जानिये भीष्म पितामह के बारे में ये खास बात
कुरुक्षेत्र में कौरव और पांडवों के बीच हुए महायुद्ध में वे कौरवों की ओर से लड़े थे
महाभारत में भीष्म पितामह की बहुत चर्चा होती है। कुरुक्षेत्र में कौरव और पांडवों के बीच हुए महायुद्ध में वे कौरवों की ओर से लड़े थे। माघ माह के कृष्ण पक्ष की नवमी को भीष्म पितामह की जयंती और शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि को निर्वाण प्राप्त किया था। आओ जानते हैं उनके बारे में 10 खास बातें।
1. अंतिम कौरव : कुरु के वंश में आगे चलकर राजा प्रतीप हुए जिनके दूसरे पुत्र थे शांतनु। शांतनु का बड़ा भाई बचपन में ही शांत हो गया था। शांतनु के गंगा से देवव्रत (भीष्म) हुए। भीष्म ने ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा ली थी इसलिए यह वंश आगे नहीं चल सका। भीष्म अंतिम कौरव थे।
2. पिछले जन्म में देवता थे भीष्म : शांतनु से गंगा का विवाह हुआ। गंगा से उन्हें 8 पुत्र मिले जिसमें से 7 को गंगा नदी में बहा दिया गया और 8वें पुत्र को पाला-पोसा। उनके 8वें पुत्र का नाम देवव्रत था। यह देवव्रत ही आगे चलकर भीष्म कहलाया। भीष्म पिछले जन्म में आठ वसुओं में से 'द्यु' नामक आठवें वसु थे। एक श्राप के चलते उन्हें मनुष्य जन्म लेना पड़ा।
3. भीष्म प्रतिज्ञा : गंगा के स्वर्ग चले जाने के बाद जब राजा शांतनु को निषाद कन्या सत्यवती से प्रेम हो गया तो सत्यवती के पिता ने भीष्म से कहा कि मेरी बेटी का पुत्र ही राज्य का अधिकारी होगा तभी मैं तुम्हारे पिता से अपनी बेटी का विवाह करूंगा। तब भीष्म ने अपने पिता के लिए प्रतिज्ञा ली कि मैं आपको वचन देता हूं कि आपकी पुत्री के गर्भ से जो बालक जन्म लेगा वही राज्य का उत्तराधिकारी होगा। कालांतर में मेरी कोई संतान आपकी पुत्री के संतान का अधिकार छीन न पाए इस कारण से मैं प्रतिज्ञा करता हूं कि मैं आजन्म अविवाहित रहूंगा। और, राज्य के प्रति जिम्मेदार रहूंगा'
4. इच्छा मृत्यु : देवव्रत जब निषाद कन्या सत्यवती को लाकर अपने पिता शांतनु को सौंपते हैं तो शांतनु की खुशी का ठिकाना नहीं रहता। शांतनु प्रसन्न होकर देवव्रत से कहते हैं, 'हे पुत्र! तूने पितृभक्ति के वशीभूत होकर ऐसी कठिन प्रतिज्ञा की है, जो न आज तक किसी ने की है और न भविष्य में कोई करेगा। तेरी इस पितृभक्ति से प्रसन्न होकर मैं तुझे वरदान देता हूं कि तेरी मृत्यु तेरी इच्छा से ही होगी। तेरी इस प्रकार की प्रतिज्ञा करने के कारण तू 'भीष्म' कहलाएगा और तेरी प्रतिज्ञा भीष्म प्रतिज्ञा के नाम से सदैव प्रख्यात रहेगी।'
5. काशी नरेश की पुत्रियों का अपहरण : सत्यवती के कहने पर ही भीष्म ने काशी नरेश की 3 पुत्रियों (अम्बा, अम्बालिका और अम्बिका) का अपहरण किया था। बाद में अम्बा को छोड़कर सत्यवती के पुत्र विचित्रवीर्य से अम्बालिका और अम्बिका का विवाह करा दिया था। अम्बा को इसलिए छोड़ा था क्योंकि वह किसी और राजा से प्रेम करती थीं। बाद में उस राजा ने जब अंबा को त्याग दिया तो अंबा ने परशुराम और शिवजी की शरण लेकर न्याय मांगा। शिवजी ने वरदान दिया कि अगले जन्म में तू ही भीष्म की मृत्यु का कारण बनकर उनसे बदला लेगी।
6. गांधारी का विवाह : गांधारी और उनके पिता सुबल की इच्छा के विरुद्ध भीष्म ने धृतराष्ट्र का विवाह गांधारी से करवाया था। माना जाता है कि इसीलिए गांधारी ने भी अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली थी। आखिर अंत में गांधारी को दावाग्नि में जलकर खुद के प्राणों का अंत करना पड़ा था। गांधारी अपनी इस दशा के लिए भीष्म को ही दोषी मानती थी।
7. द्रौपदी चीरहरण : भरी सभा में जब द्रौपदी को निर्वस्त्र किया जा रहा था तो भीष्म चुप बैठे थे। भीष्म ने जानते-बुझते दुर्योधन और शकुनि के अनैतिक और छलपूर्ण खेल को चलने दिया। शरशैया पर भीष्म जब मृत्यु का सामना कर रहे थे, तब भीष्म ने द्रौपदी से इसके लिए क्षमा भी मांगी थी।
8. कौरवों के साथ धोखा : ऐसा माना जाता है कि जब कौरवों की सेना जीत रही थी ऐसे में भीष्म ने ऐन वक्त पर पांडवों को अपनी मृत्यु का राज बताकर कौरवों के साथ धोखा किया था। भीष्म पितामह के सामने अर्जुन ने शिखंड को खड़ा कर दिया था जो पिछले जन्म में अंबा थी। अंतत: भीष्म पितामह का शरीर छलनी हो गया।
9. परशुराम से युद्ध : विचित्रवीर्य के युवा होने पर उनके विवाह के लिए भीष्म ने काशीराज की 3 कन्याओं का बलपूर्वक हरण किया था जिसमें से एक को शाल्वराज पर अनुरक्त होने के कारण छोड़ दिया था। लेकिन शाल्वराज के पास जाने के बाद अम्बा को शाल्वराज ने स्वीकार करने से मना कर दिया। अम्बा के लिए यह दुखदायी स्थिति हो चली थी। अम्बा ने अपनी इस दुर्दशा का कारण भीष्म को समझकर उनकी शिकायत परशुरामजी से की। परशुराम और भीष्म का युद्ध हुआ जिसका कोई निर्णय नहीं हो सका तब अंबा शिवजी की शरण में गई थी।
10. भीष्म पितामह का निधन : सूर्य के उत्तरायण होने पर माघ माह के आने पर युधिष्ठिर आदि सगे-संबंधी, पुरोहित और अन्यान्य लोग भीष्म के पास पहुंचते हैं। उन सबसे पितामह ने कहा कि इस शरशय्या पर मुझे 58 दिन हो गए हैं। मेरे भाग्य से माघ महीने का शुक्ल पक्ष आ गया। अब मैं शरीर त्यागना चाहता हूं। इसके पश्चात उन्होंने सब लोगों से प्रेमपूर्वक विदा मांगकर शरीर त्याग दिया। सभी लोग भीष्म को याद कर रोने लगे। युधिष्ठिर तथा पांडवों ने पितामह के शरविद्ध शव को चंदन की चिता पर रखा तथा दाह-संस्कार किया। कहते हैं कि भीष्म 150 वर्ष जीकर निर्वाण को प्राप्त हुए।