भगवान के परम भक्तों व ऋषियों में महर्षि ऋभु का नाम प्रमुखता से लिया जाता है. इनका जिक्र महोपनिषद व भक्तमाल सहित कई हिंदू ग्रंथों में मिलता है. ये ब्रह्मा के मानस पुत्रों में से एक थे, जो हमेशा ब्रह्मतत्व में लीन रहते थे. कभी किसी घर, कुटिया या आश्रम में नहीं रहे. इन्होंने ही रावण के चाचा यानी ऋषि पुलत्स्य के पुत्र निदाघ को ज्ञान का उपदेश दिया था.आइए आज आपको उन्हीं ऋषि के बारे में बताते हैं.
कौन थे ऋषि ऋभु
पंडित रामचंद्र जोशी के अनुसार पुराणों में महर्षि को ऋभु को ब्रह्म का मानस पुत्र कहा है. सनत्कुमार के साथ ही इनकी सृष्टि सबसे पहले हुई है. इनका निवास तपलोक में बताया गया है. ये अपनी भक्ति, ज्ञान, वैराग्य व शुद्धता के लिए प्रसिद्ध हैं. गुरु परंपरा की मर्यादा की रक्षा के लिए इन्होंने अपने भाई सनत्सुजात की शरण ली थी. उनसे मंत्र ज्ञान और योग की शिक्षा प्राप्त करने के बाद यह सहज स्थिति में रहने लगे थे. शरीर को ही कुटिया मान इन्होंने कभी घर, मकान या आश्रम नहीं बनाया था. महोपनिषद के पंचम अध्याय में इन्होंने अपने पुत्र को ज्ञान व अज्ञान का उपदेश दिया था.
रावण के चाचा को उपदेश
पंडित जोशी के अनुसार ऋषि ऋभु ने पुलत्स्य ऋषि के पुत्र व रावण के पिता विश्रवा के भाई निदाघ को भी ज्ञान का उपदेश दिया था. पुराणों के अनुसार एक बार घूमते हुए ऋभु पुलस्त्य ऋषि के आश्रम की तरफ चले गए थे. यहां उनका पुत्र निदाघ वेदों का अध्ययन कर रहा था. ऋषि ऋभु को देखकर उसने उन्हें श्रद्धा से प्रणाम किया. उसकी जिज्ञासा व श्रद्धा देखकर ऋभु ने उसे ज्ञान का उपदेश दिया. उन्होंने कहा कि यह सब संसारी लोग माया के चक्कर में पड़कर अपने स्वरूप को भूले हुए हैं. इस जीवन का वास्तविक लाभ आत्मज्ञान प्राप्त करना है. इसलिए माया पर विजय प्राप्त कर पदार्थों से ऊपर उठकर अपने आप में स्थिर हो जाओ. महर्षि ऋभु को गुरु बनाकर निदाघ ने उनसे आगे भी शिक्षा ग्रहण की.बाद में उनकी ही आज्ञा से विवाह कर गृहस्थ धर्म निभाते हुए आत्मनिष्ठ होते हैं.