सम्पादकीय

13 अप्रैल: भारत को दर्द और खुशी देने वाली ऐसी तारीख जिसने देश की तकदीर-तस्वीर दोनों बदल डाली

Gulabi Jagat
13 April 2022 6:56 AM GMT
13 अप्रैल: भारत को दर्द और खुशी देने वाली ऐसी तारीख जिसने देश की तकदीर-तस्वीर दोनों बदल डाली
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भारत को दर्द और खुशी देने वाली ऐसी तारीख
संजय वोहरा।
आज का दिन यानि 13 अप्रैल (13 April) एक ऐसी तारीख है जिसे नज़रअंदाज़ करके आधुनिक भारत का इतिहास (History of Modern India) लिखा ही नहीं जा सकता, हालांकि विभिन्न कारणों से इस तारीख की अहमियत को जनमानस को समझने और समझाने की कवायद नहीं हुई है. भारतीय समाज के विभिन्न तबकों ने इसे सिर्फ अपने तक जोड़कर सीमित किए रखा. पंजाब (Punjab) के परिपेक्ष्य में देखा जाए तो यहां के लिए 13 अप्रैल से बड़ी कोई तारीख है ही नहीं. वो चाहे ऐतिहासिक पहलू हो, धार्मिक, सामाजिक या आर्थिक ही क्यों न हो. ये न सिर्फ 1947 में बंटवारे के बाद भारत के हिस्से में आए पंजाब, बल्कि उससे बहुत पहले वाले उस संयुक्त पंजाब के नज़रिए से भी कहा जा सकता है जिसका नाम असल में पांच नदियों रावी, व्यास, चिनाब, झेलम और सतलुज के पानी के कारण पड़ा.
ये बात तब की है जब मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब का शासन था. वर्ण व्यवस्था में बंटा भारतीय समाज शासन के अमानवीय आदेशों तक को मानने को मजबूर था. उसे अपने धार्मिक विश्वासों की भी बलि देनी पड़ रही थी. इस्लाम कबूल न करने पर यातनाएं देना और इससे बचना है तो जज़िया टैक्स से छूट मिलना जैसे हालात थे. वहीं सामंतवाद और ज़मींदारी प्रथा बेहद हावी थी. भक्तिकाल का ये उत्तरार्ध था. परिस्थितियां बिलकुल ऐसी नहीं थीं कि जनहित में कोई शासन के सामने अपनी जायज़ बात को भी अभिव्यक्त कर सके.
ऐसी कोशिश करने में पंजाब के आनंदपुर साहिब से दिल्ली गए सिखों के नौवें गुरु तेग बहादुर (Guru Tegh Bahadur) और उनके साथियों का शहादत के तौर पर हश्र समाज देख चुका था. उन्हीं दिनों यानि आज से 323 साल पहले 13 अप्रैल 1699 को पंजाब में एक ऐसी घटना हुई जिसने गुलामी के खिलाफ आवाज़ बुलंद करने वाले भारत के पहले क्रांतिकारी को समाज के सामने पेश किया. वो थे गुरु तेग बहादुर के ही पुत्र और सिखों के दसवें गुरु गोबिंद सिंह (Guru Gobind Singh). उन्होंने देश और धर्म की रक्षा के लिए समाज को खड़ा होने का आह्वान ही नहीं किया, सोच भी बदली. वहीं उससे भी आगे जाकर उन्होंने संदेश दिया कि यह काम समाज की किसी विशेष जाति या वर्ग का नहीं है बल्कि सबका है. उनका भी, जिनका युद्ध से कोई ताल्लुक नहीं रहा. असल में ये वो तबका था जिनको आज भी हम पिछड़ी जातियां मानते हैं.
खालसा पंथ की स्थापना
गुरु गोबिंद सिंह ने 13 अप्रैल 1699 को तख़्त श्री केसगढ़ साहब (श्री आनंदपुर साहब) में अलग-अलग जातियों की नुमायन्दगी करने वाले पांच सिंह तैयार किए जिन्हें 'पंज प्यारे' नाम दिया गया. इनके नाम के आगे 'भाई'और 'उपनाम' की जगह पर 'सिंह' लगाया. इन पंज प्यारों में भाई दया राम खत्री, भाई धरमचन्द जाट, भाई मोहकम चन्द धोबी, भाई हिम्मत राय कुम्हार तथा भाई साहिब चन्द नाई जाति से ताल्लुक रखते थे. यही नहीं ये भारत के अलग अलग क्षेत्रों से भी थे. सबने एक ही बर्तन में पानी और मीठे से तैयार अमृत पिया और उसी से बर्तन में बचा अमृत फिर गुरु गोबिंद सिंह ने पिया. ये एक ऐसी व्यवस्था स्थापित हुई जो आपसी भाईचारे, बराबरी और जातिगत भेदभाव खत्म करने वाली बनी जिसे 'खालसा पंथ' (शुद्ध पंथ) का नाम दिया गया.
एक तरह से ये पिछड़ी जातियों का सशक्तिकरण और जनवादी विचार था. पंज प्यारे एक अध्यात्मिक योद्धा की भूमिका में आए. इसी व्यवस्था की बदौलत समाज को इकट्ठा करके गुरु गोबिंद सिंह ने सेना तैयार की. इस सेना ने सामंतों, जागीरदारों और छोटे छोटे राजाओं से लड़ाइयां भी लड़ीं, ताकि उनसे गरीबों और मजलूमों को राहत मिले. इससे उनकी ख्याति और सेना की ताकत बढ़ी. गुरुगोबिंद सिंह की इसी सेना के ज़रिए अंतत: खालसा राज की स्थापना हुई, जिस परम्परा को महाराजा रंजीत सिंह ने बढ़ाया. मुग़ल शासन सिमट कर कमज़ोर पड़ गया. हालांकि वो बात अलग है कि कालान्तर में अंग्रेज़ों ने भारत पर कब्ज़ा कर लिया.
भारत में अंग्रेजी हुकूमत के खात्मे की शुरुआत
ब्रिटिश हुकूमत की भारत से विदाई में भी पंजाब में 13 अप्रैल को ही हुई हृदयविदारक एक घटना महत्वपूर्ण बनी. गुरु की नगरी कहलाने वाले अमृतसर के जलियांवाला बाग़ की ये घटना हिन्दुस्तान की अंग्रेजों से आज़ादी के संघर्ष की सबसे बड़ी त्रासदी वाली कही जा सकती है. वो वर्ष 1919 की 13 अप्रैल थी जब वैसाखी के दिन अंग्रेज़ अफसर कर्नल रेगिनाल्ड एडवर्ड हैरी डायर (col renigald edward harry dyer) के आदेश पर चली गोलियों ने उन सैंकड़ों लोगों की जान ली जो जनसभा में शामिल हुए थे. माना जाता है कि जालियां वाला बाग़ नरसंहार भारत में ब्रिटिश राज के लिए ताबूत की आखरी कील साबित हुआ. भारत के क्रांतिकारी और भगत सिंह के साथी रहे सरदार उधम सिंह ने इसका बदला इंग्लैंड में जाकर लिया. वहां उन्होंने पंजाब के लेफ्टिनेंट गवर्नर रहे अंग्रेज़ अधिकारी माइकल फ्रांसिस ओ डायर की सरेआम हत्या कर डाली. इस हमले में उधम सिंह ने दो और अधिकारियों को निशाना बनाया था. वो घायल ज़रूर हुए लेकिन जान बच गई थी. 13 अप्रैल की इसी घटना ने भगत सिंह के ज़हन में आज़ादी की चिंगारी जलाई थी.
हिन्दुस्तानी लाल सेना
भारत के एक अन्य प्रांत विदर्भ (अब महाराष्ट्र) के नागपुर में जलियांवाला नरसंहार की बरसी पर 13 अप्रैल 1939 को हिन्दुस्तानी लाल सेना का गठन किया गया था. बाद में उसी लीक पर चलते हुए सरदार मोहन सिंह ने आज़ाद हिन्द फ़ौज बनाई (indian national army) बनाई और जिसे नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने पुनर्गठित करके अंग्रेज़ी शासन के खिलाफ सशस्त्र युद्ध छेड़ा था. इस बारे में काफी लोग जानते हैं लेकिन हिन्दुस्तानी लाल सेना की गतिविधियों, भूमिका और इसे बनाने व चलाने वालों के बारे में बहुत कुछ लिखा पढ़ा नहीं गया. कम से कम आम भारतीय जनमानस में तो इससे जुड़ी जानकारियां कम ही हैं. हिन्दुस्तानी लाल सेना (indian red army) एक गुरिल्ला समूह था, जिसे मगनलाल बागड़ी और पंडित श्याम नारायण कश्मीरी ने अपने कुछेक साथियों को लेकर बनाया था.
1942 में 'अंग्रेजों भारत छोड़ो' के नारे के साथ महात्मा गांधी ने आंदोलन चालू किया तो उनको गिरफ्तार करके अहमदनगर किले की जेल में डाल दिया गया था. कई और नेता भी गिरफ्तार किये गए लिहाज़ा ये आन्दोलन नेतृत्व विहीन हो गया था. उस समय हिंदुस्तानी लाल सेना ने महात्मा गांधी के 'करो या मरो' सिद्धांत को धारण किया. लाल सेना के बिगुल मास्टर कृष्णराव काकड़े और उनके साथियों ने 13 अगस्त 1942 को नागपुर में विरोध जुलूस निकाला और मायो अस्पताल स्थित पोस्ट ऑफिस की तरफ बढ़ रहे थे, तब उनको अंग्रेज़ सैनिकों ने रोका. कृष्णा राव काकडे बंदूकधारी सैनिक के सामने सीना तान कर खड़े हुए और उसे गोली चलाने के लिए ललकारा था, 'हिम्मत है तो चलाओ गोली, मैं कोई भगौड़ा सैनिक नहीं हूं' इसके बाद सैनिक ने गोली उनके सीने में दाग दी थी. काकडे शहीद हो गये. यही नहीं उनके सीने को छेदकर पार करती हुई गोली पीछे खड़े मगन लाल बागड़ी की बांह में जा लगी थी. करो या मरो के नारे पर मर मिटने वाले कृष्णा राव काकड़े नागपुर के पहले शहीद थे.
यही नहीं हिन्दुस्तानी लाल सेना के दाजीबा महाले इसी आंदोलन में शहीद हुए, उनके नौजवान बेटे शंकर महाले ने भी आजादी हासिल करने और पिता की मौत का बदला लेने की ठान ली. उसी रात नागपुर में चिटणवीसपुरा पुलिस चौकी पर हमला किया गया. ये नौजवान लाठियों से लैस थे. हमले में एक सिपाही की जान गई. शंकर महाले और उनके साथियों को पकड़ लिया गया. उनमें से 13 के खिलाफ मुकदमा चला. शंकर और उनके चार साथियों को नागपुर जेल में फांसी की सज़ा दी गई. शंकर महाले का जन्म 18 जनवरी 1925 को हुआ था और उनको फांसी 19 जनवरी 1943 को दी गई थी यानि तब उनकी उम्र 18 साल 1 दिन थी. शंकर भारत की आजादी के आंदोलन की खातिर फांसी चढ़ने वाले सबसे कम उम्र के शहीद थे.
पंजाब के लिए ख़ास है बैसाखी
शुरू से ही कृषि आधारित अर्थव्यवस्था वाला भारतीय प्रांत पंजाब का सबसे पसंदीदा पर्व बैसाखी भी 13 अप्रैल को मनाया जाता है. इस दिन रबी की फसल खासतौर से गेहूं की बालियां पककर कटाई के लिए तैयार हो जाती हैं. फसल की कटाई का मतलब धन का आना. लिहाज़ा ये खुशी मनाने का मौका होता है. किसी भी नये काम के लिए पंजाब के समाज में 13 अप्रैल को शुभ दिन माना जाता है. खालसा नव वर्ष की शुरुआत भी इससे मानी गई, लेकिन इसे लेकर सिख समुदाय में हमेशा विवाद रहा है. वैसे 13 अप्रैल को गुरुद्वारों में विशेष अरदास होती है, नगर कीर्तन, मेलों और समागमों का आयोजन होता है. नदियों और सरोवरों में विशेष स्नान होते हैं, जिनका अलग महत्व माना जाता है.
अलग-अलग तरह से मनाते हैं बैसाखी
पंजाब ही नहीं पूरे भारतीय उपमहाद्वीप के लिए 13 अप्रैल को बैसाखी एक त्यौहार के तौर पर अलग-अलग तरीकों से मनाया जाता है. दिलचस्प है कि इतनी विविधता और विभिन्न संस्कृतियों वाले देश भारत में ये एकमात्र दिन ऐसा है जो किसी न किसी रूप में सब जगह उत्सव की शक्ल में मनाया जाता है.
केरल में मलयाली समुदाय विशु पर्व के तौर पर मनाता है जो मलयालम महीने मेडम की पहली तारीख होती है. केरल में धान की बुआई का काम भी इस अवसर पर शुरू कर दिया जाता है. असम में बैसाखी पर बोहाग बीहू (bohag bihu) या रोंगाली बिहू (rongali bihu) पर्व मनाया जाता है. ये असमिया नए साल की शुरुआत होती है. इस मौके पर सात दिन के उत्सव होते हैं. बिहार और नेपाल के मिथल क्षेत्र में जुड़ शीतल के तौर पर बैसाखी मनाई जाती है.
ये मैथिली पंचांग का पहला दिन है. बिहार में आज के दिन सत्तू और गुड़ खाया जाता है और दाल की पूरियां बनती हैं. शायद ये अकेला ऐसा त्यौहार है जिसमें बासी खाने की परंपरा है. पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा और बांग्लादेश में पाहेला बैशाख के तौर पर मनाते हैं तो तमिलनाडु में पुथांडु के तौर पर मनाते हैं जिसे पुथुवर्षम या तमिल नया साल भी खा जाता है. बैसाखी तमिल कैलेंडर में चिथराई मास का पहला दिन है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
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