महामारी के बाद से ही बच्चों में व्यवहारिक और भावनात्मक समस्याएं दिखाई दे रही...
नई दिल्ली: लॉकडाउन के बाद से ही बच्चों में विकासात्मक, भावनात्मक और व्यवहार संबंधी समस्याएं होने लगी है। दरअसल, यह वह समय था, जब ज्यादातर बच्चे मोबाइल और टेलीविजन पर अपना समय बिता रहे थे और इसकी वजह से उन्हें अलग-थलग रहने की आदत होने लगी। महामारी के बाद से ही बच्चों और किशोरों में व्यवहारिक और भावनात्मक समस्याएं दिखाई दे रही हैं। खासतौर पर 5 वर्ष से कम उम्र के बच्चों में यह समस्या ज्यादा नजर आ रही है, जो माता-पिता के लिए चिंता का विषय बन चुका है और इसकी वजह से वह लगातार डॉक्टर के पहुंच रहे हैं।
बच्चों में बढ़ी व्यवहारिक और भावनात्मक समस्याएं
इस बारे में स्टेट कोविड टास्क फोर्स (बच्चों) के सदस्य और न्यू होराइजन्स चाइल्ड डेवलपमेंट सेंटर के निदेशक डॉ. समीर दलवई ने बताते हैं कि, "लॉकडाउन के दौरान बच्चों के स्क्रीन टाइम की काफी बढ़ोतरी हुई। हालांकि, माता-पिता घर पर ही थे, लेकिन वह काम में व्यस्त थे। ऐसे में बच्चों का स्क्रीन टाइम बढ़ गया। इसके साथ ही इस दौरान बच्चों में सामाजिक अलगाव की भी वृद्धि हुई, क्योंकि लॉकडाउन की वजह से बच्चे घर से बाहर नहीं निकल पा रहे थे। डॉक्टर बताते हैं कि उनके सेंटर में महामारी के बाद (2021- 2022) तक रोगियों की कुल संख्या 2258 है।
कोरोनाकाल में बढ़ा स्क्रीन टाइम
कोरानाकाल एक ऐसा दौर था,जब लोगों में चिंता और भय व्याप्त था। साथ ही पेरेंट्स ने बच्चों को अधिक स्क्रीन टाइम की अनुमति देकर न सिर्फ उनकी मांगों को मान लिया,बल्कि रोजमर्रा की उनकी गतिविधियों पर भी कोई नियंत्रण नहीं रखा। महामारी के बाद एक तरफ जहां वयस्कों ने पहले की तरह अपनी दिनचर्या फिर से शुरू कर दी, वहीं बच्चे अभी भी अधर में हैं। इस दौरान 2 साल से कम उम्र के बच्चों को जहां 4-5 साल की आयु में सीधा स्कूल भेज दिया गया, तो वहीं, 5 साल से ज्यादा उम्र के बच्चे इस दौरान पढ़ाई से वंचित रह गए। ये बच्चे न सिर्फ अकादमिक रूप से पिछड़ रहे हैं, बल्कि इससे निपटने के लिए अत्यधिक तनाव में हैं।
बच्चों के लिए जरूरी परिवार का साथ
इस प्रकार, महामारी के बाद सभी आयु वर्ग के बच्चों में व्यवहारिक और भावनात्मक समस्याएं होने लगी हैं। इतना ही नहीं जिन बच्चों में पहले से ही विकास संबंधी मुद्दे थे, महामारी के बाद उनकी यह समस्या और भी अधिक बढ़ गई है।" डॉक्टरों का कहना है कि स्कूल में सिर्फ शिक्षा मिलती है, लेकिन बच्चों को अपने रिश्तेदारों और पड़ोसियों से सामाजिक जुड़ाव मिलता है। इसलिए बच्चों को स्कूल से पहले अपनों की ज्यादा जरूरत होती है। बच्चों के व्यवहार में आया बदलाव कोई बीमारी नहीं, बल्कि एक सामाजिक समस्या है, जिसे किसी डॉक्टरी इलाज से नहीं, बल्कि परिवार के सदस्यों के आपसी मेलजोल से दूर किया जा सकता है।
बच्चों में विकास को लेकर जागरुकता जरूरी
बाल रोग विशेषज्ञ डॉ. बरखा चावला ने कहती कि व्यवहार संबंधी विकार, ऑटिज्म स्पेक्ट्रम डिसऑर्डर (एएसडी), अटेंशन-डेफिसिट/हाइपरएक्टिविटी डिसऑर्डर (एडीएचडी), स्पेसिफिक लर्निंग डिसऑर्डर (एसएलडी), बौद्धिक अक्षमता वाले बच्चों के इलाज को लेकर लोगों में जागरुकता जरूरी है। अक्सर माता-पिता यह नहीं जानते कि उनके बच्चों को कोई समस्या है, जिसकी वजह से इलाज में देरी होती है। इसलिए जरूरी है कि माता-पिता को बच्चों के विकास में हो रही देरी के बारे में सतर्क रहें।