इंटरनेशनल विमेंस डे पर जाने भारत की वीरांगनाओं के बारे में

गोंडवाना नरेश कीर्ति सिंह चंदेल की बेटी दुर्गावती अपने नाम के अनुरूप हर तरह की युद्ध में प्रवीण थीं.

Update: 2023-03-07 18:03 GMT
भारत सदियों से वीरांगनाओं का देश रहा है, इतिहास साक्षी है कि हिन्दू राजाओं को एक ओर जहां विदेशी आक्रांताओं से लड़ना-जूझना पड़ा, वहीं पड़ोसी राजाओं से मिल रही चुनौती का भी समय-समय पर सामना करना पड़ा. भारतीय इतिहास में ऐसे तमाम अवसर आये, जब राज्य की बागडोर रानियों को संभालना पड़ा, और उन्होंने ना केवल शौर्य और बहादुरी का परिचय दिया बल्कि आन-बान-शान के लिए हंसते-हंसते जान न्योछावर करने से भी नहीं चूकीं. आइये जानें कुछ ऐसी ही वीरांगनाओं की सच्ची कहानी, जिसे सुनकर आपके रोंगटे खड़े हो जायेंगे. 
शौर्य और सौंदर्य की स्वामिनी महारानी पद्मिनी!
चित्तौड़ की महारानी पद्मावती अपने शौर्य, सौंदर्य और पवित्रता के लिए आज भी मशहूर हैं. सिंहल की राजकुमारी पद्मावती का विवाह चित्तौड़ के महाराणा रतन सिंह ने से हुआ था. एक दिन रतन सिंह ने राजपुरोहित राघव चैतन्य को राजद्रोह के आरोप में देश से बाहर निकाल दिया था. बदले की भावना से राघव दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी से मिलकर उससे पद्मावती की खूबसूरती का इस तरह बखान किया कि खिलजी पद्मावती को पाने के लिए आतुर हो उठा. वह चित्तौड़ आया और रतन सिंह से पद्मावती का दर्शन कराने का अनुरोध किया. रतन सिंह युद्ध नहीं चाहते थे, उन्होंने पद्मावती को दर्पण के माध्यम से उसे दिखाया. पद्मावती को पाने के लिए खिलजी ने धोखे से रतन सिंह को गिरफ्तार कर लिया. लेकिन पद्मावती ने अपनी बुद्धिमता और शौर्य के दम पर रतन सिंह को छुड़ाया. गुस्से में आग बबूला खिलजी ने चित्तौड़ पर आक्रमण कर दिया. पद्मावती जानती थीं कि खिलजी की विशाल सेना से युद्ध संभव नहीं है. खिलजी के हाथ पड़ने के बजाय उन्होंने हजारों राजपुतानियो के साथ जौहर-प्रथा के तहत अग्निकुंड में कूद कर जान दे दिया.
रानी दुर्गावती ने तीन बार अकबर को हराया!
गोंडवाना नरेश कीर्ति सिंह चंदेल की बेटी दुर्गावती अपने नाम के अनुरूप हर तरह की युद्ध में प्रवीण थीं. उनका विवाह कालिंजर नरेश संग्राम शाह के पुत्र दलपत शाह से हुआ था. दुर्गावती के विवाह के 4 साल बाद ही दलपत का निधन हो गया. तब 16 वर्षीय दुर्गावती ने स्वयं गढ़ मंडला (वर्तमान में जबलपुर) का शासन संभाला. वहां के अकबर का सूबेदार बाज बहादुर ने उसका राज्य हड़पने के लिए आक्रमण किया. दुर्गावती ने उसकी तमाम सेना और उसके चाचा फतेह खां को तलवार से ढेर कर युद्ध जीत लिया. कुछ दिन बाद पुनः बाजबहादुर ने दुर्गावती पर हमला किया, लेकिन इस बार रानी ने बाजबहादुर की पूरी सेना का सफाया कर डाला. अकबर ने दुर्गावती को अपने रनिवास में लाने के लिए तीन बार आक्रमण किया, लेकिन हर बार दुर्गावती ने उसे हराया. 24 जून 1564 को अकबर ने आसफ खां को तोपों के साथ दुर्गावती पर आक्रमण के लिए भेजा. युद्ध लड़ते हुए रानी की आंख में तीर घुस गया. इससे पहले कि आसफ खान उसे पकड़ता रानी ने अपनी कटार अपने सीने में भोंक कर मृत्यु को गले लगाया.
महारानी तपस्विनी जिससे अंग्रेज भी घबराते थे!
झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के शौर्य की कहानी सर्वविदित है, लेकिन उनकी भतीजी तपस्विनी जो वेल्लोर के जमींदार नारायण राव की बेटी थी, की बहादुरी के बारे में कम लोग ही जानते होंगे. बाल विधवा तपस्विनी के मन में बचपन से राष्ट्रप्रेम कूट-कूट कर भरा था. वे बेहद पराक्रमी महिला थीं. 1857 में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ क्रांति में उन्होंने भी अपनी चाची लक्ष्मीबाई के साथ इस जीवंत हिस्सा बनीं थी. उनके साहस और निडरता से घबराकर अंग्रेजों ने उन्हें तिरुचिरापल्ली के जेल में बंद कर दिया. बाद में नाना साहेब के साथ व नेपाल गईं. वहां उन्होंने नेपाल के सेनापति चंद्र शमशेर जंग के सहयोग से क्रांतिकारियों के लिए गोला-बारूद एवं हथियारों की फैक्ट्री शुरू की. लेकिन उन्हीं के विश्वसनीय साथी खांडेकर ने उनसे गद्दारी कर ब्रिटिशर्स को उनके सारे भेद बता दिये. यह जानते ही तपस्विनी नेपाल से कलकत्ता आ गईं. यहां उन्होंने महाशक्ति पाठशाला शुरू किया. 1905 में बंगाल विभाजन के आंदोलन में उन्होंने बाल गंगाधर तिलक के साथ आंदोलन में हिस्सा लिया. 1907 में उनका निधन हो गया.
राजकुमारी रत्नावती, जिसकी प्रशंसा मुगलों भी करते थे
राजकुमारी रत्नावती के शौर्य के किस्से पूरे राजस्थान में मशहूर हैं. एक बार दिल्ली के बादशाह अलाउद्दीन ने सेनापति मलिक काफूर को जैसलमेर पर आक्रमण के लिए भेजा. मुगल सेना ने किले को घेर लिया. पिता रतन सिंह रत्नावती को किले की जिम्मेदारी सौंप युद्ध के लिए प्रस्थान कर गये. इधर रत्नावती ने भी अस्त्र-शस्त्र धारण किया और मुगल सेना पर बिजली की तरह टूट पड़ी. इस युद्ध में दोनों तरफ से कई सैनिक मारे गये. अंततः रत्नावती को विजयश्री तो मिली ही, उन्होंने काफूर समेत 100 मुगल सैनिकों को बंदी भी बनाया.
इससे क्रोधित हो अलाउद्दीन ने किले को घेर कर राशन सप्लाई बंद करवा दिया. शीघ्र ही किले का राशन खत्म होने लगा. लेकिन रत्नावती ने हार नहीं मानी, वह खुद भूखी रहती, लेकिन सैनिकों और बंदियों के लिए खाने की व्यवस्था जरूर करवाती. लंबी प्रतीक्षा के बाद अलाउद्दीन को लगा रत्नावती पर जीत आसान नहीं. उसने संधि प्रस्ताव भेजा. दोनों तरफ के कैदियों को छोड़ा गया. कहा जाता है कि मलिक काफूर को जब आजाद किया गया, तो वह रो रहा था, उसने कहा रत्नावती मामूली इंसान नहीं देवी है, वीरांगना है, जो खुद भूखी रही, मगर दुश्मनों को भूखा नहीं रहने दिया.
हाड़ी रानीः त्याग का यह अनोखा रूप
हाड़ी रानी बूंदी के शासक शत्रुशाल की पुत्री थी. उनका विवाह मेवाड़ के सरदार रावत रतन सिंह चुण्डावत से हुआ था, जो राणा राजसिंह के सामंत थे. विवाह के छठे दिन एक सुबह रतन सिंह को राज सिंह से औरंगजेब की सेना को रोकने का आदेश मिला. रतन सिंह पत्नी से बहुत प्यार करते थे, उनकी इच्छा युद्ध में जाने की नहीं थी, लेकिन मातृभूमि की रक्षा का प्रश्न था. उन्होंने सैनिकों को तैयार होने का आदेश दिया. विदाई लेने चुण्डावत पत्नी के पास पहुंचे, कहा, उसे अभी युद्ध भूमि में जाना होगा. हंसते हुए विदा दो. हाड़ी रानी ने पति के ह्रदय में खुद के प्रति मोह दिखा. उन्होंने पति की आरती उतारते हुए कहा, मैं धन्य हूं, मुझे आप जैसा वीर पति मिला. चुण्डावत घोड़े पर सवार हो निकल गये.
रास्ते में पत्नी की याद आई, तुरंत घोड़ा रोका, एक सैनिक को पत्र देकर पत्नी के पास भेजा, कि मैं लौटूंगा, मेरा इंतजार करना. मुझे कोई निशानी भेजना. हाड़ी रानी को लगा पति कहीं पत्नी-मोह में हार ना जाये. उसने पत्रवाहक से कहा मैं तुम्हें निशानी के साथ पत्र दे रही हूं, प्रियवर, तुम्हारे सारे मोह-बंधन काटकर अंतिम निशानी भेज रही हूं, बेफिक्र होकर कर्तव्य का निर्वहन करिये. स्वर्ग में इंतजार करूंगी. फिर पलक झपकते तलवार निकाली अपना गर्दन धड़ से अलग कर दिया. सिपाही ने रोते हुए थाल में हाड़ी रानी का कटा सिर सजाकर सुहाग के चूनर से ढककर सरदार के पास पहुंचा. सरदार ने पूछा ‘रानी की निशानी कहां हैं?’ दूत ने कांपते हाथों से थाल व पत्र दे दिया. चुण्डावत फटी आँखों से पत्नी का सिर देखते रह गये.
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