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औरतें हमारी खबरों से नदारद हैं ,
जनता से रिश्ता वेबडेस्क। पूरी दुनिया का मीडिया महिलाओं के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रस्त है. औरतें हमारी खबरों से नदारद हैं ,दो वक्त की रोटी और सिर पर छत के लिए वो तमाम अन्याय और दुव्यर्वहार झेेलने के लिए मजबूर हैं और इन सारी तकलीफों के बीच उनके लिए कोई सपोर्ट सिस्टम भी नहीं है. संपत्ति में उनकी हिस्सेदारी नहीं है. वो हर लिहाज से परनिर्भर हैं और जैसाकि खुद तुलसीदास लिख गए हैं, "पराधीन सपनेहूं सुख नाहीं."
जब मैं स्कूल में पढ़ती थी, तीन साल के भीतर मेरे आसपास चार शादीशुदा औरतों ने आत्महत्या की. चारों की अरेंज मैरिज थी और चारों आर्थिक रूप से अपने पति पर निर्भर थीं. एक ने जहर खाया था, दो ने फांसी लगाकर आत्महत्या की थी और एक की लाश मुहल्ले के पास के एक रेलवे ट्रैक पर मिली थी. लियो तोल्स्तोय की अन्ना कारेनिना की तरह उसने ट्रेन के आगे कूदकर अपनी जान दे दी थी.
उस अबोध उम्र में उन आत्महत्याओं से जुड़ी जो एक बात मेरे जेहन में आज भी ताजा है, वो ये कि इन आत्महत्याओं के लिए मेरे परिवार समेत आसपास के तमाम लोगों ने उन औरतों को ही दोषी ठहराया था. आसपास की ज्यादातर स्त्रियां भी उनके बारे में ऐसे बात करतीं कि कितनी निष्ठुर औरत होगी, जो अपने दुधमुंहे बच्चे को छोड़कर मर गई. मरने वाली सभी स्त्रियों के बच्चे छोटे ही थे.
जिस बात के बारे में कोई बात नहीं करता था, वो थे उनके पति. किसी ने ये सवाल नहीं पूछा कि उनके पति उनके साथ कैसा व्यवहार करते थे. किसी ने नहीं जानना चाहा कि उनका दुख क्या था. किसी ने नहीं कहा कि ऐसे ही नहीं कोई अपनी जान ले लेता. दुख जब हद से गुजर जाए, तभी कोई इतना बड़ा कदम उठाता है.
बात सिर्फ इतनी सी है कि एक जीती-जागती स्त्री के प्रति तो किसी की संवेदना नहीं ही थी, उसकी मौत के बाद भी कोई उसके लिए, उसके बारे में नहीं सोचता था.
मर्दों के आधिपत्य वाली इस दुनिया की औरतों के प्रति ऐसी बेरूखी का ही ये विस्तार है कि किसानों से चार गुना ज्यादा आत्महत्या करने के बावजूद औरतें हमारे मेनस्ट्रीम मीडिया की कहानी नहीं होतीं. अखबारों के मुख्य पेज की सबसे बड़ी हेडलाइन नहीं होतीं.
नेता अपने भाषण में उनके मरने का जिक्र नहीं करते, न उनके नाम पर वोट मांगे जाते हैं. विपक्ष नहीं पूछता सत्ता पक्ष से ये सवाल कि इतनी औरतें क्यों कर रही हैं आत्महत्या इस देश में. फर्क नहीं पड़ता किसी को कि इतनी औरतें क्यों लटक गईं घर के पंखे से, क्यों खा लिया जहर, क्यों कूद पड़ी चलती ट्रेन के आगे.
इसी महीने बिल एंड मिलिंडा गेट्स फाउंडेशन की एक रिपोर्ट आई है, जो कह रही है कि पूरी दुनिया का मीडिया महिलाओं के प्रति पूर्वाग्रह से ग्रस्त है. औरतें हमारी खबरों से नदारद हैं. ज्यादातर खबरें मर्दों के द्वारा और मर्दों के लिए ही लिखी जा रही हैं. उन्हें पढ़ने वाले भी ज्यादातर मर्द ही हैं.
178 पन्नों की इस रिपोर्ट का नाम है – "द मिसिंग पर्सपेक्टिव ऑफ विमेन इन न्यूज." यह रिपोर्ट कहती है कि न्यूजरूम में महिलाओं की मौजूदगी से लेकर खबरों में उनकी मौजूदगी तक स्थिति काफी निराशाजनक है क्योंकि वो दोनों ही जगहों पर नामौजूद हैं.
इस रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2000 के बाद से न्यूजरूम में महिलाओं की संख्या में कोई खास इजाफा नहीं हुआ है, खासतौर पर निर्णायक और लीडरशिप वाले पदों पर महिलाओं की उपस्थिति बहुत कम है. यही कारण है कि उनके जिंदगी से जुड़े सवाल, मुद्दे, उनके नजरिए से कही गई बात मुख्यधारा मीडिया का हिस्सा नहीं है.
चाहे औरतों के ज्यादा मरने की बात हो या उस मरने पर हमारी चुप्पी हो, सबकुछ की जड़ में एक ही सच्चाई है कि ये दुनिया आज भी मर्दों के द्वारा और मर्दों के लिए ही है. जिसके पास पैसा, सत्ता और ताकत है, उसी की कहानी और उसी का हित सर्वोपरि होगा. स्त्रियां इसमें से किसी भी श्रेणी में नहीं आतीं. न वो सत्ता के शीर्ष पर बैठी हैं और न ही नेता के लिए वोटबैंक हैं.
अभी जब देश में किसान आंदोलन मुख्यधारा मीडिया की खबरों में छाया हुआ है, बार-बार ये आंकड़े भी खबरों में कोट किए जा रहे हैं कि कर्ज और गरीबी से तंग आकर कितने किसान इस देश में आत्महत्या कर रहे हैं. लेकिन इस बारे में कोई बात नहीं करता कि इसी देश में रोज 63 घरेलू पत्नियां आत्महत्या कर रही हैं. शायद इसीलिए कहा होगा वर्जीनिया वुल्फ ने- "एक औरत रूप में मेरा कोई देश नहीं."
Gulabi
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