गणेश जी की कृपा पाने हेतु द्विजप्रिय चतुर्थी के दिन जरूर करें इन मंत्रों का जाप

20 फरवरी को द्विजप्रिय संकष्टी चतुर्थी है। इस दिन भगवान गणेश जी की पूजा-उपासना की जाती है। सनातन शास्त्रों में लिखा है कि विघ्नहर्ता के नाम मात्र स्मरण से सभी विघ्न दूर हो जाते हैं।

Update: 2022-02-20 02:45 GMT

20 फरवरी को द्विजप्रिय संकष्टी चतुर्थी है। इस दिन भगवान गणेश जी की पूजा-उपासना की जाती है। सनातन शास्त्रों में लिखा है कि विघ्नहर्ता के नाम मात्र स्मरण से सभी विघ्न दूर हो जाते हैं। स्वंय भगवान ब्रह्मा जी ने संकष्टी चतुर्थी व्रत की महत्ता को बताया है। ऐसे में इस व्रत का अति विशेष महत्व है। भगवान गणेश को विघ्नहर्ता, लंबोदर, गजानन, गणपति, बप्पा, गणेश आदि भी कहा जाता है। ऐसा कहा जाता है कि जो भी व्यक्ति सच्चे मन से गणपति बप्पा की पूजा करता है। उसके जीवन से सभी दुःख और संकट दूर हो जाते हैं। साथ ही जीवन में मंगल का आगमन होता है। अगर आप भी गणेश जी की कृपा पाना चाहते हैं, तो द्विजप्रिय संकष्टी चतुर्थी के दिन पूजा के समय इन मंत्रों का जाप जरूर करें-

1.

गणेश स्तुति का मंत्र

गजाननं भूतगणादिसेवितं कपित्थजम्बूफलचारु भक्षणम्ं।

उमासुतं शोकविनाशकारकं नमामि विघ्नेश्वरपादपङ्कजम्॥

2.

श्री गणेश जी का गायत्री मंत्र

ऊँ एकदन्ताय विद्महे वक्रतुंडाय धीमहि तन्नो बुदि्ध प्रचोदयात।

3.

वक्र तुंड महाकाय, सूर्य कोटि समप्रभ:।

निर्विघ्नं कुरु मे देव शुभ कार्येषु सर्वदा॥

4.

एकदन्तं महाकायं लम्बोदरगजाननम्ं।

विध्ननाशकरं देवं हेरम्बं प्रणमाम्यहम्॥

5.

गणेश कवच

संसारमोहनस्यास्य कवचस्य प्रजापति:।

ऋषिश्छन्दश्च बृहती देवो लम्बोदर: स्वयम्॥

धर्मार्थकाममोक्षेषु विनियोग: प्रकीर्तित:।

सर्वेषां कवचानां च सारभूतमिदं मुने॥

ॐ गं हुं श्रीगणेशाय स्वाहा मे पातुमस्तकम्।

द्वात्रिंशदक्षरो मन्त्रो ललाटं मे सदावतु॥

ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं गमिति च संततं पातु लोचनम्।

तालुकं पातु विध्नेशःसंततं धरणीतले॥

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीमिति च संततं पातु नासिकाम्।

ॐ गौं गं शूर्पकर्णाय स्वाहा पात्वधरं मम॥

दन्तानि तालुकां जिह्वां पातु मे षोडशाक्षर:॥

ॐ लं श्रीं लम्बोदरायेति स्वाहा गण्डं सदावतु।

ॐ क्लीं ह्रीं विघन्नाशाय स्वाहा कर्ण सदावतु॥

ॐ श्रीं गं गजाननायेति स्वाहा स्कन्धं सदावतु।

ॐ ह्रीं विनायकायेति स्वाहा पृष्ठं सदावतु॥

ॐ क्लीं ह्रीमिति कङ्कालं पातु वक्ष:स्थलं च गम्।

करौ पादौ सदा पातु सर्वाङ्गं विघन्निघन्कृत्॥

प्राच्यां लम्बोदर: पातु आगन्य्यां विघन्नायक:।

दक्षिणे पातु विध्नेशो नैर्ऋत्यां तु गजानन:॥

पश्चिमे पार्वतीपुत्रो वायव्यां शंकरात्मज:।

कृष्णस्यांशश्चोत्तरे च परिपूर्णतमस्य च॥

ऐशान्यामेकदन्तश्च हेरम्ब: पातु चो‌र्ध्वत:।

अधो गणाधिप: पातु सर्वपूज्यश्च सर्वत:॥

स्वप्ने जागरणे चैव पातु मां योगिनां गुरु:॥

इति ते कथितं वत्स सर्वमन्त्रौघविग्रहम्।

संसारमोहनं नाम कवचं परमाद्भुतम्॥

श्रीकृष्णेन पुरा दत्तं गोलोके रासमण्डले।

वृन्दावने विनीताय मह्यं दिनकरात्मज:॥

मया दत्तं च तुभ्यं च यस्मै कस्मै न दास्यसि।

परं वरं सर्वपूज्यं सर्वसङ्कटतारणम्॥

गुरुमभ्य‌र्च्य विधिवत् कवचं धारयेत्तु य:।

कण्ठे वा दक्षिणेबाहौ सोऽपि विष्णुर्नसंशय:॥

अश्वमेधसहस्त्राणि वाजपेयशतानि च।

ग्रहेन्द्रकवचस्यास्य कलां नार्हन्ति षोडशीम्॥

इदं कवचमज्ञात्वा यो भजेच्छंकरात्मजम्।

शतलक्षप्रजप्तोऽपि न मन्त्र: सिद्धिदायक:॥


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