विरोध के बहाने मनमानी: लोकतंत्र धरना-प्रदर्शन का अधिकार देता है, लेकिन मनचाही जगह पर कब्जा नहीं किया जा सकता
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सुप्रीम कोर्ट ने अपने उस फैसले पर फिर से विचार करने वाली याचिकाओं को ठुकरा कर बिल्कुल सही किया, जिसमें यह कहा गया था कि विरोध प्रदर्शन के नाम पर सार्वजनिक स्थलों पर कब्जे स्वीकार्य नहीं और पुलिस को ऐसे स्थल खाली कराने का अधिकार है। सुप्रीम कोर्ट ने यह फैसला दिल्ली के शाहीन बाग इलाके में सड़क घेर कर दिए जा रहे धरने को लेकर दिया था। करीब सौ दिनों तक चला यह धरना नोएडा को दिल्ली से जोड़ने वाली सड़क पर कब्जा करके दिया जा रहा था। यह हैरानी की बात है कि कुछ लोग यह जानते हुए भी पुनर्विचार याचिका लेकर सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए कि इस धरने ने दिल्ली और नोएडा के लाखों लोगों की नाक में दम कर रखा था और शाहीन बाग इलाके के तमाम व्यापारियों का धंधा भी चौपट कर दिया था। आखिर पुर्निवचार याचिकाएं दायर करने वालों को यह साधारण सी बात समझ में क्यों नहीं आई कि धरना-प्रदर्शन के नाम पर आम जनता को जानबूझकर तंग करने का अधिकार किसी को नहीं दिया जा सकता? ये पुनर्विचार याचिकाएं एक किस्म के दुराग्रह का ही परिचय दे रही हैं। यह अच्छा हुआ कि इन याचिकाओं को खारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा कि प्रदर्शन का मतलब हर जगह और कभी भी नहीं हो सकता। उसने यह भी स्पष्ट किया कि लंबे खिंचे प्रदर्शनों के लिए ऐसे सार्वजनिक स्थलों का घेराव नहीं हो सकता, जहां दूसरों के अधिकार प्रभावित होते हों। नि:संदेह ऐसा तभी होता है, जब विरोध के अधिकार की पैरवी करने वाले अपने कर्तव्य की अनदेखी कर देते हैं।