संस्कृत भाषा: भारत के प्राचीन ज्ञान-साम्राज्य का वैभव और कई ज्ञान विधाओं की जननी

स्वप्न तो साकार होगा ही, दुनिया भी शांति के साथ समग्र विकास के पथ पर अग्रसर होगी।

Update: 2022-03-28 01:55 GMT

कुछ महीने पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने  'मन की बात' कार्यक्रम में संस्कृत भाषा के वैभव और उसके पुनः उभरते वैश्विक परिदृश्य पर बात की थी। भारतवर्ष के प्राचीन ज्ञान-साम्राज्य का वैभव, जो संस्कृत के विलुप्त होते जाने से अक्षुण्ण न रह सका, वस्तुतः संस्कृत की ही महिमा है। संसार की आंखों में भारतीय संस्कृति के लिए वर्तमान में भी जो सम्मान शेष है, उसके मूल में भी कहीं न कहीं संस्कृत ही है, जिसने हमारी भारतीय विद्वता का सार्वभौमिक परिचय कराया।

संस्कृत अंकगणित, बीजगणित, रेखागणित, ज्यामिति, खगोलशास्त्र, भौतिकी, रासायनिकी, आयुर्वेद, दर्शनशास्त्र आदि सभी Mother की जननी है। अतः संस्कृत का पुनरुत्थान जरूरी है। प्रधानमंत्री ने संस्कृत का सूरज चढ़ने की बात कही है, तो सरकार का दायित्व बनता है कि वह संस्कृत का पुनरुत्थान करने के लिए समुचित प्रबंध करे। संस्कृत दुनिया के लिए भारत का सर्वश्रेष्ठ उपहार होगा।
मानव जाति की सबसे बड़ी पहचान और सबसे बड़ी उपलब्धि है भाषा। भाषा न होती, तो हम अन्य प्राणियों से केवल अपनी आकृति में ही भिन्न होते। लेकिन भाषा ने हमें पृथ्वी के सभी जीवों से सर्वथा भिन्न और सर्वथा विशिष्ट बना दिया है। भाषा के विकास के साथ मानव सर्वगुण-संपन्न बनता चला गया। भाषा के साथ ही मानव सभ्यताएं बनती चली गईं।
भाषा और भूगोल का एक गहरा संबंध है। भाषा वास्तव में पारिस्थितिकी का 'उत्पाद' है। मिट्टी और जलवायु से बनती है कोई भाषा। यही कारण है कि भाषा भूगोल के अनुसार बदलती है। धर्म, जाति, पंथ अथवा समूहों से उसका मौलिक संबंध नहीं है। संस्कृति का भाषा से अटूट संबंध है और भाषा का संस्कृति से एक गहरा सरोकार है। भाषा के माध्यम से ही कोई संस्कृति अपने यश को समय की तरंगों पर बहाती है।
संस्कृत से प्रभावशाली कोई भाषा संसार में नहीं हुई। मानव सभ्यताओं के इतिहास में ज्ञान-विज्ञान और दर्शनशास्त्रों से भरे ग्रंथों और उत्कृष्टतम साहित्य का जितना सृजन संस्कृत भाषा ने किया है, उतना आज तक किसी भी अन्य भाषा के लिए संभव नहीं हुआ है। पर विडंबना यह है कि संस्कृत आज विलुप्तप्राय हो चुकी है, और जिस भारतीय सभ्यता-संस्कृति को उसने हजारों वर्षों से संभाल कर रखा है, वही उससे पीछा छुड़ाने का प्रयास कर रही है। लेकिन संस्कृति का वैभव इतना विराट है कि आज भी दुनिया की कोई भाषा उसके सामानांतर खड़ी नहीं हो पाई।
संस्कृत भाषा के रचनात्मक वैभव से भिज्ञ लोग इस प्राचीनतम भाषा को स्कूलों और विश्वविद्यालयों में पढ़ा रहे हैं। यूरोप में संस्कृत इसलिए पढ़ाई जा रही है कि इसके स्पंदन से विद्यार्थियों का मष्तिष्क अधिक प्रखर और रचनात्मक होता है। थाईलैंड और ऑस्ट्रेलिया में संस्कृत को उत्कृष्ट रचनाधर्मिता के लिए आवश्यक मानते हैं। संस्कृत शब्दों के उच्चारण से तंत्रिका तंत्र झंकृत होता है, जिससे मष्तिष्क की सक्रियता और सृजनशीलता में वृद्धि होती है। अंग्रेजी के सुप्रसिद्ध पत्रकार और लेखक खुशवंत सिंह ने कहा था कि वह दूरदर्शन पर संस्कृत के समाचार अवश्य सुनते थे, क्योंकि इससे उन्हें एक अलग प्रकार की आनंदपूर्ण अनुभूति होती थी, जबकि उन्हें उसका अर्थ समझ में नहीं आता था। संस्कृत का विकास करने वाली और संस्कृत से सुसंस्कृत होने वाली संस्कृति आज के युग में भी विश्व शांति और सामजिक विकास का जागरण करती है। इतिहास साक्षी है कि प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक भारत ने कभी किसी अन्य देश की भूमि पर आक्रमण नहीं किया।
आज के युग में जो भाषाएं सर्वाधिक पुष्पित-पल्लवित हो रही हैं, वे आर्थिकी-केंद्रित हैं, जिनकी बाजार पर पकड़ है। अंग्रेजी इसका ज्वलंत उदाहरण है। संस्कृत ज्ञान-केंद्रित भाषा है, इसलिए वह पिछड़ गई। अगर संस्कृत को पुनर्स्थापित करना है, तो उसका आर्थिकी के साथ अनुबंध बनाना होगा। संस्कृत के विकास से भारत के विश्वगुरु बनने का स्वप्न तो साकार होगा ही, दुनिया भी शांति के साथ समग्र विकास के पथ पर अग्रसर होगी।

सोर्स: अमर उजाला


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