सम्पादकीय

चौटाला को सजा

Subhi
28 May 2022 4:32 AM GMT
चौटाला को सजा
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आय से अधिक संपत्ति के मामले में हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री ओम प्रकाश चौटाला को चार साल की कैद की सजा हुई है। साथ ही पचास लाख रुपए का जुर्माना भी लगाया गया है।

Written by जनसत्ता; आय से अधिक संपत्ति के मामले में हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री ओम प्रकाश चौटाला को चार साल की कैद की सजा हुई है। साथ ही पचास लाख रुपए का जुर्माना भी लगाया गया है। चौटाला को मिली सजा इस बात का कड़ा संदेश है कि भ्रष्टाचार के मामलों में चाहे कोई कितना ही बड़ा और ताकतवर क्यों न हो, कानून सबके लिए समान है। यह भी कि भ्रष्टाचार से जुड़े मामलों में नरमी के लिए कोई जगह नहीं है।

गौरतलब है कि इससे पहले भी चौटाला शिक्षक भर्ती घोटाले में भी लंबी सजा काट चुके हैं। जैसा कि आरोपपत्र में सीबीआइ ने बताया, चौटाला ने अपनी आय से एक सौ नवासी गुना से भी ज्यादा ज्यादा संपत्ति हासिल कर ली थी। यह हैरानी पैदा करने वाली बात है।

निश्चित ही ये संपत्तियां चौटाला ने अपने पद पर रहते हुए बनाई होंगी और इन्हें हासिल करने के लिए उन्होंने वह सब कुछ किया होगा जो सिर्फ नैतिक रूप से ही नहीं, कानूनी तौर पर भी गलत था। लेकिन तब वे सत्ता के मद में थे और यह भूल बैठे थे कि उनके ऊपर कानून का शासन है।

हालांकि चौटाला अकेले ऐसे नेता नहीं हैं जिन्हें भ्रष्टाचार के मामले में सजा मिली है। तमिलनाडु की पूर्व और दिवंगत मुख्यमंत्री जयललिता, बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू यादव और जगन्नाथ मिश्र, झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री मधु कोड़ा आदि भी भ्रष्टाचार के मामले में जेल काट चुके हैं।

भारत में बड़े पदों पर भ्रष्टाचार कोई नई बात नहीं है। चाहे राजनीति हो या प्रशासन, ऐसे मामले उजागर होते ही रहते हैं। सीबाआइ, प्रवर्तन निदेशालय जैसी सरकारी एजंसियों से लेकर राज्यों के अपने भ्रष्टाचार निरोधक विभाग तक मामले दर्ज करते रहते हैं। लेकिन देखने में यह आता है कि भ्रष्टाचार के मामले तार्किक नतीजों तक कम ही पहुंच पाते हैं। ज्यादातर मामलों में नेताओं-अधिकारियों के रसूख की वजह से ऐसे मामले दबा दिए जाते हैं।

कई मामलों में पर्याप्त सबूत नहीं होने की वजह से आरोपी दोषी साबित नहीं हो पाते। ऐसा भी देखने में आता रहा है कि जांच एजंसियां भी उतनी तत्परता के साथ आगे नहीं बढ़ पातीं, जितनी उनसे उम्मीद की जाती है। चौटाला का ही उदाहरण लें। सीबीआइ ने 2005 में मामला दर्ज किया था और आरोपपत्र दाखिल हुआ 2010 में। अगर किसी मामले में आरोपपत्र दाखिल होने में ही पांच साल लग जाएं तो यह व्यवस्था पर कम बड़ा सवाल नहीं है।

भ्रष्टाचार को लेकर पिछले कुछ सालों में केंद्र और राज्य सरकारें कड़ा रुख अपनाने का दावा करती दिखी हैं। भ्रष्टाचार से त्रस्त लोगों में भी जागरूकता बढ़ी है। फिर भी ऐसे मामलों का बढ़ना गंभीर बात है। इससे तो लगता है कि हमारी व्यवस्था इस समस्या के आगे हाथ खड़े कर चुकी है। वैश्विक भ्रष्टाचार सूचकांक में भारत की स्थिति हालात बताने के लिए काफी है। भ्रष्टाचार चाहे नौकरशाही में हो या राजनीति में, उसकी कीमत आम जनता को ही चुकानी पड़ती है।

भ्रष्टाचार के मामले तो आए दिन सामने आते रहते हैं, लेकिन विडंबना यह है कि इनमें से ज्यादातर तो औपचारिक तौर पर दर्ज भी नहीं होते। फिर भ्रष्ट मानसिकता से ग्रस्त सेवकों के भीतर यह दंभ भी भरा होता है कि वे कानून से ऊपर हैं और चाहे जो कर सकते हैं। हाल में पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान ने भ्रष्टाचार के मामले में अपने स्वास्थ्य मंत्री को बर्खास्त कर मिसाल पेश की है। दूसरे राज्यों में भी मुख्यमंत्री ऐसा ही साहस दिखाएं तो निश्चित तौर पर इस समस्या से पार पाया जा सकता है।


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