धरती की जरूरी परत 40 सालों में 402 मीटर हुई कम... भविष्य में बिगड़ सकते है सैटेलाइट संचार

हमारे सिर के ठीक ऊपर करीब 12 किलोमीटर की ऊंचाई पर धरती के चारों तरफ एक लेयर है.

Update: 2021-05-18 17:28 GMT

हमारे सिर के ठीक ऊपर करीब 12 किलोमीटर की ऊंचाई पर धरती के चारों तरफ एक लेयर है, जिसे समताप मंडल कहते हैं. यानी स्ट्रैटोस्फेयर (Stratosphere). साइंटिस्ट्स ने खुलासा किया है कि पिछले 40 सालों में यह इसकी ऊंचाई 402 मीटर कम हो गई है. मतलब हर दस साल में 100 मीटर ऊंचाई कम हो रही है. इसका सबसे बड़ा नुकसान हमारी धरती के चारों तरफ घूमते हुए सैटेलाइट्स को होगा.

धरती के ऊपर 12 किलोमीटर से लेकर करीब 49.88 किलोमीटर की ऊंचाई तक ये स्ट्रैटोस्फेयर होता है. आमतौर पर आसमान की इस हवाई परत में सुपरसोनिक विमान और मौसम की जानकारी देने वाले गुब्बारे घूमते हैं. लेकिन एक नई रिसर्च के मुताबिक हमारी धरती के चारों तरफ मौजूद यह हवाई परत की मोटाई पिछले 40 सालों में 402 मीटर कम हो गई है.  
साइंस जर्नल एनवायरमेंटल रिसर्च लेटर्स में प्रकाशित इस स्टडी में बताया गया है कि इसकी सबसे बड़ी वजह इंसानों द्वारा पैदा की जा रही ग्रीनहाउस गैसे हैं. क्योंकि जितना ज्यादा प्रदूषण होगा उतनी ही ज्यादा ग्रीनहाउस गैसें निकलेंगी. जीवाश्म आधारित ईंधनों के जलने और उपयोग करने से कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा बढ़ रही है. 
कार्बन डाईऑक्साइड धरती के सबसे निचली हवाई परत यानी ट्रोपोस्फेयर (Troposphere) में घुस चुकी है. ये परत सूरज से आने वाली रोशनी को वापस अंतरिक्ष की तरफ परावर्तित कर रही है. जिसकी वजह से धरती गर्म हो रही है. जैसे जैसे ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन बढ़ता जाएगा वैसे ही धरती सूरज से ज्यादा गर्मी सोखेगी. जिसकी वजह से समतापमंडल यानी स्ट्रैटोस्फेयर तक गर्मी नहीं जा पा रही है. स्ट्रैटोस्फेयर लगातार ठंडी हो रही है.  
अगर लगातार स्ट्रैटोस्फेयर ठंडा होता जाएगा वैसे ही उसमें मोटाई कम होने लगेगी. 1960 से लेकर 2010 तक स्ट्रैटोस्फेयर का तापमान 3 डिग्री सेल्सियस कम हुआ है. अगर वर्तमान गति से ग्रीनहाउस गैसें निकलती रहीं तो या बढ़ी तो स्ट्रैटोस्फेयर और तेजी से घटेगा. नई स्टडी के मुताबिक साल 2080 तक स्ट्रैटोस्फेयर करीब 1.60 किलोमीटर और पतली हो जाएगी. 
अगर इसी तरह से स्ट्रैटोस्फेयर कम होता रहा तो इसका सीधा असर GPS, नेविगेशन सिस्टम, रेडियो कम्यूनिकेशन और धरती के चारों तरफ घूम रहे सैटेलाइट्स की ट्रैजेक्टरी में गड़बड़ी आएगी. इसे ऐसे समझे कि अगर धरती एक मल्टी लेयर वाला केक है. ट्रोपोस्फेयर सबसे निचली परत है. यहीं पर नागरिक विमान उड़ते हैं. जहां पर ट्रोपोस्फेयर अपनी ऊपरी परत स्ट्रैटोस्फेयर से मिलती है, उसे ट्रोपोपॉज (Tropopause) कहते हैं
स्ट्रैटोस्फेयर के ऊपर मीजोस्फेयर (Mesosphere) कहते हैं. यह ऊपरी एटमॉस्फेयर और स्ट्रैटोस्फेयर के बीच की लेयर है. यह करीब 80.46 किलोमीटर चौड़ी है. इसके बाद आती है ऊपरी एटमॉस्फेयर जो 708 किलोमीटर की चौड़ी है. इसके अंदर ही थर्मोस्फेयर (Thermosphere) आता है. इसी थर्मोस्फेयर में सैटेलाइट्स और अंतरराष्ट्रीय स्पेस स्टेशन घूम रहे हैं. इसके बाद आता है आयनोस्फेयर (Ionosphere).
इस नई स्टडी के मुताबिक स्ट्रैटोस्फेयर की ऊपरी लेयर और निचली लेयर के बीच की सीमाएं यानी ट्रोपोपॉज और स्ट्रैटोपॉज लगातार एक दूसरे के नजदीक आ रही हैं. यानी स्ट्रैटोस्फेयर सिकुड़ रहा है. साल 1980 के बाद से ट्रोपोस्फेयर की ऊंचाई लगातार बढ़ रही है. वहीं स्ट्रैटोस्फेयर की ऊंचाई घट रही है. यानी मल्टीलेयर्ड केक में से एक लेयर कम हो रहा है.
शोधकर्ताओं के मुताबिक स्ट्रैटोस्फेयर को तभी बचा सकते हैं जब कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन रोका जाए. पिछले साल ही पूरी दुनिया लॉकडाउन के बावजूद सबसे ज्यादा कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन हुआ था. नासा के गोडार्ड इंस्टीट्यूट ऑफ स्पेस साइंसेज के निदेशन गैविन श्मिट ने कहा कि कार्बन डाईऑक्साइड स्ट्रैटोस्फेयर को ठंडा कर रही है. जैसे ही स्ट्रैटोस्फेयर पूरी तरह से ठंडा हो जाएगा तुरंत ही एटमॉस्फेयर का आकार भी छोटा हो जाएगा. 
सबसे ज्यादा दिक्कत धरती के चारों तरफ चक्कर लगा रहे उपग्रहों को होगी. रीडिंग यूनिवर्सिटी के एटमॉस्फियरिक साइंस के प्रोफेसर पॉल विलियम्स कहते हैं कि जैसे ही स्ट्रैटोस्फेयर घटेगा, ऊपर की सारी लेयर्स नजदीक आ जाएंगी. वो भी घटेंगी. इससे ये होगा कि कम ऊंचाई पर चक्कर लगाने वाले सैटेलाइट्स का एयर रेजिसटेंस कम हो जाएगा. इससे उनकी ट्रैजेक्टरी पर असर पड़ेगा.
इन सैटेलाइ्टस पर अगर किसी तरह का बदलाव किया जाएगा तो उससे जीपीएस नेविगेशन सिस्टम, और अन्य प्रकार के अंतरिक्ष आधारित संचार प्रणाली पर बुरा असर पड़ेगा. हमारे टीवी चैनल, मोबाइल नेटवर्क, जियोग्राफिकल सर्विसेज सब पर असर पड़ेगा. इससे इनकी तीव्रता और सटीकता पर बहुत ज्यादा नुकसान होगा. पॉल विलियम्स ने कहा कि इतना ही नहीं, हाई फ्रिक्वेंसी रेडियो ट्रांसमिशन भी बाधित होगा. क्योंकि रेडियो किरणें आयोनोस्फेयर में फंसकर बाउंस करेंगी. अगर विमान के पायलट को एयर ट्रैफिक कंट्रोल से बात करनी होगी तो उसका जीपीएस सिस्टम काम नहीं करेगा. हवाई जहाज रास्ता भटक भी सकता है. ये स्थिति उत्तरी ध्रुव के पास ज्यादा होने की आशंका है.

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