जब पूरी दुनिया रूस-यूक्रेन युद्ध में उलझी है तो चीन चुपचाप अपने विस्तारवादी मंसूबों को पूरा करने में जुटा है
दुनिया में इन दिनों यूक्रेन पर रूस के हमले की चर्चा है। इसने चीन की एक प्रकार से बड़ी मदद की है
ब्रह्मा चेलानी। दुनिया में इन दिनों यूक्रेन पर रूस के हमले की चर्चा है। इसने चीन की एक प्रकार से बड़ी मदद की है कि इस बीच वह बड़ी खामोशी और शातिर तरीके से एशिया में अपनी विस्तारवादी मुहिम को आगे बढ़ा रहा है। वह अपनी स्थलीय एवं सामुद्रिक सीमाओं को नए सिरे से खींचने के साथ ही ताइवान पर दबाव बढ़ा रहा है। रूस के सीधे सैन्य हमले के उलट चीन धीरे-धीरे यथास्थिति को अपने पक्ष में मोड़ने में लगा है। इसका ताजा उदाहरण चीनी सेना की इस कवायद में दिखता है, जिसमें उसने बड़े गुपचुप तरीके से हिमालयी क्षेत्र के विवादित हिस्सों में 624 गांवों का निर्माण पूरा कर लिया है। ये गांव उस सीमा में बने हैं, जिन्हें भारत, नेपाल और भूटान अपना हिस्सा मानते हैं। ऐसे सैन्य गांव वास्तव में दक्षिण चीन सागर में चीन द्वारा बनाए गए कृत्रिम द्वीपों की भांति हैं, जो उसके लिए अग्र्रिम मोर्चों की भूमिका निभा रहे हैं। यह उल्लेखनीय है कि भारत के साथ चल रहे सैन्य टकराव के बीच भी चीन इन गांवों के विकास में सफल रहा। दोनों देशों की सेनाओं में पिछले करीब दो वर्षों से संघर्ष जारी है। इस दौरान चीन ने लद्दाख के कुछ इलाकों में घुसपैठ का प्रयास किया तो भारत की ओर से भी उसे करारा जवाब मिला। सैन्य तनाव को घटाने के लिए सैन्य कमांडरों के बीच वार्ता जारी है। हाल में विदेश मंत्री एस. जयशंकर और चीनी विदेश मंत्री वांग यी नई दिल्ली में मिले। जबसे दोनों देशों के बीच हिमालयी मोर्चे पर तनातनी बढ़ी है, तबसे उच्च स्तर पर यही सबसे बड़ी मुलाकात हुई है। इन सबसे मामूली समाधान ही निकला है।
प्रभावी नियंत्रण अंतरराष्ट्रीय कानून में क्षेत्रीय दावे में मजबूती का सबसे बड़ा प्रतीक है। इसीलिए चीन अत्यंत ऊंचाई वाले दुर्गम इलाकों में सुनियोजित आबादी को बसाने से लेकर मानव निर्मित द्वीपों का निर्माण कर रहा है। यह चीनी राष्ट्रपति शी चिर्नंफग की विस्तारवादी नीति का अहम हिस्सा है। शी के इस विस्तारवाद ने भूटान जैसे बेहद छोटे से देश को भी नहीं बख्शा। चीन ने यथास्थिति को एकतरफा रूप से न बदलने संबंधी 1998 के द्विपक्षीय समझौते का उल्लंघन किया। अब भूटान की उत्तरी और पश्चिमी सीमा पर चीन के कई सैन्य गांव बस गए हैं। सीमा विवाद को सुलझाने के लिए भूटान करीब चार दशकों से चीन के साथ बातचीत कर रहा है।
चीन का यह विस्तारवाद कई परतों वाली रणनीति के तहत संचालित होता है। इसमें सबसे पहले किसी इलाके पर दावा किया जाता है। फिर उसके इर्दगिर्द वह पूरा प्रपंच रचता है, जिसमें किसी प्रतिद्वंद्वी के लिए कोई गुंजाइश नहीं छोड़ता। दक्षिण चीन सागर का ही उदाहरण लें। उसमें आपको कई परतें दिखाई देंगी। मसलन वहां चीनी मछुआरों की नावें, तटरक्षक पोत और नौसेना के जहाजों की एक शृंखला दिखेगी। हिमालयी क्षेत्र में यह सिलसिला दुर्गम इलाकों में बस्तियां बसाने के रूप में दिखता है, जहां सैन्य-पुलिस पृष्ठभूमि के लोगों को ही सुनियोजित रूप से बसाया जाता है।
चीन की रणनीति अपने प्रतिद्वंद्वी की कमजोरियों को निशाना बनाकर अपनी मनमर्जी करना है। इसी कड़ी में वह किसी जगह अपना दावा करने से पूर्व उसे विवादित स्वरूप देने में लगा रहता है। पूर्वी चीन सागर में जापान के नियंत्रण वाले सेनकाकू द्वीप को लेकर चीन पूरी दुनिया को इसी प्रकार बरगलाने में सफल रहा है। उसने न केवल सामुद्रिक, बल्कि हवाई सीमा के मोर्चे पर अपनी तिकड़में कर उसे विवादित बना दिया। इतना ही नहीं, इस जापानी द्वीप को उसने 'दीआओयू' जैसा चीनी नाम भी दे दिया है। जहां चीन ने यहां अपने युद्धपोत और बड़े जहाज भेजना शुरू कर दिया, वहीं जापान सेनकाकू पर लाइटहाउस के निर्माण जैसी रक्षात्मक मुद्रा अपनाने तक सीमित रह गया। वास्तव में किसी जापानी रक्षा मंत्री ने निर्जन सेनकाकू द्वीप का हवाई सर्वेक्षण तक नहीं किया। इसके पीछे यही वजह रही होगी कि चीन कहीं उसे किसी प्रकार के उकसावे की कार्रवाई न समझ ले।
भौगोलिक कब्जे से जुड़ी शी की कुलबुलाहट असल में उस देश के लिए विकल्प सीमित कर देती है, जिसे वह निशाना बनाते हैं। इसमें प्रत्युत्तर को लेकर प्रतिद्वंद्वी देश भ्रमित हो जाता है। इसके माध्यम से शी यही चाहते हैं कि बढ़त की स्थिति उनके पास ही बनी रहे। प्रतिद्वंद्वी को किनारे लगाकर शी सभी विकल्प अपने पास रखना चाहते हैं। इसमें सैन्य टकराव बढ़ने की स्थिति में एकाएक हमले से चौंकाने का विकल्प भी शामिल है। इसमें युद्ध शुरू करने का ठीकरा भी दूसरे पक्ष पर फोड़ा जा सकता है।
अंतरराष्ट्रीय कानून के अनुसार कोई भी क्षेत्रीय दावा संबंधित क्षेत्र में संप्रभुता को लेकर निरंतर एवं शांतिपूर्ण कवायद पर आधारित होना चाहिए। हालांकि 2016 में एक अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता ट्रिब्यूनल ने दक्षिण चीन सागर में चीनी क्षेत्रीय दावे को अमान्य करार दिया था, लेकिन इससे चीन के रुख पर कोई असर नहीं पड़ा और उसने 'जिसकी लाठी, उसकी भैंस' वाला रवैया ही अपनाया। इस बीच अपने गैरकानूनी कृत्यों और दावों को लेकर अंतरराष्ट्रीय कानूनों से ताल मिलाने के लिए चीन घरेलू स्तर पर नए कानून बना रहा है। दक्षिण चीन सागर में मानव निर्मित द्वीपों और नए प्रशासनिक केंद्रों की स्थापना से लेकर हिमालयी क्षेत्र में गांवों की स्थापना इसी रणनीति को सिरे चढ़ाने का हिस्सा है। हिमालयी क्षेत्र में चीन के रहस्यमयी विस्तार का दायरा इन 624 सीमावर्ती गांवों से आगे जाता है। चीन विवादित सीमावर्ती क्षेत्रों में बड़े स्तर पर सैन्य बुनियादी ढांचे के निर्माण में भी जुटा है, ताकि टकराव की स्थिति में सैनिकों एवं सैन्य साजोसामान को तेजी से पहुंचाने की व्यवस्था की जा सके। भूटान की सीमा से गुजरने वाली नई चीनी सड़क से भारत के संवेदनशीर्ल बिंदु 'सिलिगुड़ी कारिडोर' को निशाना बनाए जाने की आशंका बढ़ी है। यही कारिडोर पूर्वोत्तर को शेष भारत से जोड़ता है।
दिलचस्प बात यही है कि चीन अपने ऐसे मंसूबे बिना कोई गोली दागे पूरे करता दिख रहा है और उसे यह परवाह नहीं कि वह एक साथ दो मोर्चों पर भी उलझ सकता है। पेंटागन की एक रपट के अनुसार, 'चीन भारत के साथ सीमा पर बढ़ते तनाव के साथ किसी सूरत में ताइवान को लेकर उपजने वाली आपात स्थिति से निपटने की भी तैयारी कर रहा है।' कुल मिलाकर दुनिया में आर्थिक रूप से सबसे गतिशील क्षेत्र एशिया में चीन की बदनीयती असुरक्षा को ही बढ़ाने का काम कर रही है।
(लेखक सामरिक मामलों के विश्लेषक हैं)