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- पराली जलाना गंभीर...
दुनिया में वायु प्रदूषण की समस्या कितनी गंभीर है, इसका अंदाजा आप इसी से लगा सकते हैं कि हवा में घुला यह जहर हर साल 70 लाख से ज्यादा लोगों की जान ले रहा है। धान की कटाई में मशीन का उपयोग भी खेतों में पराली छोड़ देता है। धान निकालने के बाद पराली दोबारा से हटाना किसान के लिए किसी भी दृष्टि से लाभकारी नहीं। क्यों न ऐसी कंबाइन हार्वेस्टर मशीनें विकसित की जाएं जो धान निकालते वक्त पराली भी खेत से हटा लें तो पराली किसानों के लिए अतिरिक्त आय का साधन हो सकता है। पराली को खेत से धान निकालते वक्त न हटा पाना ही इसे किसानों को जलाने पर बाध्य करता है और पराली से जुड़े सभी व्यवसाय, चाहे चीनी मिल या कोयले के औद्योगिक संयंत्रों में बिजली पैदा करना हो या बायोगैस संयंत्र से बायोगैस, सब घाटे में चले जाते हैं। किसानों और प्रशासन को पराली से पैदा वायु प्रदूषण के स्वास्थ्य नुकसान को मानवीय हित में जरूर विचारना चाहिए…
सर्दियों में पूरे उत्तर भारत में विभिन्न कारणों के चलते वायु प्रदूषण का स्तर उच्च हो गया है। धान की फसल की कटाई के बाद खेतों को रबी की फसल की बुवाई हेतु जल्दी खाली करने के लिए उत्तर भारत के कुछ किसान फसल के अवशेष अर्थात पराली को जलाते हैं। इससे पूरे क्षेत्र में वायु प्रदूषण का स्तर उच्च हो जाता है। यह स्थिति दिल्ली एनसीआर क्षेत्र में काफी गंभीर रूप धारण कर लेती है। सर्दियों में होने वाले इस प्रदूषण से बचने हेतु सरकारें (केन्द्र एवं संबंधित राज्य) हर साल कई कदम उठाते हैं। देवभूमि जैसे पहाड़ी राज्य भी इसके शिकार हो रहे हैं। सर्दियों में उत्तर भारत में प्रदूषित वायु के बादल (स्मॉग या धुएं) छा जाने के अनेक कारण हैं। आइए, इनको समझें। सबसे पहले, खरीफ सीजन की फसलों (मुख्यत: धान) को यदि किसान हाथों से काटेगा और फसल अवशेष को पर्यावरणीय दृष्टि से सुरक्षित तरीके से निपटान करेगा तो उसे इस कार्य में न सिर्फ ज्यादा वक्त लगेगा, बल्कि श्रम लागत भी अधिक हो जाती है। इससे कृषि का लागत मूल्य काफी उच्च हो जाता है और किसान को घाटा होता है। अत: इस स्थिति से बचने के लिए और रबी की फसल की सही समय पर बुवाई हेतु किसान अपनी फसल के अवशेष (पराली) को जलाना उचित समझता है।
कुछ ऐसा भ्रम भी फैला हुआ है कि फसल के अवशेष को जलाने के बाद व्युत्पन्न हुई राख मृदा की उर्वरता को बढ़ाती है। उत्तर भारत के कुछ राज्यों में फसल प्रतिरूप वहां की जलवायु के मुताबिक नहीं है। विद्युत पर किसानों को सब्सिडी देने पर बोरवेल (नलकूप) के माध्यम से जमकर भूमिगत जल का दोहन होता है। पराली जलाने वाले राज्यों में एक तो मजदूरी महंगी है और दूसरी तरफ धान की कटाई के वक्त पर्याप्त संख्या में मजदूर भी उपलब्ध नहीं हो पाते हैं। पहले पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों से पंजाब, हरियाणा आदि में बड़ी संख्या में मजदूर आते थे, परंतु अब स्थानीय स्तर पर अपने राज्यों में ही मनरेगा के माध्यम से मजदूरी मिलने के चलते कम संख्या में मजदूर पलायन करते हैं। सर्दियों में दिल्ली एनसीआर की तरफ उत्तरी राज्यों से हवाएं आती हैं। ये हवाएं अनेक प्रकार से पराली आदि से उत्पन्न हुए प्रदूषण को लाती हैं, जबकि पश्चिमी उत्तर प्रदेश से प्रदूषण के साथ-साथ नमी भी लाती हैं। अत: प्रदूषण और नमी मिलकर एक भयंकर स्मॉग के बादल का निर्माण करते हैं। पराली या अन्य फसल अवशेषों को जलाने से मिट्टी की उपजाऊ क्षमता नष्ट होती है। उसमें नाइट्रोजन, फास्फोरस, पोटैशियम एवं अन्य सूक्ष्म पोषक तत्त्वों की कमी हो जाती है। इस कारण अगली फसल में उच्च उत्पादकता हेतु किसान और ज्यादा मात्रा में रासायनिक खादों का प्रयोग करता है। इससे देश पर खाद सब्सिडी का बोझ बढऩे के साथ-साथ किसानों की कृषि लागत भी बढ़ जाती है। चूंकि रासायनिक खाद का भारत बड़ी मात्रा में आयात करता है तो इससे भारत का व्यापार घाटा बढ़ता है और देश के विदेशी भण्डार में कमी आती है। कृषि विशेषज्ञों का मानना है कि यदि किसान इसी तरह पराली को जलाते रहे और उसकी भरपायी हेतु अधिक रासायनिक खाद का प्रयोग करते रहे, तो वह दिन दूर नहीं जब समूचे क्षेत्र की भूमि बंजर हो जाएगी। इस प्रक्रिया में अनियंत्रित रूप से भूमिगत जल का दोहन भी भूमिका निभाएगा। इस प्रकार स्पष्ट है कि पराली को जलाना एक गंभीर पर्यावरणीय समस्या को उत्पन्न करने की ओर अग्रसर है। पराली में आग लगाने से जैव विविधता को भी नुकसान पहुंचता है। पौधों के अवशेषों में कई प्रकार के जीव उपस्थित होते हैं जिनकी आग के कारण असामयिक मृत्यु हो जाती है, जो पर्यावरण को नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है। कृषि के अवशेषों को जलाने से कार्बन डाईऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड समेत अनेक जहरीली गैसें निकलती हैं, जो मानव के स्वास्थ्य पर नकारात्मक असर डालती हैं।
इन गैसों से श्वास संबंधी बीमारियों का खतरा काफी अधिक बढ़ जाता है। हाल ही में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की आयी रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में श्वास संबंधी रोगों से हर वर्ष लाखों लोगों को जान से हाथ धोना पड़ता है। पराली के जलने से निकलने वाली गैसें ग्लोबल वार्मिंग की समस्या में इजाफा करती हैं। हाल ही में जलवायु परिवर्तन पर एक विशेष रिपोर्ट में कहा गया है कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण भारत का हिमालयी क्षेत्र काफी अधिक प्रभावित हो रहा है। यहां वर्षा और बाढ़ का पैटर्न बदल रहा है जो लाखों लोगों को नकारात्मक रूप से प्रभावित करेगा। कई विशेषज्ञों का मानना है कि पराली या अन्य कृषि अवशेषों को जलाने से फसलों की पैदावार बड़ी मात्रा में घट सकती है। इससे देश में खाद्य सुरक्षा का संकट बढ़ सकता है। जब देश की एक-चौथाई से अधिक जनसंख्या गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन कर रही हो और अपनी खाद्य जरूरतों के लिए संघर्ष कर रही हो तो खाद्यान्न पैदावार में कमी सरकार के समक्ष गंभीर समस्या खड़ी कर सकती है।
जर्नल प्लोस मेडिसिन में प्रकाशित एक शोध में सामने आया है कि वायु प्रदूषण के चलते दुनिया भर में हर साल करीब 59 लाख नवजातों का जन्म समय से पहले हो जाता है, जबकि इसके चलते करीब 28 लाख शिशुओं का वजन जन्म के समय सामान्य से कम होता है। दुनिया में वायु प्रदूषण की समस्या कितनी गंभीर है, इसका अंदाजा आप इसी से लगा सकते हैं कि हवा में घुला यह जहर हर साल 70 लाख से ज्यादा लोगों की जान ले रहा है। धान की कटाई में मशीन का उपयोग भी खेतों में पराली छोड़ देता है। धान निकालने के बाद पराली दोबारा से हटाना किसान के लिए किसी भी दृष्टि से लाभकारी नहीं। क्यों न ऐसी कंबाइन हार्वेस्टर मशीनें विकसित की जाएं जो धान निकालते वक्त पराली भी खेत से हटा लें तो पराली किसानों के लिए अतिरिक्त आय का साधन हो सकता है। पराली को खेत से धान निकालते वक्त न हटा पाना ही इसे किसानों को जलाने पर बाध्य करता है और पराली से जुड़े सभी व्यवसाय, चाहे चीनी मिल या कोयले के औद्योगिक संयंत्रों में बिजली पैदा करना हो या बायोगैस संयंत्र से बायोगैस, सब घाटे में चले जाते हैं। किसानों और प्रशासन को पराली से पैदा वायु प्रदूषण के स्वास्थ्य नुकसान को मानवीय हित में जरूर विचारना चाहिए। पराली जलाने के नुकसान से उत्पन्न पर्यावरण समस्या को सरकारी व्यवस्था को गंभीरता से लेना चाहिए।
डा. वरिंद्र भाटिया
कालेज प्रिंसीपल