सम्पादकीय

आखिर देश के सबसे पुराने राजनीतिक दल कांग्रेस की दुर्गति का जिम्मेदार कौन है?

Gulabi Jagat
30 March 2022 6:38 AM GMT
आखिर देश के सबसे पुराने राजनीतिक दल कांग्रेस की दुर्गति का जिम्मेदार कौन है?
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राजस्थान और छत्तीसगढ़ ही अब दो ऐसे राज्य हैं, जहां कांग्रेस की अपने दम पर सरकार बची है
बलबीर पुंज। आखिर देश के सबसे पुराने राजनीतिक दल कांग्रेस की दुर्गति का जिम्मेदार कौन है? कई जानकारों के अलावा अब पार्टी के भीतर भी इसके लिए गांधी परिवार को जिम्मेदार माना जा रहा है। यह निष्कर्ष सच तो है, किंतु यही पूरी सच्चाई नहीं। क्या इस संदर्भ में केवल गांधी परिवार को ही दोषारोपित करना उचित होगा? पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में हार के बाद सोनिया गांधी पार्टी की अंतरिम अध्यक्ष बनी हुई हैं। राहुल गांधी परोक्ष रूप से पार्टी के निर्णायक फैसले ले रहे हैं। तमाम कोशिश के बावजूद प्रियंका गांधी वाड्रा उत्तर प्रदेश में कांग्र्रेस की स्थिति में कोई सुधार नहीं कर पाईं। वस्तुत: परिवारवाद कांग्रेस की समस्याओं की जड़ है तो उसके बीज भी पार्टी ने ही बोए थे। इसकी शुरुआत जवाहरलाल नेहरू के दौर में हो गई थी। परिणामस्वरूप विगत साढ़े सात दशकों में एकाध अपवाद को छोड़ दिया जाए तो कांग्र्रेस के शीर्ष नेतृत्व पर गांधी परिवार ही काबिज रहा है। इसमें पिछले ढाई दशकों के दौरान पार्टी की राजनीतिक जमीन खिसकती ही गई। ऐसे में प्रश्न उठता है कि क्या नेतृत्व परिवर्तन से ही पार्टी का कायाकल्प संभव है?
हाल के वर्षों का राजनीतिक रुझान दर्शाता है कि जहां भी कांग्रेस तीसरे स्थान पर पहुंची, वहां वह दोबारा नहीं उभर पाई। दिल्ली इसका सबसे ताजा उदाहरण है। राजस्थान और छत्तीसगढ़ ही अब दो ऐसे राज्य हैं, जहां कांग्र्रेस की अपने दम पर सरकार बची है। राज्यसभा में उसके सदस्यों की संख्या सिमटकर 33 रह गई है। अपने आरंभिक काल में कांग्रेस में विविध विचारधारा वालों के लिए स्थान था। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, महामना मदनमोहन मालवीय, लाला लाजपत राय और गांधीजी, ये सभी भारत की सनातन संस्कृति से प्रेरणा पाते थे। गांधीजी की नृशंस हत्या के बाद जब कांग्रेस पर नेहरू का एकाधिकार हुआ, तो पार्टी के मूल सनातनी और बहुलतावादी चरित्र को धीरे-धीरे हाशिये पर धकेल दिया गया। इसमें रही-सही कसर इंदिरा गांधी ने पूरी कर दी। 1969 में जब कांग्रेस दो फाड़ हुई और तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सरकार अल्पमत में आई, तब संसद में उन्हें अपनी सरकार बचाने हेतु 41 सांसदों की आवश्यकता थी। इस कमी को वामपंथियों ने बाहरी समर्थन देकर पूरा किया। इंदिरा ने उन कम्युनिस्टों के सहारे अपनी सरकार बचाई, जिनका अपने उद्भव काल से एकमात्र एजेंडा भारत की सनातन संस्कृति, परंपरा और जीवनशैली पर प्रहार करना रहा। अपने इसी दर्शन के कारण वामपंथियों ने 1942 के 'भारत छोड़ो आंदोलन' में अंग्र्रेजों के लिए मुखबिरी की। गांधीजी, नेताजी आदि देशभक्तों को अपशब्द कहे। पाकिस्तान के जन्म में मुस्लिम लीग और अंग्रेजों के साथ मिलकर महती भूमिका निभाई। भारतीय स्वतंत्रता को अस्वीकार करके उसे 17 देशों का समूह माना। 1948 में भारतीय सेना के खिलाफ हैदराबाद के जिहादी रजाकरों के साथ, तो 1962 के भारत-चीन युद्ध में वैचारिक समानता के कारण चीन के पक्ष में खड़े रहे। इसके अतिरिक्त, 1967 में लोकतंत्र विरोधी नक्सलवाद को जन्म दिया।
जब 1971 के लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी ने प्रचंड बहुमत हासिल किया, तब तमाम वामपंथी न केवल कांग्रेस में शामिल हुए, बल्कि उन्हें शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण विभाग सौंपे गए। इसी दौर में कांग्रेस ने अपनी मूल गांधीवादी विचारधारा को वामपंथियों को 'आउटसोर्स' कर दिया, जो अब भी उससे केंचुली की भांति चिपकी हुई है। कांग्र्रेस का सार्वजनिक-व्यवहार उस घिसे-पिटे वामपंथी व्याकरण से निर्धारित हो रहा है, जिसमें उसका भी कोई दृढ़ विश्वास नहीं है। कांग्रेस ऐसा केवल इसलिए करने को विवश है, क्योंकि विचारधारा के मामले में वह पहले ही शून्य हो चुकी है। मैकाले चश्मा पहनी कांग्रेस जाने-अनजाने में तभी से वामपंथियों के साथ मुस्लिम लीग के अधूरे एजेंडे को आगे बढ़ा रही है। वह चाहे देश पर आपातकाल थोपना हो या शाहबानो मामले में मुस्लिम समाज में सुधार के प्रयासों को रोकना हो, परमाणु परीक्षण का विरोध करना हो या भगवान श्रीराम को काल्पनिक बताना हो, उनमें कांग्र्रेस की हिंदू विरोधी और मुस्लिम तुष्टीकरण की मानसिकता प्रत्यक्ष होती है। मानो इतना ही काफी नहीं। 2005-2011 के बीच केवल हिंदुओं को लक्षित करता 'सांप्रदायिक एवं लक्ष्य केंद्रित हिंसा निवारण अधिनियम' लाया गया। जेएनयू परिसर में भारत विरोधी नारों का समर्थन करने से लेकर सेना की सर्जिकल स्ट्राइक पर संदेह किया गया। ऐसे अंतहीन उदाहरणों की सूची लंबी है।
यदि कांग्र्रेस के सिकुड़ते जनाधार के लिए केवल गांधी परिवार ही जिम्मेदार है, तो क्या यह सत्य नहीं कि कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह, पी चिदंबरम और सुशील कुमार शिंदे आदि ने 'हिंदू/भगवा आतंकवाद' का हौवा खड़ाकर वामपंथी एजेंडे के अनुरूप विमर्श नहीं गढ़ा था? क्या सर्वोच्च न्यायालय में राम मंदिर के खिलाफ पैरवी करने वालों में कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल नहीं थे? क्या स्वदेशी कोविड-19 रोधी टीके की दक्षता पर सवाल उठाने वालों में शशि थरूर जैसे कांग्रेस नेता अग्रणी नहीं थे? 'द कश्मीर फाइल्स' का विरोध करते हुए कश्मीरी हिंदुओं के नरसंहार को 'प्रोपेगंडा' और हत्याओं के आंकड़ों को 'फर्जी' बताने की शुरुआत क्या कांग्रेस की केरल इकाई ने नहीं की?
मई 2014 में मिली करारी हार की पड़ताल के लिए गठित एके एंटनी समिति ने भी माना था कि पार्टी की छवि हिंदू विरोधी हो गई है। इसके बाद आधे-अधूरे मन से कांग्रेस ने अपनी इस गलती का सुधार बहुत भोंडेपन के साथ किया। एक ओर चुनाव प्रचार में पार्टी के शीर्ष नेता राहुल गांधी जनेऊ पहनकर मंदिर-मंदिर घूमकर स्वयं को सच्चा हिंदू स्थापित करने का प्रयास कर रहे थे। दूसरी ओर उनके कार्यकर्ताओं ने केरल में सरेआम गाय के बछड़े को मारा। स्वाभाविक है कि इससे पार्टी को न ही कोई वांछनीय फल मिला और न ही जनमानस प्रभावित हुआ।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)
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