Spiritual: आध्यात्मिक प्रगति करना चाहते हैं तो सबसे पहले इन गुणों को पहचानें

Update: 2021-07-09 15:36 GMT

प्रत्येक मनुष्य अपने आराम और सुख के लिए अनेक इच्छाएं करता रहता है। ये इच्छाएं पूरी करने के लिए वह तरह-तरह के कर्म करता है। एक इच्छा पूरी होती है कि कुछ समय के बाद दूसरी इच्छा पैदा हो जाती है। फिर वह उसे पूरा करने के लिए कर्म करता है। इस प्रकार उसके अंदर कर्म का वेग बढ़ता रहता है। मनुष्य की सभी इच्छाएं पूरी नहीं होतीं, पर इच्छाओं की पूर्ति या फल पर दृष्टि रखने के कारण हम अपने कार्य को पूरी एकाग्रता से नहीं कर पाते। परिणामस्वरूप हमें सफलता नहीं मिल पाती।

अपने कार्य को तत्परता और कुशलता से करने के लिए हमारे अंदर षट संपत्ति, यानी छह गुणों का होना अनिवार्य है। प्रथम है, 'शम' यानी मन की एकाग्रता। जिस कार्य को कर रहे हैं, हमारा पूरा मन उसी कार्य पर एकाग्र होना चाहिए। अनावश्यक संकल्प विकल्प यदि हमारे मन में आ रहे हों, तो उन पर अपना ध्यान केंद्रित नहीं करना चाहिए। पूरे मनोयोग के साथ अपना कार्य संपन्न करना चाहिए। दूसरा है, दम। यानी अपनी इंद्रियों (आंख, नाक, कान आदि) का निग्रह। हमें अपनी इंद्रियों को वर्तमान में किए जाने वाले अपने कार्य पर ही केंद्रित करना चाहिए। बाहर की वस्तुओं पर समय व्यर्थ न करें। उदाहरण के लिए गुरु द्रोणाचार्य ने एक बार शिक्षा के दौरान अपने शिष्यों- कौरवों और पांडवों से – पेड़ पर बैठी बनावटी चिड़िया की आंख पर निशाना लगाने को कहा। उनके पूछने पर एक शिष्य ने कहा, मुझे आप, पेड़ और उस पर बैठी चिड़िया दिखाई दे रही है। दूसरे ने कहा कि मुझे तो पेड़ और चिड़िया दिख रही है। लेकिन अर्जुन ने कहा कि मुझे केवल चिड़िया की आंख ही दिखाई दे रही है। इसके अतिरिक्त मैं कुछ नहीं देख रहा हूं और उसने सही लक्ष्य लगाया। इस प्रकार अभ्यास से हमें भी अपना ध्यान अपने तय किए कार्य पर ही केंद्रित करना चाहिए। प्रत्येक कार्य की समाप्ति पर फल तो मिलेगा ही। कर्म करने पर तो हमारा अधिकार है, पर हमें जो फल प्राप्त होगा वह हमारे हाथ में नहीं है।
षट संपत्ति का तीसरा तत्व है, 'उपरति', यानी अपने द्वारा वर्तमान में किए जाने वाले कार्य के अतिरिक्त अन्य कार्यों से उदासीन भाव रखना। अपनी पूरी सामर्थ्य, योग्यता और मनोयोग से अपने वर्तमान कार्य को ही निष्काम भाव से पूरा करना। चौथा है 'तितिक्षा', यानी अपने कार्य के दौरान जो अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थितियां आती हैं, उनसे विचलित न होना। पांचवां है 'श्रद्धा', यानी हमारे कार्य में जो हमारे मार्गदर्शक हैं, संबंधित शास्त्र हैं उनके वाक्यों पर पूरा विश्वास करते हुए अपने कार्य में लगे रहना, उसमें कोई संशय नहीं रखना, अन्यथा हम अपने मार्ग से विचलित हो सकते हैं। छठा तत्व है 'समाधान', यानी बुद्धि और चित्त की एकाग्रता। गीता में भगवान ने अर्जुन से कहा है, 'इस कर्मयोग में निश्चयात्मक बुद्धि एक ही होती है किंतु अस्थिर विचार वाले विवेकहीन सकाम मनुष्यों की बुद्धियां निश्चय ही बहुत भेदों वाली और अनंत होती हैं।'
इस प्रकार भौतिक संपत्ति के होने या न होने की स्थिति में भी यदि उपरोक्त षट संपत्ति हमारे पास है तब हम उचित, अनुचित का अपने विवेक द्वारा निर्णय लेकर अपने स्वभाव एवं कार्यों में सुधार लाकर सांसारिक और परमार्थिक या आध्यात्मिक क्षेत्र में उचित प्रगति कर सकते हैं। अभ्यास द्वारा इन गुणों को अपने अंदर लाते रहने का हमें सतत प्रयास करते रहना चाहिए।

बीके शर्मा

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