरअसल, भाजपा के इतिहास में भी ऐसा पहली बार हो रहा है। 2011 की जनगणना के मुताबिक भारत में करीब 15 प्रतिशत मुसलमान हैं। यह देश का सबसे बड़ा अल्पसंख्यक समुदाय है। इसके बावजूद उसका विधायिका में प्रतिनिधित्व सिमटता चला गया है। संसद में मुस्लिम सदस्यों का आंकड़ा 1970 और 1980 के दशकों में नौ प्रतिशत के ऊपर था। 2021 में यह पांच प्रतिक्षत पर पहुंच गया। स्पष्टतः ऐसा एक सुविचारित नीति का फलस्वरूप हुआ है। लेकिन यह नीति न सिर्फ मुस्लिम, बल्कि तमाम अल्पसंख्यक समुदायों में अनचाहा होने की धारणा पैदा करेगी। किसी समाज के लिए ऐसी प्रवृत्तियां उचित नहीं होती।
Gulabi Jagat
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