आजादी के 76 साल बाद भी, क्यों महिलाओं को अपने स्वास्थ्य से करना पड़ता है समझौता?

करना पड़ता है समझौता?

Update: 2023-08-14 07:18 GMT
भारत को आजाद हुए 76 साल बीत गए हैं, लेकिन आज भी इस देश में महिलाओं की स्थिती दयनीय है। बात चाहे शिक्षा की हो या स्वास्थ्य की, महिलाओं को हर स्तर पर समझौता करना पड़ता है। भारत जैसे पितृसत्तात्मक समाज में महिलाओं के स्वास्थ्य पर खास नहीं ध्यान दिया जाता है। यह बात हम अपने मन से नहीं कह रहे हैं।
हरजिंदगी अपनी खास मुहिम 'आजाद भारत आजाद नारी' के तहत कुछ आंकड़े आपके सामने पेश करने जा रही है, जो भारत में महिलाओं के स्वास्थ्य देखभाल पर आधारित है। ये सरकारी आंकड़े आपको डरा भी सकते हैं! चलिए जानते हैं क्यों भारत में आज भी महिलाएं बुनियादी स्वास्थ्य देखभाल से वंचित हैं।
उपचार के लिए बुनियादी पहुंच में अंतर
बेहतर स्वास्थ्य के लिए बीमारी का उपचार करना जरूरी है, लेकिन क्या हो जब महिलाएं बुनियादी उपचार की पहुंच में ही न हो? यह आज के भारत की सच्चाई है।
अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान और हार्वर्ड विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं द्वारा की गई स्टडी में यह बताया गया है कि स्वास्थ्य देखभाल के मामले में भारी असमानता देखने को मिलती है। इस स्टडी में साल 2016 में जनवरी और दिसंबर के बीच एम्स ओपीडी में आए करीब 23.7 लाख लोगों के डेटा का विश्लेषण किया गया। इस डेटा से यह पता चलता है कि 23.7 लाख लोगों में से केवल 37% महिलाओं ने इलाज करवाया है, जबकि पुरुषों में यह प्रतिशत 63% है।
लिंगानुपात 1.69 रहा, जिसका मतलब है कि एम्स ओपीडी में इलाज कराने वाली प्रत्येक महिला के लिए 1.69 पुरुषों का इलाज हुआ।
इलाज न मिलने का एक कारण दूरी
इलाज के मामले में दूरी भी अहम भूमिका निभाती है। साल 2016 में बिहार के सबसे प्रतिष्ठित अस्पताल एम्स में 84,926 महिलाएं गईं, जबकि पुरुषों में यह संख्या 2 लाख से अधिक थी। केवल बिहार ही नहीं, उत्तर प्रदेश में भी इस ही प्रकार की स्थिती है। ऐसे में बात की जाए बड़े शहरों की तो नई दिल्ली में 6.6 लाख पुरुषों में 4.8 लाख महिलाएं अस्पताल जाकर अपना इलाज करवा रही थीं।
इसका एक कारण यात्रा लागत हो सकती है। इसके कारण महिलाएं स्वास्थ्य उपचार से वंचित हैं, लेकिन पब्लिक ट्रांसपोर्ट की टिकट की कीमत सभी लिंग के लिए समान है।
उम्र अनुसार स्वास्थ्य देखभाल
एम्स द्वारा किए गए अध्ययन में यह पाया गया है कि बच्चों और वृद्ध लोगों के लिए असमानता काफी ज्यादा थी। वहीं, मध्यम आयु के लिए यह परेशानी कम है। इससे यह पता चलता है कि जब बात हेल्थ केयर की आती है, तो सबसे कम उम्र और उम्रदराज महिलाएं इस सुविधा से वचिंत हैं।
भारत में शिशु मृत्यु दर भी सबसे अधिक है। इनमें भी महिलाओं की संख्या काफी ज्यादा है। साल 2018 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार अंतर अभी भी है, लेकिन कम हो गया है। यह पुरुषों की तुलना में 2.5% अधिक है।
टीकाकरण में महिलाओं की भागीदारी
टीकाकरण में भी यह असमानता देखने को मिलती है, जबकि यह वह बुनियादी जरूरत है, जिससे किसी गंभीर बीमारी को रोका जा सकता है। साल 2003 के भारतीय राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण ने कहा था कि लड़कों की तुलना में लड़कियों में टीकाकरण की दर 13% कम थी। इस अंतर का एक कारण घरों में लड़कों की संख्या ज्यादा होना था। इन आंकड़ों में बदलाव आया, जब साल 2015 की एनएफएचएस डेटा में बताया गया कि यह अंतर घटकर अब केवल 1% रह गया है।
कोविड के समय में भी यह अंतर देखने को मिला। साल 2022 की अंतर्राष्ट्रीय समाचार आउटलेट डीडब्ल्यू ने भारत के टीकाकरण के डेटा का विश्लेषण किया था। यह डेटा सरकारी वेबसाइट CoWIN से लिया गया था, जिसमें 1.63 बिलियन वैक्सीन का डेटा मौजूद था। इसमें 83 करोड़ मिलियन पुरुषों को वैक्सीन की सुविधा मिली। वहीं महिलाओं में यह संख्या 79.2 करोड़ थी। यानी 3.8 करोड़ से अधिक खुराक का अंतर है।
इस बड़े अंतर का कारण डिजिटल आयामों तक पहुंच में कमी, छोटे शहरों में वैक्सीन के लिए महिलाओं को प्राथमिकता न देना, वैक्सीन के प्रति लोगों के बीच भ्रम था।
मासिक धर्म की जानकारी से जुड़े अभाव
आज भी भारत में पीरियड्स से जुड़ी जानकारी का अभाव है। पीरियड्स होने पर सही देखभाल न मिलने के कारण महिलाओं और लड़कियों को कई तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ता है। 2015-2016 के नेशनल हेल्थ सर्वे के मुताबिक भारत में 33.6 करोड़ महिलाओं में से केवल 36% आबादी की पहुंच पीरियड्स के दौरान इस्तेमाल किए जाने वाले सुरक्षित प्रोडक्ट्स तक थी। बाकी महिलाएं, आज भी कपड़ा, ऊन और घास जैसी चीजों का उपयोग करती हैं।
यूके के लिवरपूल स्कूल ऑफ ट्रॉपिकल मेडिसिन, टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज,मुंबई-यूनिसेफ इंडिया और अमेरिका के रोग नियंत्रण केंद्र की रिपोर्ट में करीब 1 लाख लड़कियों पर सर्वे किया गया, जिसमें पाया गया कि लगभग आधी लड़कियों को पीरियड्स होने से पहले तक इस बारे में कोई जानकारी नहीं थी। ऐसे में जब लड़कियों को पीरियड्स होते हैं, तब उन्हें सुविधा और सहायता नहीं मिलती है।
एनजीओ दसरा की स्पॉट ऑन रिपोर्ट की मानें तो टॉयलेट, अन्य सुविधाओं की कमी और दर्द की वजह से करीब 2.3 करोड़ लड़कियों को बीच में ही स्कूल छोड़ना पड़ा। अन्य लड़कियां जो पढ़ाई जारी रखती हैं, वह हर महीने पीरियड्स के दिनों में स्कूल नहीं जा पाती हैं। ये सभी चीजें लड़कियों के समग्र विकास में बाधा बनती हैं।
जन्मजात हृदय रोग के आंकड़े
व्यापक स्वास्थ्य श्रेणियों से हटकर, हमने इलेक्टिव पीडियाट्रिक कार्डियक चिकित्सा जैसी बीमारियों पर भी ध्यान दिया।
यूएस नेशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन में एक रिपोर्ट प्रकाशित की गई, जिसमें शोधकर्ताओं ने भारत के 12 वर्ष तक की आयु के करीब 405 बच्चों के माता-पिता का इंटरव्यू लिया।
इसमें उन्होंने माता-पिता को इलेक्टिव पीडियाट्रिक कार्डियक सर्जरी कराने की सलाह दी। इनमें 134 लड़कियां थी। वहीं, लड़कों की संख्या 271 थी। इसमें केवल 44% लड़कियों ने 1 साल के भीतर सर्जरी करवाई, जबकि लड़कों में यह प्रतिशत 70 था।
इस डेटा के बाद शोधकर्ताओं ने यह जानने कि कोशिश की आखिर क्यों सलाह देने के बावजूद भी माता-पिता ने सर्जरी नहीं करवाई? इसका कारण लड़कियों की शादी और सामाजिक समर्थन की कमी था। इसके अलावा, सर्जरी की कीमत के कारण भी माता-पिता लड़कियों पर खर्च करने के लिए तैयार नहीं थे।
गर्भावस्था के दौरान मातृत्व मृत्यु दर और देखभाल
इंफेक्शन, अधिक ब्लीडिंग होना, हाई ब्लड प्रेशर और असुरक्षित अबॉर्शन मातृ मृत्यु दर का कारण हैं।
यूनिसेफ की रिपोर्ट के अनुसार, साल 2016 में मातृ मृत्यु की संख्या 33,800 थी। साल 2018 में यह संख्या 26,437 हो गई। यानी, स्थिती में पहले से सुधार आया है। यह रिपोर्ट शहर-ग्रामीण इलाकों पर भी प्रकाश भी डालती है। इस रिपोर्ट में कहा गया कि स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच का कारण परिवार या मां की आर्थिक स्थिती और वे कहां रहते हैं, इस बात पर भी निर्भर करता है।
इस बात की पुष्टि मुंबई और टोरंटो के एक्सपर्ट्स की एक अन्य रिपोर्ट द्वारा होती है। इस रिपोर्ट में "राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिनिधि सर्वेक्षणों में दो दशकों में भारत में मातृ मृत्यु दर के रुझान" का विश्लेषण किया गया था। इस रिपोर्ट में पाया गया कि गरीब राज्यों में मातृ मृत्यु दर अधिक थी। इसमें 1 लाख महिलाओं की मृत्यु की गणना की गई, जिन्होंने बच्चे को जन्म दिया था। यह आंकड़े उत्तर-पूर्वी और उत्तरी राज्यों के ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों में गंभीर थे।
संयुक्त राष्ट्र द्वारा निर्धारित एमएमआर लक्ष्य वर्ष 2030 तक प्रति एक लाख जीवित जन्मों पर 70 है। 2020 तक यह भारत के लिए 99 था, लेकिन यह वास्तव में बहुत खराब था। 1997 में 398 प्रति लाख पर, इसलिए इसमें एक बड़ा सुधार हुआ है। स्टडी में कहा गया कि अगर कटौती की औसत दर बरकरार रहती है, तो भारत संयुक्त राष्ट्र द्वारा दिए गए इस लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है।
पॉपुलेशन फाउंडेशन ऑफ इंडिया की चीफ ऑफ प्रोग्राम्स संघमित्रा सिंह ने बताया कि भारत के ग्रामीण इलाकों में महिलाओं के पास स्वास्थ्य से संबंधित निर्णय लेने का अधिकार नहीं है। इसके कारण महिलाओं का जीवन प्रभावित होता है। इनमें अनचाहे गर्भधारण, कम उम्र में गर्भधारण या बच्चों को अलग रखने में असमर्थता जैसे निर्णय शामिल हैं। इसके आगे उन्होंने कहा कि इसका कारण शिक्षा की कमी और लड़कियों की कम उम्र में शादी हो जाना है। इस उम्र में वह अवांछित और असामयिक गर्भधारण के परिणामों को समझने के लिए पर्याप्त परिपक्व नहीं होती हैं। 15-19 साल की लड़कियों की मृत्यु का एक कारण गर्भावस्था संबंधी जटिलताएं हैं। मातृ मत्यु दर का शिकार युवा लड़कियां और बाल वधुएं होती हैं, जो गर्भधारण के बारे में जागरूक नहीं होती हैं।
बीमा के उपयोग में असमानता
सालों से सरकार द्वारा स्वास्थ्य बीमा की स्कीम चलाई जा रही है। इसके बावजूद महिलाएं अपने स्वास्थ्य से समझौता करती हैं। स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने एक स्टडी की थी, जिसमें सरकारी स्वास्थ्य बीमा कार्यक्रम के तहत 40 लाख से ज्यादा अस्पतालों के दौरों का विश्लेषण किया गया। यह राजस्थान में करीब 4.6 करोड़ गरीब लोगों को मुफ्त में इलाज मुहैया कराता है। बच्चों में बीमा में 33% हिस्सेदारी लड़कियों की थी। वहीं, बुजुर्गों में यह प्रतिशत 43% है।
इस स्टडी में पाया गया कि बीमा के लिए नामांकन में कोई समस्या नहीं थी, क्योंकि इस योजना के लिए महिलाएं पंजीकृत थीं, लेकिन परिवार वाले महिलाओं से ज्यादा पुरुषों के स्वास्थ्य पर ध्यान देते हैं, जिसके कारण यह प्रतिशत कम है।
एक्सपर्ट की राय
expert quote on women health
दिल्ली में सेंटर फॉर सोशल रिसर्च की डायरेक्टर रंजना कुमारी ने कहा, लड़कों के मुकाबले लड़कियों के स्वास्थ्य पर कम ध्यान दिया जाता है। लड़कियों को बचपन में कम और पौष्टिक खाना न देना और जल्द ही उनकी शादी के बारे में सोचने का कारण उपेक्षा में योगदान देता है। पीरियड्स से लेकर प्रेग्नेंसी के दौरान महिलाओं के स्वास्थ्य को नजरअंदाज किया जाता है, विशेषकर ग्रामीण इलाकों में।
"हम लड़कियों के स्वास्थ्य के बारे में उतने चिंतित नहीं हैं जितना हम लड़कों के बारे में हैं।" सामाजिक कार्यकर्ता और दिल्ली में सेंटर फॉर सोशल रिसर्च की निदेशक रंजना कुमारी ने कहा, हम लड़कों को अधिक महत्व देते हैं।
खराब स्वास्थ्य महिलाओं के समग्र विकास और जीवन को बाधित करता है
आज भी भारत में महिलाओं के स्वास्थ्य को प्राथमिकता नहीं दिया जाता है। यहां तक कि महिलाएं और उनके घरवाले भी स्वास्थ्य पर ध्यान नहीं देते हैं। पॉपुलेशन फाउंडेशन ऑफ इंडिया के कार्यक्रम प्रमुख संघमित्रा सिंह ने कहा, ''महिलाओं में स्वास्थ्य संबंधी व्यवहार बहुत कम है।'' आंकड़े और एक्सपर्ट बताते हैं कि पुरुषों को महत्व दिया जाता है।
इसके आगे उन्होंने बताया कि महिलाएं स्वास्थ्य देखभाल पर ध्यान देती हैं, लेकिन बाधाओं के कारण वह यह करने में सक्षम नहीं हो पाती हैं। अक्सर महिलाओं को अकेले बाहर जाने नहीं दिया जाता है। अन्य मामलों में महिलाओं को पता ही नहीं होता है कि हेल्थ केयर प्रोवाइडर तक कैसे पहुंचें?
आखिर में हर रूप में महिलाओं को सशक्त बनाना जरूरी है। अगर महिलाओं का स्वास्थ्य बेहतर होगा, तो वह हर काम में 100% भागीदार बन पाएंगी।
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