एक बार फिर दिवाली आई और मैंने नई कुर्ती सिलाई।
ये दीवाली भी हर बार की तरह खूबसूरत थी, खुशियों से भरी थी।।
पर ना जाने क्यों इस दिवाली में, वो बात नही थी।
सोच रही थी क्या कमी रह गई, याद आया ये तो वो भीड़ ही नहीं थी।
जिस भीड़ में हम पटाखे फोड़ कर बेवजह खुश हो जाया करते थे।
जिस भीड़ में हम लड़ते लड़ते अपना घर सजाया करते थे।
हां, थोडी अजीब हुआ करती थी वो सबके साथ वाली दीवाली।
पर मैं खुश हो जाती थी ये सोच कर कि।
सब घर आयेंगे और मजे करेंगे इस दिवाली।।
सब साथ बैठ कर लड़ झगड़ कर कुछ सुकून के पल बिताते थे।
जो हर उदास लम्हों को खूबसूरत बनाते थे।
इस बार कुछ यादें तो बनी, मगर यह समझा गई कि अब सब बिखर गया है।
वापस नहीं आयेगी वो भीड़ भरी खुशियों वाली दीवाली।
अब भीड़ से ज्यादा सबको अकेले रहना पसंद है।
सबके साथ से ज्यादा फोन पसंद है।
पटाखे फोड़ते, गप्पे लड़ाते लड़ाते बारह बज जाया करते थे जिस दीवाली।
छः बजे सो गई क्योंकि अकेली थी मैं इस दिवाली।
ना जाने क्यों लगा कि काश!
मेरी भी मां होती मेरे साथ इस दिवाली।।
चरखा फीचर
मंजू धपोला
कपकोट, बागेश्वर
उत्तराखंड