जम्मू-कश्मीर : विस्थापन के 31 साल बाद बदलाव की बयार में पैतृक संपत्ति से हटने लगे कब्जे, पर घाटी में घर वापसी अब भी सपना
तीन दशक से भी अधिक समय से विस्थापन का दंश झेल रहे कश्मीरी पंडितों को अनुच्छेद 370 हटने के बाद उम्मीद दिखने लगी है, लेकिन अब भी उनकी उम्मीदों व अपेक्षाओं के अनुरूप ससम्मान घर वापसी सपना है।
जनता से रिश्ता वेबडेस्क। तीन दशक से भी अधिक समय से विस्थापन का दंश झेल रहे कश्मीरी पंडितों को अनुच्छेद 370 हटने के बाद उम्मीद दिखने लगी है, लेकिन अब भी उनकी उम्मीदों व अपेक्षाओं के अनुरूप ससम्मान घर वापसी सपना है। कश्मीर घाटी में उनकी जमीनों से अतिक्रमण हटने शुरू हो गए। औने-पौने दामों में बेची गई संपत्तियां भी उनके नाम होने लगीं, लेकिन घर वापसी दूर की कौड़ी बनी है। विस्थापन के 31 साल बाद भी वे न्याय के लिए दरबदर हो रहे हैं। हालांकि, सरकार ने उनकी अचल संपत्तियों पर कब्जे और अन्य प्रकार की शिकायतों के निवारण के लिए पोर्टल शुरू किया है। इस पर मिली शिकायतों में से दो हजार मामले निपटाए जा चुके हैं। हालांकि, नवंबर महीने में घाटी में शुरू हुई टारगेट किलिंग की घटनाओं के बाद इसकी रफ्तार थोड़ी धीमी पड़ गई है।
कश्मीरी पंडितों का मानना है कि 370 हटने की सबसे अधिक खुशी उनके समाज को ही रही। कश्मीर भी देश के साथ जुड़ गया और यहां भी पूरे देश के समान ही नियम कानून शुरू हो गए, लेकिन इसके हटने के दो साल से अधिक समय बीतने के बाद भी धरातल पर बहुत अधिक बदलाव देखने को नहीं मिला। आज भी कश्मीरी पंडित घाटी में जाकर नहीं रह सकता है। सुरक्षा कारण के साथ ही साथ ही उनके जीविकोपार्जन का कोई इंतजाम नहीं है। उनका कहना है कि कश्मीरी विस्थापितों को नौकरी देकर वहां बसाना पुनर्वास नहीं हो सकता है, जबकि सरकार इसे ही पंडितों की वापसी समझती है। आम कश्मीरी अपने पैतृक गांव लौटे और अपना जीविकोपार्जन शुरू कर सके तभी सही मायने में पुनर्वास हो सकता है।
हालांकि, सरकार ने पिछले साल सितंबर में कश्मीरी पंडितों की घाटी में अचल संपत्तियों से कब्जा हटाने और भयवश औने-पौने दामों में संपत्तियों को बेचने के मामले निपटाने के लिए ऑनलाइन पोर्टल शुरू किया ताकि विस्थापित दावे कर सकें। पोर्टल पर मिलने वाली शिकायतों में ज्यादातर औने पौने दामों में संपत्तियों को बेचने से जुड़े रहे। कई मामलों में राजस्व रिकॉर्ड में हेरफेर की भी शिकायतें आईं। संपत्तियों पर जबरन कब्जे की भी शिकायतें मिलीं। उपराज्यपाल प्रशासन ने मिली शिकायतों में से दो हजार का निस्तारण कर दिया गया। स्वयं उप राज्यपाल मनोज सिन्हा ने एक कार्यक्रम में दो हजार शिकायतों के निस्तारण की बात कही है। उनका कहना है कि सरकार कश्मीरी पंडितों की वापसी के प्रति बेहद गंभीर है। इसके लिए सभी उपाय किए जा रहे हैं। पीएम पैकेज के तहत नौकरी के साथ ही आवास की सुविधा भी मुहैया कराई जा रही है। जमीनों से कब्जे हटाए जा रहे हैं।
राजनीतिक भागीदारी के बिना दशा में नहीं होने वाला है बदलाव
कश्मीरी पंडितों का मानना है कि बिना राजनीतिक रूप से सशक्त हुए उनकी दशा में कोई बदलाव नहीं होने वाला है। राजनीतिक प्रतिनिधित्व नहीं है तो वह अपनी बात कहां रखें और कौन उनकी बातें सुनेगा। परिसीमन आयोग की सिफारिशों में भी कश्मीरी पंडितों के लिए कोई प्रावधान नहीं किया गया। इसलिए सबसे जरूरी है कि उन्हें राजनीतिक रूप से सशक्त बनाया जाए और सत्ता में भागीदारी सुनिश्चित की जाए। सिक्किम के सांगा विधानसभा की तर्ज पर नोशनल विस का गठन किया जाए जो केवल कश्मीरी विस्थापितों के लिए हो।
अब तक 4300 विस्थापित लौटे घाटी
सरकारी आंकड़ों के अनुसार सुरक्षा कारणों से 1990 में 44167 परिवारों ने घाटी छोड़ी थी, जिसमें से 39782 हिंदू परिवार थे। पुनर्वास के तहत पीएम पैकेज के जरिये नौकरी के लिए पिछले कुछ सालों में 3800 अभ्यर्थी कश्मीर लौटे। अनुच्छेद 370 हटने के बाद 520 लोग नौकरी के सिलसिले में गए। दो हजार और कश्मीरी विस्थापितों के नौकरी के सिलसिले में घाटी लौटने की संभावना है। सरकार की ओर से 2008 और 2015 में कश्मीरी विस्थापितों के घाटी लौटने और पुनर्वास की नीति तय की गई। पैतृक घरों में लौटने के लिए प्रोत्साहन की घोषणा की गई।
इसके तहत पूरी तरह या आंशिक रूप से क्षतिग्रस्त मकानों की मरम्मत के लिए साढ़े सात लाख, बिना प्रयोग के मकानों की मरम्मत के लिए दो लाख तथा अपनी संपत्तियां बेच देने वालों के लिए आवासीय समितियों में मकान खरीदने के लिए साढ़े सात लाख रुपये का प्रावधान किया गया। 1990 में प्रति परिवार मिलने वाली 500 रुपये की राहत राशि को बढ़ाकर 13 हजार रुपये प्रति महीने यानी 3250 प्रति सदस्य कर दी गई। हालांकि, कश्मीरी विस्थापित इस राहत राशि को कम बताते हुए इसे बढ़ाने की मांग कर रहे हैं।
कश्मीरी विस्थापितों के लिए छह हजार पद सृजित किए गए, जिसमें 3800 पदों पर नियुक्तियां हो चुकी हैं। ये कर्मचारी श्रीनगर, बडगाम, बारामुला, शोपियां, कुलगाम, कुपवाड़ा, पुलवामा, बांदीपोरा, अनंतनाग व गांदरबल में रह रहे हैं। घाटी में 920 करोड़ की लागत से छह हजार ट्रांजिट आवास का निर्माण किया जाना है, जिसमें से 1025 बनकर तैयार हो गए हैं। इनमें से बडगाम, कुपवाड़ा, अनंतनाग, कुलगाम व पुलवामा में 721 दो मंजिला हैं। 1488 का निर्माण कार्य जारी है, जबकि 2444 आवास बनाए जाने हैं।
तीन दशक बाद भी धरातल पर कुछ भी बदलाव नहीं आया है। ब्यूरोक्रेट नहीं चाहते हैं कि पंडित घाटी लौटें। प्रधानमंत्री और गृह मंत्रालय से संस्तुति के बाद भी राज्य सरकार ने विस्थापितों के पुनर्वास के लिए अलग से बजट का प्रावधान नहीं किया। 370 हटने के बाद भी स्थितियां वहीं की वहीं हैं। सरकार निवेशकों को जमीन दे रही है, लेकिन विस्थापितों को दो गज जमीन नहीं दे पाई। ट्रांजिट आवास मनमोहन सरकार की देन है।
- सतीश महलदार, चेयरमैन-रिकन्सिलिएशन, रिटर्न एंड रिहैब्लिशन आफ माइग्रेंट्स
370 हटने के बाद उम्मीद जगी थी कि पंडितों के प्रति कोई नीति बनेगी, लेकिन धरातल पर ऐसा कुछ भी नहीं दिख रहा। अल्पसंख्यकों का कोई प्रतिनिधित्व नहीं है। 1990 के पहले की स्थिति बहाल करनी है तो इन्हें प्रतिनिधित्व देना होगा। जवाहर टनल के पार धर्मनिरपेक्षता कहीं भी नहीं दिखती। आखिर सरकार कश्मीर का विकास करना चाहती है या कश्मीरियों का। हमारे अधिकारों का संरक्षण करना भी सरकार की जिम्मेदारी है।
-डॉ. रमेश रैना, अध्यक्ष-ऑल इंडिया कश्मीरी समाज
धरातल पर कुछ भी बदलाव नहीं दिख रहा है। सरकार पीएम पैकेज के तहत नौकरियों को ही घाटी में वापसी मान रही है, जो उचित नहीं है। ऐसे लोग सरकारी मकानों में किराया दे रहे हैं। सेवानिवृत्ति के बाद उन्हें आवास छोड़ना होगा, फिर कैसा पुनर्वास और कैसी घर वापसी। टारगेट किलिंग की घटनाओं के बाद जमीनों से कब्जे हटाने की प्रक्रिया भी धीमी पड़ गई है। सरकार सभी पक्षों से बात कर वापसी की दिशा में प्रयास करे।
- एमके धर, पनुन कश्मीर
सरकार की पुनर्वास योजना दिखनी चाहिए। सरकार को हमारी बात सुननी चाहिए। राजनीतिक प्रतिनिधित्व दिए बगैर यह संभव नहीं है। परिसीमन की प्रक्रिया में विस्थापितों को भी आरक्षण मिलना चाहिए। उद्यमिता के जरिये पुनर्वास संभव है। इसके लिए सरकार को विस्थापितों को निवेश के मौके देने चाहिए। 370 हटने के बाद घाटी का माहौल बदला जरूर है, लेकिन यह धरातल पर तभी उतरेगा जब विस्थापित राजनीतिक रूप से सशक्त होंगे।
- विनोद के पंडिता, संयुक्त सचिव-ऑल इंडिया कश्मीरी समाज