कोरोना बढ़ा रहा तनाव, अब फेफड़ों के साथ-साथ दिल-दिमाग पर भी कर रहा है हमला
लेकिन दिल- दिमाग को रिकवर होने में उससे भी ज्यादा लंबा वक्त लग सकता है.
कोरोना तनाव बढ़ा रहा है. अवसाद बढ़ा रहा है. डिप्रेशन और हायपरटेंशन बढ़ा रहा है. कोरोना रिश्तों में भी अवसाद और दूरियां पैदा कर रहा है. कोरोना सिर्फ शरीर पर और फेफड़ों पर हमला नहीं कर रहा, दिल-दिमाग पर भी कर रहा है. और दिल-दिमाग पर लगी चोट तो ऐसी है कि दिखाई भी नहीं देती.
रितु और उसके पूरे परिवार को पिछले साल मई में कोरोना हुआ. 25 दिन बाद पूरा परिवार ठीक भी हो गया, लेकिन तब दिल्ली की एक पॉश कॉलोनी में रितु का एकलौता ऐसा परिवार था, जो कोरोना पॉजिटिव हुआ था.
अब जब दिल्ली समेत पूरे देश को कोरोना के सेकेंड वेव ने अपनी चपेट में ले लिया है और ये वेव हर बीतते दिन के साथ पहले से ज्यादा खतरनाक साबित हो रही है तो रितु को थोड़ा डर तो लगा, लेकिन इतना भी नहीं क्योंकि उसे यकीन था कि एक बार ये बीमारी होने के बाद दोबारा नहीं हो सकती. लेकिन 10 दिन पहले जब उसने ये खबर पढ़ी कि काफी लोग एक बार कोरोना से रिकवर करने के बाद दोबारा भी इसकी चपेट में आ रहे हैं तो उसे डर लगा कि कहीं इस खतरनाक बीमारी का हमला दोबारा न हो जाए. उसने घबराहट में कई डॉक्टरों से सलाह ली और अब सबके मुंह से ये सुनने के बाद कि एक बार कोरोना से रिकवर होने के बाद भी ये बीमारी दोबारा हो सकती है, रितु की रातों की नींद उड़ गई है. वो हर वक्त तनाव में रहती है. एक जरा सी छींक भी आ जाए तो रसोई में जाकर बार-बार पुदीना पाउडर की बोतल खोलकर चेक करती है कि उसे महक आ रही है या नहीं.
घर का तो ऐसा हाल है कि मानो कोई अस्पताल हो. घर का हर कोना दिन में दस बार सैनिटाइज किया जा रहा है. बुक शेल्फ से लेकर बिस्तर के तकिए तक से सैनिटाइजर की महक आती रहती है. वो खुद भी हर वक्त ऐसे महकती है मानो सैनिटाइजर के ड्रम में गिर पड़ी हो.
रितु का व्यवहार सामान्य चिंता नहीं है. ये डर एक तरह के ऑब्सेशन में बदलता जा रहा है. पहले तो घर के बाकी लोगों को यह उसकी नैचुरल मदरली फीलिंग लगती थी. घर में दो छोटे बच्चे हैं, जिन्हें लेकर वो कुछ ज्यादा ही प्रोटेक्टिव और फिक्रमंद है. लेकिन सामान्य से ज्यादा चिंता करने और पागलपन की हद तक जाकर चिंता करने में उतना ही फर्क है, जितना एक्सीडेंट के डर से सुरक्षित गाड़ी चलाने और एक्सीडेंट के डर से घर से बाहर गाड़ी लेकर कभी न निकलने में है.
रितु की साइकोलॉजिकल कंडीशन को मनोविज्ञान की भाषा में ओसीडी कहते हैं यानी ऑब्सेसिव कंपल्सिव डिसऑर्डर. लेकिन ये सामान्य ओसीडी नहीं है क्योंकि जीवन के बाकी व्यवहार में पहले कभी रितु में ओसीडी के कोई लक्षण नहीं थे. मुंबई में मनोचिकित्सक रेखा सीकरी कहती हैं, इस ओसीडी की वजह तंत्रिका तंत्र और मस्तिष्क की असामान्य फंक्शनिंग नहीं है, बल्कि इसकी वजह है डिप्रेशन और हायपरटेंशन है. बहुत ज्यादा तनाव की वजह से ये हो रहा है कि लोग कई बार पागलपन की हद तक जाकर खुद को और अपने बच्चों को प्रोटेक्ट करने की कोशिश कर रहे हैं.
डॉ. सीकरी कि मुताबिक डिप्रेशन, एंग्जायटी और हायपरटेंशन कोरोना के साइड इफेक्ट भी हो सकते हैं. कोरोना वायरस सिर्फ हमारे फेफड़ों पर ही हमला नहीं कर रहा, बल्कि इसके साइड इफेक्ट के रूप में लोगों में डिप्रेशन और एंग्जायटी भी बढ़ रही है. कई बार ये लक्षण बीमारी ठीक होने के कुछ समय बाद भी प्रकट हो रहे हैं. इस पैनडेमिक ने जिस तरह हमारा तनाव और अवसाद बढ़ाया है, उसकी अभिव्यक्ति सिर्फ ओसीडी ही नहीं, बल्कि अनेकों रूपों में हो रही है.
हाल ही में द लैंसेट साइकिएट्री जरनल में ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी की एक नई स्टडी प्रकाशित हुई है. यह स्टडी भी यही कह रही है कि कोरोना संक्रमित लोगों में अवसाद और एंग्जायटी के लक्षण दिखाई दे रहा है. इस अध्ययन में वैज्ञानिकों और शोधकर्ताओं ने पाया कि तकरीबन 34 फीसदी लोगों कोरोना से रिकवर करने के बाद भी डिप्रेशन के शिकार हुए हैं.
यह अध्ययन मुख्यत: अमेरिकी कोरोना रोगियों पर किया गया है, लेकिन डॉ. सीकरी के मुताबिक यह बात सभी कोरोना पेशेंट्स पर लागू होती है. इस स्टडी में 2,36,000 से अधिक कोरोना पीडि़तों के इस बीमारी से रिकवर करने के बाद कुछ महीनों तक जांच की गई. इलेक्ट्रॉनिक मैपिंग और जांच उपकरणों के जरिए उनके मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य का डीटेल रिकॉर्ड दर्ज किया गया. इस जांच में वैज्ञानिकों ने पाया कि कोरोना से ठीक हो चुके 34 फीसदी लोगों के मानसिक स्वास्थ्य की हालत ठीक नहीं थी. वो तरह-तरह के अवसाद, डिप्रेशन, एंग्जायटी और हायरपरटेंशन के शिकार हो रहे थे. उनके मन में वहम, असुरक्षा और डर की भावना सामान्य से ज्यादा बढ़ गई थी. ओसीडी तो उन लक्षणों में से सिर्फ एक लक्षण है.
जैसे अहमदाबाद में एक बड़ी मल्टीनेशनल कंपनी में काम करने वाली 34 वर्षीय सारिका दवे भी पिछले साल अक्तूबर में कोरोना पॉजिटिव हुई थीं और एक महीने के भीतर रिकवर भी हो गईं. लेकिन अब उनके साथ ऐसी-ऐसी चीजें हो रही हैं, जो पहले कभी नहीं हुईं. जैसेकि पैनिक अटैक पड़ना या सांस लेने में इतनी तकलीफ होना कि उन्हें लगता है कि उनकी जान निकल जाएगी. जबकि वो अस्थमा की मरीज नहीं हैं और जब ऐसा अटैक होता है, उस वक्त भी उनकी बॉडी में ऑक्सीजन का लेवल बिल्कुल सामान्य होता है.
जब उन्होंने डॉक्टर को दिखाया तो डॉक्टर ने उन्हें काउंसिलर के पास जाने की सलाह दी. डॉक्टरों को लग रहा है कि सारिका के बॉडी में हो रहे ये सारे रिएक्शन मनोवैज्ञानिक हैं, शारीरिक नहीं.
इस वक्त हमें शारीरिक बल के साथ-साथ मानसिक बल की भी बहुत ज्यादा जरूरत है. शरीर तो रिकवर हो जाएगा, लेकिन दिल- दिमाग को रिकवर होने में उससे भी ज्यादा लंबा वक्त लग सकता है.