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- उदास समय में बदलती...
प्रतिभा कटियार: बहुत दिन हुए या कि बहुत दिन नहीं हुए। ऐसा लगता है कि समय कहीं ठहरा हुआ है। फिर लगता है ठहरा ही रहता तो भी ठीक होता शायद। कभी-कभी समझ में नहीं आता दुख है या उदासी। या दोनों ही हैं। हां, वही वजह जो होते हुए भी नहीं है। हाल में हिजाब एक मुद्दे के तौर सामने आया तो उसमें अपनी भूमिका को तलाशती हूं। क्या सोचती हूं, क्या चाहती हूं, किस तरफ हूं। जाहिर है, मैं किसी भी तरह की पर्देदारी की तरफ नहीं हूं, चाहे वो घूंघट हो या नकाब। मैं किसी भी तरह के ऐसे परंम्परागत पहनावे का समर्थन इसलिए नहीं करती ंकि उसे समाज ने ठीक माना है।
जिसे जो पहनना है, जैसे रहना है यह नितांत निजी मसला है। लेकिन जैसे ही यह 'निजी' की बात आती है इसमें ढेर सारी समाजीकरण की मानसिकता आ जाती है। ढेर सारा सामाजिक हिसाब-किताब, दबाव। और फिर वही बात कि हम नहीं जानते कि हमारी मर्जी बन कर जो हमारे भीतर है वह असल में समाज की पहले से सोची हुई, तय की हुई बात है, व्यवहार है। इस लिहाज से इस मसले पर समर्थन या समर्थन से निरपेक्षता की बात ही नहीं। जिसकी जो मर्जी हो, वह पहने। लेकिन जिसकी मर्जी न हो, उस पर कोई दबाव भी न बनाए। बदलाव अगर प्रक्रिया से होकर गुजरता है तो वह स्थायी और ठोस नतीजे देता है। अगर वह थोपा जाता है तो प्रगतिशील के बजाय प्रतिगामी रख अख्तियार कर ले सकता है।
अगर सच में कोई बदलाव चाहिए तो मर्जी को सच में उनकी ही मर्जी होने देना होगा। हम सब इसके शिकार हैं। हमारा पूरा आचरण, व्यवहार, खान-पान भाषा, बोली, लिबास, संस्कृति, त्योहार सब इसके दायरे में है। आज जब हिजाब को राजनीतिक उपयोग के लिए इस तरह चर्चा में लाया गया है तो उन सबके साथ ही पाती हूं जो हिजाब पहनने को अपना हक मानती हैं।
यह बिल्कुल वैसा ही है, जैसे सबरीमाला मंदिर में स्त्रियों के प्रवेश को लेकर बात थी। तब भी समझ नहीं आ रहा था कि मैं इन स्त्रियों के मंदिर में जाने की लड़ाई में साथ क्यों हूं, जबकि मेरी तो इस सबमें कोई आस्था नहीं है। बात वही है, सबके बराबर के हक की। लोकतांत्रिक व्यवहार की। हिजाब के खिलाफ जो हैं, वे क्या घूंघट के खिलाफ भी हैं? वे क्या चूड़ियों और सिंदूर के खिलाफ भी हैं? और क्यों होना है खिलाफ? समझ विकसित करनी है जिसके लिए शिक्षा की जरूरत पड़ेगी। शिक्षा जो पूर्वाग्रह आधारित न हो। 'अपनी मर्जी' की समझ विकसित होने दें, सवाल करना, तर्क करना किसी को खुद सीखने दें।
फिर खुद पर हैरत होती है। क्या इतने बड़े राजनीतिक चालबाजी का ऐसे मासूम सवालों से मुकाबला किया जा सकता है। होना तो यह था कि इल्म की रोशनी में हम सबको ऐसी तमाम रूढ़ियों, परंपराओं से मुक्त होना था, जिनका कोई अर्थ नहीं। लेकिन हुआ यह कि जिन रूढ़िगत ढांचों को गिराना था, उनकी पैरवी करनी पड़ रही है। कोई जरूरी नहीं कि जो हिजाब में है, उसकी सोच स्वतंत्र न हो। बिल्कुल वैसे ही जैसे कोई जरूरी नहीं कि जो लिबास और जबान से आधुनिक दिख रहा है, वह विचारों में, सोच में भी आधुनिक हो।
यही है असल राजनीति। हमारी लड़ाई ही बदल दे जो। हमारी खड़े होने की दिशा ही बदल दे कि जब हमें एक-दूसरे को समझना हो। एक-दूसरे के दुख पर मरहम रखना हो तब हम एक-दूसरे के प्रति नफरत से भर उठें। हाल में एक प्रसंग सुर्खियों में रहा कि कैसे जिन शिक्षिकों को सांप्रदायिकता की दीवारों को तोड़ना था, वे अपने संदेशों के जरिए उसे मजबूत में करने में सहभागी हैं। इन्हीं जैसे शिक्षकों के विद्यार्थी होंगे, वे जो वस्त्र और पहनावे के सवाल पर लड़कियों के खिलाफ भय और उन्माद फैलाते है। दुख होता है, उदासी होती है। कैसे हो गए हम। हमें ऐसा तो नहीं होना था।
हमारी लड़ाइयां तो कुछ और होनी थीं और उन्हें बना कुछ और दिया गया है। हम न लड़ें, तब भी उन्हीं की जीत है और हम बदल दिए गए हालात में बदले हुए मुद्दों के लिए लड़ें तो भी जीत उन्हीं की है। इस उदासी में एक ही उम्मीद है शिक्षा और शिक्षक। शिक्षकों को अपनी असल भूमिकाओं को समझना होगा, अपने व्यवहार, सोच और तरीकों को पलट-पलट कर देखना होगा कि कहीं जाने-अनजाने वे ऐसा कोई व्यवहार तो नहीं कर रहे जो एक पूरी पीढ़ी को उलझा रहा हो।
शिक्षा सिर्फ अंकपत्र में दर्ज नंबर भर नहीं होती। वह होती है जीवन को देखने की दृष्टि, मनुष्य होने की संवेदना। क्या हममें वह है? इस प्रश्न पर हम सब पढ़े-लिखे लोगों को एकांत में सोचने की जरूरत है। वरना सार्वजनिक मंचों पर तो सबसे ज्यादा असंवेदनशील लोगों ने अपने भाषणों से लोगों को खूब रुलाया है और तालियां बटोरी ही हैं।