जाने नर और नारायण के अद्भुत कथा
त्रेतायुग समाप्त हुआ और द्वापर का प्रारम्भ हुआ।
एक असुर था.. दम्बोद्भव।
उसने सूर्यदेव की बड़ी तपस्या की। सूर्य देव जब प्रसन्न हो कर प्रकट हुए और वरदान मांगने को कहा तो उसने "अमरत्व" का वरदान माँगा।
सूर्यदेव ने कहा यह संभव नहीं है।
तब उसने माँगा कि उसे एक हज़ार दिव्य कवचों की सुरक्षा मिले। इनमे से एक भी कवच सिर्फ वही तोड़ सके जिसने एक हज़ार वर्ष तपस्या की हो..
और जैसे ही कोई एक भी कवच को तोड़े, वह तुरंत मृत्यु को प्राप्त हो।
सूर्यदेवता बड़े चिंतित हुए। वे इतना तो समझ ही पा रहे थे कि यह असुर इस वरदान का दुरुपयोग करेगा...
किन्तु उसकी तपस्या के आगे वे मजबूर थे।उन्हे उसे यह वरदान देना ही पड़ा।
इन कवचों से सुरक्षित होने के बाद वही हुआ जिसका सूर्यदेव को डर था।
दम्बोद्भव अपने सहस्र कवचों की शक्ति से अपने आप को अमर मान कर मनचाहे अत्याचार करने लगा।
वह "सहस्र कवच" नाम से जाना जाने लगा।
उधर सती जी के पिता "दक्ष प्रजापति" ने अपनी पुत्री "मूर्ति" का विवाह ब्रह्मा जी के मानस पुत्र "धर्म" से किया।
मूर्ति ने सहस्र्कवच के बारे में सुना हुआ था.. और उन्होंने श्री विष्णु से प्रार्थना की कि इसे ख़त्म करने के लिए वे आयें।
विष्णु जी ने उसे आश्वासन दिया कि वे ऐसा करेंगे।
समयक्रम में मूर्ति ने दो जुड़वां पुत्रों को जन्म दिया जिनके नाम हुए नर और नारायण।
दोनों दो शरीरों में होते हुए भी एक थे - दो शरीरों में एक आत्मा। विष्णु जी ने एक साथ दो शरीरों में नर और नारायण के रूप में अवतरण किया था।
दोनों भाई बड़े हुए। एक बार दम्बोध्भव इस वन पर चढ़ आया। तब उसने एक तेजस्वी मनुष्य को अपनी ओर आते देखा और भय का अनुभव किया।
उस व्यक्ति ने कहा कि मैं "नर" हूँ, और तुम से युद्ध करने आया हूँ।
भय होते भी दम्बोद्भव ने हंस कर कहा.. तुम मेरे बारे में जानते ही क्या हो ?
मेरा कवच सिर्फ वही तोड़ सकता है जिसने हज़ार वर्षों तक तप किया हो।
नर ने हंस कर कहा कि मैं और मेरा भाई नारायण एक ही हैं - वह मेरे बदले तप कर रहे हैं, और मैं उनके बदले युद्ध कर रहा हूँ।
युद्ध शुरू हुआ, और सहस्र कवच को आश्चर्य होता रहा कि सच ही में नारायण के तप से नर की शक्ति बढती चली जा रही थी।
जैसे ही हज़ार वर्ष का समय पूर्ण हुआ, नर ने सहस्र कवच का एक कवच तोड़ दिया।
लेकिन सूर्य के वरदान के अनुसार जैसे ही कवच टूटा नर मृत हो कर गिर पड़े ।
सहस्र कवच ने सोचा, कि चलो एक कवच गया ही सही किन्तु यह तो मर गया।
तभी उसने देखा की नर उसकी और दौड़े आ रहा है और वह चकित हो गया।
अभी ही तो उसके सामने नर की मृत्यु हुई थी और अभी ही यही जीवित हो मेरी और कैसे दौड़ा आ रहा है ???
लेकिन फिर उसने देखा कि नर तो मृत पड़े हुए थे, यह तो हुबहु नर जैसे प्रतीत होते उनके भाई नारायण थे..
जो दम्बोद्भव की तरफ नहीं, बल्कि अपने भाई नर की तरफ दौड़ रहे थे।
दम्बोद्भव ने अट्टहास करते हुए नारायण से कहा कि तुम्हे अपने भाई को समझाना चाहिए था.. इसने अपने प्राण व्यर्थ ही गँवा दिए।
नारायण शांतिपूर्वक मुस्कुराए। उन्होंने नर के पास बैठ कर कोई मंत्र पढ़ा और चमत्कारिक रूप से नर उठ बैठे।
तब दम्बोद्भव की समझ में आया कि हज़ार वर्ष तक शिवजी की तपस्या करने से नारायण को मृत्युंजय मंत्र की सिद्धि हुई है..
जिससे वे अपने भाई को पुनर्जीवित कर सकते हैं...
अब इस बार नारायण ने दम्बोद्भव को ललकारा और नर तपस्या में बैठे।
हज़ार साल के युद्ध और तपस्या के बाद फिर एक कवच टूटा और नारायण की मृत्यु हो गयी।
फिर नर ने आकर नारायण को पुनर्जीवित कर दिया, और यह चक्र फिर फिर चलता रहा।
इस तरह 999 बार युद्ध हुआ। एक भाई युद्ध करता दूसरा तपस्या। हर बार पहले की मृत्यु पर दूसरा उसे पुनर्जीवित कर देता।
जब 999
कवच टूट गए तो सहस्र्कवच समझ गया कि अब मेरी मृत्यु हो जाएगी।
तब वह युद्ध त्याग कर सूर्यलोक भाग कर सूर्यदेव के शरणागत हुआ।
नर और नारायण उसका पीछा करते वहां आये और सूर्यदेव से उसे सौंपने को कहा।
किन्तु अपने भक्त को सौंपने पर सूर्यदेव राजी न हुए।
तब नारायण ने अपने कमंडल से जल लेकर सूर्यदेव को श्राप दिया कि आप इस असुर को उसके कर्मफल से बचाने का प्रयास कर रहे हैं..
जिसके लिए आप भी इसके पापों के भागीदार हुए और आप भी इसके साथ जन्म लेंगे इसका कर्मफल भोगने के लिए।
इसके साथ ही त्रेतायुग समाप्त हुआ और द्वापर का प्रारम्भ हुआ।
समय बाद कुंती जी ने अपने वरदान को जांचते हुए सूर्यदेव का आवाहन किया, और कर्ण का जन्म हुआ।लेकिन यह आम तौर पर ज्ञात नहीं है, कि, कर्ण सिर्फ सूर्यपुत्र ही नहीं है, बल्कि उसके भीतर सूर्य और दम्बोद्भव दोनों हैं।
जैसे नर और नारायण में दो शरीरों में एक आत्मा थी, उसी तरह कर्ण के एक शरीर में दो आत्माओं का वास है.. सूर्य और सहस्रकवच।
दूसरी ओर नर और नारायण इस बार अर्जुन और कृष्ण के रूप में आये ।
कर्ण के भीतर जो सूर्य का अंश है, वही उसे तेजस्वी वीर बनाता है।
जबकि उसके भीतर दम्बोद्भव भी होने से उसके कर्मफल उसे अनेकानेक अन्याय और अपमान मिलते है और उसे द्रौपदी का अपमान और ऐसे ही अनेक अपकर्म करने को प्रेरित करता है।
यदि अर्जुन कर्ण का कवच तोड़ता, तो तुरंत ही उसकी मृत्यु हो जाती। इसीलिये इंद्र उससे उसका कवच पहले ही मांग ले गए थे।